मुद्राराक्षस का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक परिचय
मुद्राराक्षस का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक परिचय
- मुद्राराक्षस अपने ढंग का अनुपम नाटक है जिसमें लेखक ने परम्परागत नाट्य-रूढ़ियों का परित्याग करके नवीन मार्ग का प्रवर्तन किया है । लेखक नाट्यशास्त्र का महापण्डित होकर भी अपने मौलिक गुण के कारण एक शक्तिशाली नवीन नाट्य-पद्धति पर चलता है जिसका अनुकरण तक लोग नहीं कर सके। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का व्यावहारिक रूप देकर विशाखदत्त ने इस नाटक की सर्जना की है। इसमें नाट्य-सुलभ प्रेम-कथा का परित्याग कर कूटनीति विषयक वस्तु-विन्यास किया गया है, राजा को नायक न बनाकर निरीह ब्राह्मण चाणक्य को नायक बनाया गया है, नायिका को स्थान न देकर प्रतीकात्मक नायिका चाणक्य की बुद्धि का प्रयोग है, वीररस के अभिनव रूप कूटनीति- वीर का निवेश करके विदूषकादि पात्रों के बहिष्कार के अतिरिक्त हास्य या श्रृंगार रस का स्वल्प प्रयोग भी नहीं है। यथार्थ के कठोर धरातल पर कथानक लुढ़कता है, रक्तपात के बिना ही केवल बुद्धि का खेल दिखाकर नायक की विजय वर्णित है - ऐसे अभिनव वीररस-प्रधान नाटक के रूप में मुद्राराक्षस का संस्कृत नाट्य-जगत में अपूर्व स्थान है।
- विशाखादत्त ने इस नाटक को घटना प्रधान बनाया है, चरित्रमूलक नहीं। सभी पात्र अपनी अपनी विशिष्टताओं के साथ घटनाओं को आगे बढ़ाने में सन्नद्ध हैं। सभी घटनाओं को मुख्य फल के लाभ की दिशा में त्वरित गति से प्रेरित किया गया है। एक भी अप्रासंगिक या अनावश्यक कथांश या वाक्य तक इसके विकास क्रम में प्रयुक्त नहीं है। इस प्रकार पूरा नाटक कसा हुआ है। घटनाओं के पर्त जैसे-जैसे खुलते हैं, कुतूहल और उत्सुकता का शमन होता जाता है किन्तु उत्सुकता के भी नये आयाम बनते हैं जिनका निवारण क्रमश: होता रहता है। इसीलिए कार्यान्विति की दृष्टि से इसके घटना-चक्र की महत्ता है।
- राजनीतिक-विषयक नाटक में रहस्य-रोमांच का समावेश करते हुए लेखक ने अपनी अद्भूत नाट्यकाल के कारण इसे श्रृंगार - प्रधान नाटकों के समान रोचक बनाया है। नाटक की पृष्ठभूमि की पूर्ति के लिए प्रथम अंक में चाणक्य का लम्बा स्वागत भाषण (1/11 के पूर्व से 1/16 तक) एवं द्वितीय अंक में खण्ड-खण्ड करके विराधगुप्त ( राक्षस के गुप्तचर का प्रतिवेदन) (2/13 के पूर्व से 2/16 के पूर्व तक) प्रस्तुत किये गये हैं। चाणक्य के भाशण में कोई संवाद नहीं, पूरा भाषण एकांश (न्दपज) है जबकि विराधगुप्त के प्रतिवेदन पर राक्षस की प्रतिक्रियाएँ दिखायी गयी हैं।
- कूटनीति में प्रवीण दोनों मन्त्रियों (चाणक्य तथा राक्षस) की नीतियों के घात-प्रतिघात की घटनाएँ नाटक को सार्थक तथा गतिशील बनाती हैं। इनके स्वागत भाषणों से सामाजिक को इनका वास्तविक कार्य समझने में सुविधा होती है।
- विशाखदत्त ने राक्षस मुख से नाटक-कर्ता और राजनीति में खेलनेवाले की समानता प्रकट करायी है- कर्ता व नाटकानामिममनुभवति क्लेशमस्मद्विधो वा (4/3 अन्तिम चरण)। दोनों को समान रूप से क्लेशका अनुभव करना पड़ता है; दोनों ही संक्षिप्त कार्योपक्षेप (आरम्भ) करके उस कार्य का विस्तार चाहते हैं, गर्भित बीजों के अत्यन्त गहन और गूढ़ फल को उद्भिन्न करते हैं, बुद्धि का प्रयोग करके विमर्श (कर्तव्याकर्तव्य का विष्लेशण, विमर्ष सन्धि का निर्माण) करते हैं एवं फैले हुए कार्य-समूह का उपसंहार भी कर लेते हैं। इस प्रकार नाट्य-रचना और राजनीतिक दाव-पेंच समान ही है, जब विधि-सम्मत (शास्त्रीय) नाट्य-रचना कठिन है, तब स्वतन्त्र एवं प्रगतिवादी रचना की कठिनाई का क्या कहना? लेखक ने इतिवृत्त निर्माण में तथा उसके विकास में पूरी स्वाधीनता दिखायी है।
- मुद्राराक्षस में कुल 29 पात्र है, एकमात्र स्त्रीपात्र चन्द्रनदास की पत्नी है जो सप्तम अंक में चन्दनदास के मृत्युदण्ड-दृश्य में करूण- रस का उद्भव करती है। शेष सभी पात्र अपनी-अपनी विशिष्टता रखते हुए भी चाणक्य के हाथों की कठपुतली हैं। इन दोनों पात्रों के संघर्ष का ही प्रतिफल पूरे नाटक में हुआ है। चाणक्य प्रखर कूटनीतिज्ञ, शाठ्यनीति का प्रयोक्ता, निरन्तर सावधान, कर्मठ पुरुषार्थवादी, राजनीति के खेलों (दाँव-पेंच, जोड़-तोड़) में परम प्रवीण, बहुत बड़ी परीक्षा के बाद किसी पर विश्वास करने वाला, दम्भ किन्तु अत्यन्त साधारण स्तर का जीवन जीने वाला अमात्य है; उसमें राक्षस के गुणों को पहचानने की क्षमता है इसीलिए स्वयं चन्द्रगुप्त का अमात्य न बनकर राक्षस को उस पद पर स्थापित करने में कूटनीति का प्रयोग करता है। वह प्रधान पात्र या नायक है, उसे ही अपनी नीतियों के प्रयोग का फल मिलता है। दूसरी ओर राक्षस कूटनीति होते हुए भी ऋजुनीति का प्रयोक्त है । वह भाग्यवादी, कपटी मित्रों पर भी विश्वास करनेवाला, अपने घर के भेदियों को न समझने वाला, नीति का प्रयोग करके निश्चिन्त हो जाने वाला, उदार मित्र के लिए त्याग करने वाला एवं चाणक्य के अनुसार प्रज्ञा-विक्रम-भक्ति का समुदित रूप है।
- ये दोनों अमात्य क्रमश: चन्द्रगुप्त ओर मलयकेतु को आधार बनाकर नीति- कौशल दिखाते हैं। ये दोनों पात्र परस्पर विरोधी चरित्र के हैं। चन्द्रगुप्त योग्य राजा है किन्तु चाणक्य के हाथों में समर्पित है मलयकेतु स्वतन्त्र बुद्धि ना, पुरुषार्थी किन्तु मूर्ख और उद्दण्ड है। इसीलिए भावुक राक्षस उससे दूर चला जाता है । बुद्धिवादी चाणक्य के हाथों में खेलने वाले चन्द्रगुप्त का राज्य शक्तित्रय सम्पन्न होकर स्थिर बन जाता है। शकटदास और चन्दनदास राक्षस के विश्वसनीय मित्र हैं, मित्र के लिए सर्वस्व त्याग करते हैं।
- इस नाटक में कूटनीति-वीररस है जो अन्य किसी संस्कृत नाटक में नहीं है, शास्त्रों में विवेचित तक नहीं हुआ है । 'मुद्राराक्षस की वीरसाभिव्यक्ति में समसामयिक राजनीतिक जीवन की उन्नतिशीलता के लिए उत्सुक एक कर्मठ राजनीतिक नेतृत्व की अदम्य आत्मोसर्ग-भावना और उत्साह की प्रबल प्रेरणा का हाथ है और यही वह रहस्य है कि संस्कृत नाटककार किसी अन्य मुद्राराक्षस की रचना न कर सके। इस नाटक में राष्ट्रकी सुरक्षा के लिए कर्तव्य-भावना का ऐसा प्राबल्य है कि उसके समक्ष रति (प्रेम) आदि के भाव शून्यवत् हैं। इसीलिए इसमें सभी पात्र अपूर्व उत्साह से भरे हैं, अपने-अपने कार्यों के प्रति तन्मयता से समर्पित हैं। जय-पराजय की भावना से ऊपर यह कर्तव्यपालन का नाटक है जो अपने प्रयोजन में पूर्णतः सफल है। नायक का प्रश्न - मुद्राराक्षस के नायक को लेकर प्रायः तीन मत प्रचलित हैं जिनमें राक्षस, चन्द्रगुप्त और चाणक्य को नायक कहा गया है। सामान्यतः नायक के विषय में परम्परा से यही कहा गया है-
प्रख्यातवंशो राजर्षिर्धीरदात्त: प्रतापवान् ।
दिव्योऽथ दिव्यादिव्यो व गुणवान्नायको मतः ।। (साहित्यदर्पण)
- इस सिद्धान्त के अनुसार राजकुल में उत्पन्न व्यक्ति ही नायक की कोटि में आता है । आधुनिक लोग फलप्राप्ति करने वाले को नायक बताते हैं तो तर्क की दृष्टि से नाटक में प्रधान भूमिका धारण करने वाला नायक होता है। इसीलिए तीन पात्रों का नायकत्व विभिन्न मतों का आधार है। जहाँ तक राक्षस के नायकत्व का प्रश्न है वह उसके मन्त्रिपद प्राप्त करने अर्थात् फललाभ की घटना पर आश्रित है. राक्षस भूतपूर्व राजा (धननन्द) का अमात्य था, वह इस नाटक के अन्त में चन्द्रगुप्त का अमात्य बन जाता है इसलिए मुख्य फल का अधिकारी होने से नायक हुआ। किन्तु इस पर आक्षेप होता है कि जिस फल को राक्षस प्राप्त करता है, उसके लिए न तो उसे स्पृहा है ओर न वह इसके लिए चेष्टाशील ही है। वस्तुतः चाणक्य की महानुभावता ओर गुणग्राहकता का यह परिणाम है कि राक्षस पर यह फल (मन्त्रिपद-लाभ) आरोपित होता है। अतः फललाभ का तर्क उस पर असंगत है। फललाभ के प्रति ईच्छा या चेष्टा आवश्यक है। राक्षस जन्म से ब्राह्मण है, क्षत्रिय नहीं अर्थात् राजवंश का नहीं ।
मुद्राराक्षस का नायक चाणक्य ही है सिद्ध कीजिये ?
- चन्द्रगुप्त का नायकतव कुछ अधिक महत्त्व रखता है क्योंकि वह नन्द का पुत्र है, राजवंश का है। उसमें राज्य की दो शक्तियाँ हैं-प्रभुशक्ति और उत्साह-शक्ति । उसे तीसरी शक्ति (मन्त्रशक्ति) की प्राप्ति चाणक्य के बुद्धिबल से नाटक के अन्त में हो जाती है। राजकुल से सम्बन्ध एवं फललाभ की दृष्टि से उसे नायक कहा गया है। किन्तु यह मत भी दोषपूर्ण है। चन्द्रगुप्त राजा अवश्य है किन्तु इस नाटक में उसे राजकुलोत्पन्न नहीं माना गया है। चाणक्य तो उसे सदा ‘वृशल' (शूद्र) कहकर सम्बोधित करता है। वह कुलीन नहीं, अपितु कुलहीन है। राक्षस राजलक्ष्मी को कोसते है हुए कहा है-
पृथिव्यां कि दग्धाः प्रथितकुलजा भूमिपतयः ?
पति पापे, मौर्य यदसि कुलहीनं वृतवती ? (मुद्रा०2/7 पृ० )
- अतः परम्परावादियों का यह मत खण्डित हो जाता है कि वह कुलीन था। दूसरी बात यह है कि उसका चरित्र इस नाटक में विकसित नहीं हुआ है। वह एक गौण ही है केवल तृतीय और सप्तम अंकों में वह मंच पर आता है। ऐसी स्थिति में चाणक्य को ही नायक कहा जा सकता है, यही नाट्यकार की लालसा है | उसने इस राजनीतिक नाटक की रचना में रूढ़िगस्त एवं जड़ीभूत नाट्य-परम्परा को नहीं माना, स्वयं नाट्यशास्त्र का वह पण्डित जो था, 'पथि यदि कुपथे वा वर्तयामः स पन्थाः' का निर्माता था । लेखक नाटक के आरम्भ से ही चाणक्य का पक्षधर है, सभी पात्रों के ऊपर वह उसे दिखाता है। मुद्राराक्षस से इतिवृत्त की विकास ही चाणक्य के पक्ष में और विपक्ष में होने वाले घटनाक्रमों के प्रवर्तन के रूप में होता है: क्रमशः विपक्ष सिकुड़ता जाता है और पक्ष उस पर भारी पड़ने लगता । 'प्रतिहत परपक्षा आर्यचाणक्यानीतिः' (6/1) कहकर नाटककार ने भी इसका समर्थन किया है।
- विशाखदत्त की नाट्यशाला का अनुपम रत्न चाणक्य ही है जो सम्पूर्ण कथानक को और तद्द्रुसार पात्रों को भी अपनी मुट्ठी में रखता है। लेखक ने नायिका तो नहीं रखीं, किन्तु कूटनीति- प्रधान नाटक में प्रीतकात्मक बुद्धि को ही चाणक्य की अनवरत सहचरी के रूप में प्रस्तुत किया है। चाणक्य कहता है कि मेरे पास से सभी लोग चले जायें किन्तु नन्दों के उन्मूलन में शक्ति का प्रदर्शन कर चुकी केवल मेरी बुद्धि ही पास रहे तो सब देख लूँगा-
ये याता: किमपि प्रधार्य हृदये पूर्वं गता एव ते
ये तिष्ठिन्ति भवन्तु तेऽपि भवन्तु तेऽपि गमने कामं प्रकामोद्यमाः ।
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका
नन्दोन्मूलनदृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ।।
- विशाखदत्त ने नाट्य के अनेक उपादानों में स्वाधीनता दिखायी है तो नायक की रूढ़ि के भश् भी उनकी स्वाधीनता आश्चर्यजनक नहीं है। फलप्राप्ति की बात उठायें तो राक्षस के अमात्य बनने से न स्वयं राक्षस को वैसी प्रसन्नता होती है और न चन्द्रगुप्त की ही, जैसी प्रसन्नता अपनी प्रति (मौर्यवंश का सर्वतोभावेन प्रतिष्ठा न) पूर्ण करने से चाणक्य को होती है। चाणक्य ही इस कार्य के लिए उत्सुक था और नाटक के आरम्भ से ही तद्विशयक प्रयत्नों में लगा था। आरम्भ यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम-इन पाँच अवस्थाओं की दृष्टि से विचार करें तो सर्वत्र चाणक्य ही मिलेगा। राक्षस के गुणों के पारखी भी वही है, जो राक्षस चन्द्रगुप्त की हत्या और चाणक्य के निर्वासन के प्रति कृतसंकल्प था, उसका हृदय परिवर्तन करके चन्द्रगुप्त की शरण में आने को विवश करना चाणक्य की बुद्धि के कौशल का अद्भुत चमत्कार था। स्वयं राजसत्ता का सुख छोड़कर राष्ट्र को सामर्थ्यवान् बनाने की दुर्लभ भावना से वह आद्यन्त भरा हुआ है। निःस्पृह ब्राह्मण को नायक बनाकर विशाखदत्त ने नायक की इस निरुक्ति को चरितार्थ किया है नयति घटनाचक्रं फलप्राप्तिपर्यन्त इति नायकः। अपनी सहचरी बुद्धि की क्षमता पर उसे पूर्ण विश्वास है कि राक्षस का निग्रह वह आरण्यक गज के समान चन्द्रगुप्त के कार्य के लिए कर लेगा-
बुद्ध्या निगृह्य वृशलस्य कृते क्रियाया
मारण्यकं गजमिव प्रगुणीकरोमि । ( 1/2730)
इस प्रकार मुद्राराक्षस का नायक चाणक्य ही है जो अपने विचित्र रहस्यमय व्यक्तित्व से पूरे नाटक के घटनाक्रम पर छाया रहता है।