भर्तृहरि द्वारा रचित शतकत्रय का विस्तृत विवेचन
भर्तृहरि द्वारा रचित शतकत्रय का विस्तृत विवेचन
विस्तृत रूप में राजा भर्तृहरि द्वारा रचित तीनों शतकों का विश्लेषण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
भर्तृहरि द्वारा रचित नीति शतक का विस्तृत विवेचन (नीति शतक की व्याख्या)
- भर्तृहरि का व्यवस्थित सामाजिक जीवन, उस काल का आदर्श सामाजिक जीवन था । इसे प्रशंसनीय प्रभावशाली और सुगम बनाने हेतु भर्तृहरि ने व्यवस्थित नीति का क्रियान्वयन सामान्य रूप में किया । व्यवस्थित नीति क्रम को बनाते समय राजा भर्तृहरि सबसे पहले अनन्त ब्रह्म स्वरूप चेतन प्रकाश को नमस्कार करते हुए कहते हैं कि जो दिशाओं द्वारा आदिकाल से घिरा हुआ नही है अथवा सीमित नहीं है जो अनन्त है एक मात्र चेतन अथवा प्रकाश ही जिसकी मूर्ति एवं एक मात्र अनुभव ही जिसके होने का प्रमाण है ऐसे शान्त तेज वाले उस परमब्रह्म को नमस्कार है। इस प्रणाम के पश्चात आप आत्म (श्लोक) चिन्तन की ओर मुड़ते हुए विचार करते हैं कि मैं लगातार जिस नारी के विषय में सोचता रहता हूँ वह नारी मेरे प्रति उदासीन है। वह किसी दूसरे पुरूष को चाहती है वह पुरूष किसी अन्य नारी के प्रति आसक्त है कोई अन्य ना मेरी भलाई करके सन्तुष्ट होती है उन सभी आशक्त प्राणियों सहित भर्तृहरि स्वयं को भी धिक्कारते हैं -
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साऽप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत् कृते च परितुष्यति काचिदन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥
इस श्लोक से ऐन्द्रिक संग के प्रति वैराग्य दिखाई देता है। वह अपने अनुभव चक्षु के माध्यम से कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है विशेष ज्ञानी पुरूष को कठिनता से प्रसन्न किया जा सकता है किन्तु जो मनुष्य थोड़े ज्ञान के कारण स्वयं को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है उसे ब्रह्मा जी भी नहीं प्रसन्न नहीं कर सकते हैं इस श्लोक में-
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि च तं नरं न रंजयति ॥
- इस प्रकार अहंकार ज्ञानप्राप्ति में सर्वाधिक बाधक है। वह अज्ञानता को मूर्खता से जोड़ते हुए कहते है कि मूर्ख व्यक्तियों की अराधना कर उन्हें किसी भी प्रकार से प्रसन्न नहीं किया जा सकता है यदि मुर्ख व्यक्ति दुष्ट होतों ऐसे व्यक्तियों का सुधार सम्भव ही नहीं हो सकता किन्तु यदि आपके पास मधुर शहद के समान मीठे वचन हो तो ऐसे दुष्टों को सन्तुष्ट किया जा सकता है । वह मूर्खों के गुणों और विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने मुर्खता को छिपाने का एक मात्र गुण बताया है मौन जो बिल्कुल अपने अधीन है।
- विशेष रूप से सबकुछ जानने वालों के समाज में मौन मुर्खों का आभूषण है। अपने अन्दर आये अहंकार को उजागर करते हुए राजा भर्तृहरि कहते हैं कि जब मैं थोड़ा जानता था तब हाथी के समान घमण्ड़ में अन्धा हो गया था । उस समय इस भाव से मेरा मन भरा हुआ था कि मैं सब कुछ जानता हूं जब विद्वान लोगों की संगत में मैं कुछ जाना तो पता चला कि मैं तो मूर्ख हूँ ऐसा प्रतीत होते ही ज्वर के समान मेरा घमण्ड़ मिट गया।
- वह विवेक को मानव का सर्वोत्तम आभूषण मानते हैं जबकि अविवेक के पतन की ओर संकेत करते हुए गंगा स्वर्ग से शिवजी के शीश पर आयी । भगवान शिव के शीश से हिमालय पर्वत पर आयी। ऊँचे हिमालय पर्वत से धरती पर आयी और धरती से सागर में पहुँची। इस प्रकार यह गंगा क्रमशः नीचे स्थान प्राप्त करती रहीं यह भी सत्य है कि जिनका ज्ञान नष्ट हो जाता है उनका सैकड़ो प्रकार से पतन होता है।
- अज्ञानता को मूर्खों के आभूषण के रूप में स्वीकारते हुए राजा भर्तृहरि ने यह भी कहा कि अग्नि को जल से बुझाया जा सकता है छाते से सूर्य के तीव्र प्रकाश को कम किया जा सकता है मद् से मतवाले हाथी को अंकुश से तथा गाय और गधे जैसे पशुओं को डंडे से वश में किया जा सकता है।
- औषधियों के सेवन से रोग और भाँति-भाँति के मंत्रों के प्रयोग से विष दूर हो जाता है। शास्त्र में वर्णित सभी की दवा है किन्तु मूर्खता को दूर करने की कोई औषधि नहीं होती है।
- मनुष्य की रूचि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य साहित्य संगीत और कला से हीन है वह बिना सींग, पूँछ का पशु है जो बिना घास खाये हुए भी सौभाग्य के रूप में जीवित है। किन्तु जिनके पास विद्या, तप, ज्ञान, दान, शील एवं गुण नहीं है वह इस मृत्युलोक की धरती पर बोझ बने है मनुष्य के रूप में वह पशु के समान घूमते हैं।
- मूर्खों की संगति को दुर्भाग्य पूर्ण मानते हुए कहते हैं कि दुर्गम पर्वतों में जंगली लोगों के साथ घूमना उत्तम है किन्तु देवराज इन्द्र के महल में भी मूर्ख लोगों के साथ रहना अच्छा नहीं है। विद्वानों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिनकी सुन्दर कविताएँ शास्त्रों से सुशोभित शब्दों वाली है एवं जिसकी विद्या शिष्यों को देने योग्य है ऐसे प्रसिद्ध कवि जिस राजा के देश में निर्धन बनकर रहते हैं उस राजा की मूर्खता है।
- विद्या की नीतिगत प्रशंसा करते हुए राजा भर्तृहरि कहते हैं कि विद्या चुराने वालों को दिखाई नहीं देती हैं जबकि यह सदा कुछ न कुछ कल्याण करती ही रहती है। इसे यदि लगातार भिखारियों को भी दिया जाय तो यह बढ़ती ही जायेगी और यह कल्प के अन्त में भी समाप्त नहीं होगी। इस प्रकार की विद्या नामक धन जिनके पास है उनके सम्मुख घमण्ड नहीं किया जा सकता है और इनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता है ।
- लक्ष्मी को विद्वानों से अलग मानते हुए कहते हैं कि वह विद्वानों को बांध नहीं सकती है। अपमान की निन्दा करते हुए कहते हैं कि जिन्होने परम ज्ञान को प्राप्त कर लिया है, उन पंडितों का अपमान मत करों क्योंकि तिनके के समान छोटी और तुच्छ सम्पत्ति पंडितो को बांध नहीं सकती है।
- विद्वानों के गुणों को छिना नहीं जा सकता है। इसका वर्णन करते हुए राजा भर्तृहरि कहते हैं कि विधाता बहुत अधिक क्रोधित होने पर हंस को कमलों के समूह वाले तालाब से घूमने का सुख छीन सकता है परन्तु दूध और पानी को अलग करने वाली प्रसिद्ध चतुरता को विधाता नहीं छीन सकता है।
- पुरूष के सच्चे आभूषण की चर्चा करते हुए भर्तृहरि कहते हैं कि भुजबन्द और चन्दा के समान उजले हार मनुष्य को सुशोभित नहीं करते । स्नान करना, चन्दन लगाना, फूल माला पहनना और सजाये हुए बाल भी पुरूष की शोभा नहीं बनाती हैं। शुद्ध रूप में धारण की गयी एकमात्र विद्या ही मनुष्य की शोभा बढ़ाती है जबकि शेष सभी गहने सदैव नष्ट होते रहते हैं केवल विद्यारूपी गहना ही सच्चा गहना है जबकि विद्या के बिना मनुष्य की चर्चा करते हुए कहते है कि विद्या मनुष्य के अधिक सौन्दर्य का नाम है यह सुरक्षित और छिपे हुए धन के रूप में जानी जाती है विदेशों में जाने पर विद्या का ही आदर होता है धन का आदर नहीं होता है अर्थात् जो विद्या से हीन है वह मनुष्य नहीं पशु है।
- भर्तृहरि ने नीति निर्देश मे सम्पत्तियों और विपत्तियों का वर्णन करते हुए कहा है कि यदि क्षमा है तो कवच की आवश्यकता नहीं है, यदि क्रोध है तो मनुष्यों को शत्रुओं की आवश्यकता नहीं है यदि जाति बिरादरी है तो मनुष्यों को आग की आवश्यकता नहीं है यदि मित्र है तो दिव्य औषधि जैसा कोई फल नहीं हो सकता है यदि आपके साथ दुष्ट लोग है तो साँपों की आवश्यकता नहीं हो सकती है । यदि उत्तम विद्या है तो धन की आवश्यकता नहीं होती है। यदि आपके पास लज्जा है तो भूषणों की क्या आवश्यकता है। इतना ही नहीं सम्पूर्ण लोक में सुख की कामना करते है कि जो लोग अपने परिजनों के प्रति उदारता, सेवको के प्रति दया, दुष्टों के प्रति हुए दुष्टता, कहते सज्जनों के प्रति प्रेम, राजाओं के प्रति नीति, विद्वानों के प्रति सरलता, शत्रुओं के प्रति शूरता, गुरूजनों के प्रति क्षमा, एवं नारियों के प्रति धृष्टता का व्यवहार करते हैं जो पुरूष कलाओं में कुशल नहीं होते हैं उन्हीं के कारण लोक की स्थिति है।
- सत्संगति की महिमा को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि नीति भी सत्संगति को अपनाती है। सज्जनों की बुद्धि की जड़ता को दूर करती है, वाणी में सत्य सींचती है अर्थात् सत्य बोलना सिखाती है, सम्मान प्रतिष्ठा की उन्नति करती है पाप दूर करती है मन में प्रसन्नता का बोध कराती है और यह सभी दिशाओं में कीर्ति फैलाती है, अर्थात् सत्संगति मनुष्यों पर सभी प्रकार का उपकार करती है।
- सत्संगति के पश्चात् राजा भर्तृहरि कल्याण के मार्ग को बताते हुए कहते हैं कि दूसरे प्राणियों की हत्या से दूर रहना, दूसरे से धन छिनने में संयम, सत्य बोलना, समय पर शक्ति के अनुरूप दान देना, दूसरों की युवतियों से सम्बन्धित बातों में चुप रहना, तृष्णा रूपी स्रोतों का विनाश, गुरूजनों के प्रति नम्रता एवं सभी प्राणियों पर कृपा करना यही सभी शास्त्रों में कल्याण का एकमात्र सफल होने वाला मार्ग है।
- भर्तृहरि ने समाज में व्यक्तियों के स्थानों का निर्धारण उनकी कार्य क्षमता के आधार पर किया है। वह विघ्न को कार्य और कारण की कुंजी के रूप में दर्शाते हैं। आपका विचार है कि विघ्नों के कारण नीच लोगों के द्वारा कोई काम आरम्भ नही किया जाता है। मध्य श्रेणी के लोग काम आरम्भ कर देते हैं पर विघ्न आने पर उसे छोड़ देते हैं। किन्तु उत्तम श्रेणी के लोग विघ्नों के द्वारा बार-बार प्रतिरोध होने पर भी काम को प्रारम्भ करके अधूरा नहीं छोड़ते।
- जन्म और कर्म की सफलता का आंकलन करते हुए कहते हैं कि इस परिवर्तनशील संसार कौन मरता नहीं है तथा कौन जन्म नहीं लेता है किन्तु यहाँ उसी का जन्म लेना सार्थक है जिसके जन्म लेने से वर्ष की उन्नति होती है। वह महापुरूषों के चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं कि शेषनाग अपने फनों के समूह पर रखे हुए चौदह लोकों के समूह को धारण करते हैं। वे प्रेरक शेषनाग कच्छपराज द्वारा अपनी पीठ के बीच में धारण किये जाते हैं। उन कच्छपराज को भी सागर आदरपूर्वक अपनी गोद में छिपा लेता है। आश्चर्य है कि महापुरूषों के चरित्र की विभूतियाँ सीमा रहित हैं।
- पिता और पुत्र के मध्य कर्त्तव्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि घमण्ड से भरे हुए इन्द्र के वज्र के प्रहारों से हिमालय के पुत्र मैनाक का प्राण नाश उत्तम था । वज्र से निकलती हुए अग्नि के कारण उसके प्रहार भारी थे। पिता के कष्ट में विवश होने पर मैनाक का सागर के जल में गिरना उचित नहीं था।
- राजा भर्तृहरि महान लोगों के स्वाभाव की चर्चा करते हुए कहते हैं कि हाथों में प्रशंसनीय दान, सिर पर गुरूजनों के चरणों में प्रणाम करना, मुख से सच्ची वाणी, विजय प्राप्त करने वाली भुजाओं में अतुलनीय शक्ति, हृदय में स्वच्छ भावना एवं कानों से सुनी हुई विद्या ये स्वाभाविक रूप से महान् पुरूषों के ऐसे आभूषण हैं जो धन सम्पत्ति के बिना भी प्राप्त हो जाते हैं ।
- महान लोगों के व्यक्तित्व का निर्धारण करते हुए राजा भर्तृहरि कहते हैं कि हाथों में प्रशंसनीय दान, सिर पर गुरूओं के चरणों में प्रणाम करना, मुख में सच्ची वाणी, विजय प्राप्त करने वाली भुजाओं में अतुलनीय शक्ति, हृदय में स्वच्छ भावना एवं कानों में सुनी हुई विष ये स्वभाविक रूप से महान पुरूषों के ऐसे आभूषण हैं जो धन, सम्पत्ति के बिना भी प्राप्त हो जाते हैं।
- अपनी चित्त दशा के आधार पर अन्य महान चित्त वाले व्यक्तियों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि महान पुरूषों का मन सुखों में कोमल के समान कोमल और आपत्तियों में महापर्वत की शिलाओं के समूह के समान कठोर होता है।
- पुत्र, पत्नी और मित्र के कर्त्तव्यों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि जो अपने उत्तम चरित्र से पिता को प्रसन्न करे, ऐसे पुत्र जो पिता का ही भला चाहें, ऐसी पत्नी जो आपत्ति और सुख में समान व्यवहार करे ऐसा मित्र, इन तीनों को संसार में पुण्य करने वालों को ही मिलता है।
- सज्जनता का विश्लेषण अपने नीतिशतक में करते रूप से कहते हैं कि नम्रतापूर्वक उन्नति करते हुए, दूसरों के गुणों के वर्णनों द्वारा अपने गुणों को हुए स्पष्ट प्रसिद्ध करते हुए, दूसरों की भलाई के लिए विस्तृत एवं महान कार्यों को आरम्भ करके स्वार्थ पूरे करते हुए निन्दा के कठोर अक्षरों के कारण वाचाल मुख वाले दुष्टों के क्षमा के द्वारा ही दोषी ठहराते हुए, आश्चर्यपूर्ण चरित्र वाले संसार में आदरणीय सज्जन किसके पूज्य नहीं होते हैं।
- परोपकारी की प्रशंसा का वर्णन नीतिशतक के अन्तर्गत किया गया है वह परोपकार का वर्णन करते हुए कहते हैं कि फल आने के कारण पेड़ झुक जाते हैं। नये जल के कारण बादल धरती पर लटकते हैं सज्जन पुरूष समृद्धियाँ पाकर सभ्य बनते हैं। परोपकारियों का तो यह स्वभाव ही है । सच्चे आभूषण को अपनाने के लिए कहते हैं कि कान विद्या से ही शोभा पाते हैं कुण्डल से ही नहीं, हाथ दान से ही शोभा पाते हैं, कंगन से नहीं इसी प्रकार दूसरों की भलाइयों में लगे लोगों की देह परोपकारों से शोभा पाते हैं चन्दन नहीं।
- सच्चा मित्र कैसा होता है और उसका सामाजिक जीवन में कैसा योगदान होता है वह किस प्रकार से अपने इष्ट मित्रों को सहयोग प्रदान करता है इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि वह अपने मित्रों को पाप करने से रोकता है, हितकारी कार्यों में लगाता है उसकी गुप्त बातों को छिपाता है गुणों को प्रकट करता है । मित्र आपत्ति में पड़े हुए मित्र को नहीं छोड़ता है और समय पर उसकी सहायता करता है सज्जनता सच्चे मित्र का लक्षण बताते हैं ।