मुद्राराक्षस' नाटक के उपनायक चन्द्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताएँ
मुद्राराक्षस' नाटक के उपनायक चन्द्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताएँ
'मुद्राराक्षस' नाटक का उपनायक चन्द्रगुप्त है। वह राजा नन्द के द्वारा एक शूद्रा स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । वह बाल्यकाल से ही बड़ा मेधावी तथा प्रतिभावान् था। उसे राजा बनाने का श्रेय चाणक्य को ही है ।
मुद्राराक्षस' नाटक को देखने पर चन्द्रगुप्त की निम्नलिखित चारित्रिक विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं
1. सुयोग्य राजा-
चन्द्रगुप्त अत्यन्त ही सुयोग्य तथा प्रजाप्रेमी राजा है। राक्षस को उसकी तेजस्विता का आभास उसके बचपन में ही हो गया था .
बाल एव लोकेऽस्मिन सम्भावितमहोदयः।-7/12
वह राजनीति में भी निपुण है तथा सभी राजकर्मों को जानता है। वह अत्यन्त वाक्पटु भी है ।
चाणक्य के साथ कृतककलह होने पर वह चाणक्य के प्रश्नों का उत्तर चतुरता के साथ देता है।
2. अत्यन्त विनम्र-
चन्द्रगुप्त बड़ा ही विनम्र स्वभाव का है। चाणक्य की सभी आज्ञाओं को वह नम्रता के साथ स्वीकार करता है, जब चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को नकली झगड़ा करने के लिये कहा था, तब चन्द्रगुप्त ने किसी तरह चाणक्य की आज्ञा स्वीकार की, परन्तु चाणक्य के साथ झगड़ा करना उसे पाप करने की तरह लगता था । अन्त में जब चन्द्रगुप्त राक्षस से मिलता है, तो उसे भी विनम्रतापूर्वक अभिवादन करता है।
3. परम गुरुभक्त
- चन्द्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य का अत्यन्त आदर करता है - वह अपने गुरु गुरु की आज्ञा से कृतककलह करना भी स्वीकार कर लेता है। ।
4. उदासीन प्रवृत्ति वाला-
चन्द्रगुप्त के राज्य का सारा भार गुरु चाणक्य के ऊपर ही है । इसलिये वह स्वयं राज्य के प्रति उदासीन रहता है। राक्षस भी कहता है कि चन्द्रगुप्त सचिवायत्त सिद्धिवाला है। अर्थात् मन्त्री के ऊपर अपने राज्य का सारा भार रखकर निश्चिन्त रहता है। इसी कारण चन्द्रगुप्त को राज्यकर्म अत्यन्त कष्टदायक प्रतीत होता है
“राज्यं हि नाम राजधर्मानुवृत्तिपरस्य नृपतेर्महदप्रीतिस्थानम्।”
5. वीर तथा पराक्रमी-
चन्द्रगुप्त शूरवीर तथा पराक्रमी योद्ध है। बिना युद्ध के शत्रु पर विजय प्राप्त करना चन्द्रगुप्त के लिये लज्जा की बात है -
“विनैव युद्धादार्येण जितं दुर्जयं परबलमिति लज्जित एवास्मि ।”
वह बचपन से ही वीर है।
6. उत्सवप्रिय -
- चन्द्रगुप्त प्रकृति प्रेमी तथा उत्सवप्रिय राजा है । कौमुदीमहोत्सव की शोभा देखने की उसे बड़ी ही उत्कण्ठा है। किन्तु चाणक्य के द्वारा कौमुदी महोत्सव रोक देने से चन्द्रगुप्त को निराश होना पड़ता है। इस प्रकार चन्द्रगुप्त में उपर्युक्त विशेषताएं स्पष्ट होती हैं। चाणक्य, जो कि सम्पूर्ण नाटक में चन्द्रगुप्त को वृशत कहता है, अन्ततः चन्द्रगुप्त को “भी राजन् चन्द्रगुप्त।” ' कहकर सम्बोधित करता है।