पण्डितराज जगन्नाथ का जीवन परिचय (Panditraj Jagnnath Biography in Hindi)
पण्डितराज जगनाथ सामान्य परिचय (प्रस्तावना)
- इस आर्टिकल में आप पण्डितराज जगन्नाथ के विषय में अध्ययन करेंगे। काव्यशास्त्र की परम्परा में पण्डितराज जगनाथ का स्थान शीर्षस्थानीय है। यह दक्षिणात्य ब्राह्मण विद्वान की दृष्टि में से मम्मट तथा विश्वनाथ की श्रेणी के विद्वान थे । पण्डितराज दिल्लीश्वर शाहजहाँ तथा उसके पुत्र दारा के प्रेमपात्र रहे हैं दोनों के संबंध में आपने प्रशंसापरक रचनाएं की है।
- शाहजहां ने इन्हें पण्डितराज की उपाधि से विभूषित किया। इस आधार पर इनका समय हम सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध स्वीकार कर सकते है । काव्य-शास्त्र की दृष्टि से आपकी 'रसगंगाधर अपूर्ण होने पर भी विद्वत्तापूर्ण कृति है। इस ग्रन्थ में दो 'आनन' है, प्रथम आनन् में अन्य विद्वानों ने काव्य लक्षणों का खण्डन कर 'रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' की काव्य को लक्षण प्रतिपादित किया गया है। काव्य हेतुओं में प्रतिमा में मुख्य मानकर काव्य के उत्तमोतम्, मध्यम, अधम भेद माने है। द्वितीय आनन में ध्वनि भेदों के सहित अभिधा, लक्षणा एवं स्तर अलंकारों का विवेचन किया है।
पण्डितराज जगन्नाथ का जीवन परिचय Panditraj Jagnnath Biography in Hindi
- आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ नैसर्गिक कवित्वसम्पन्न काव्यशास्त्रीय आचार्य थे। आन्ध्रप्रदेश इनकी जन्मभूमि थी । यह तैलंग ब्राह्मण थे। यह जगन्नाथकृत आसफविलास के आरम्भ में ही लिखा है-“तैलश्कुलावतंसेन पण्डितराज जगन्नाथेन”। इनके पिता पेरुभट्ट महान् विद्वान् थे, इसका प्रमाण प्राणभरण के आदि में लिखा है- “श्रीमत्पेरमभट्सूरितनयः । जिन्होंने ज्ञानेन्द्रभिक्षु से वेदान्त, माहेन्द्र पण्डित से न्याय-वैशेषिक, खण्डदेव उपाध्याय से मीमांसा और शेष वीरेश्वर का अध्ययन किया था और सर्वविद्याधर थे। इसका वर्णन रसगंगाधर के आदिभाग में उपलब्ध है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अपने पिता से अध्ययन किया था और उनके गुरु शेष वीरेश्वर से भी पढ़ा था। ‘‘अस्मदगुरु पण्डितवीरेश्वराणाम्”- मनोरमाकुचमर्दन के प्रारम्भ में वर्णन है। ये व्याकरण, दर्शन और साहित्यशास्त्र के उच्चकोटि के विद्वान् थे। ये प्रतिभाशाली, प्रत्युत्पन्नमति, समयपरीक्षक, युगद्रष्टा और प्रभावशाली पण्डित थे ।
तरुण होते ही ये विद्वान् हो गये और विद्वान् होते ही दिल्लीश्वर-शाहजहाँ के कृपापात्र होकर पण्डितराज की पदवी प्राप्त कर ली इन्होंने भामिनीविलास में लिखा है- 'दिल्लीवल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वयः"। इन्होंने ‘आसफविलास' के आरम्भ में लिखा है कि-
“मर्त्तिमतेव नवाब आसफखानमनः प्रसादेन द्विजकुलसेवा-हेवाकि-वाड्मनः कायेन माथुरकुलसमुद्रन्दुना रायमुकुन्देनादिष्टेन श्रीसार्वभौमश्री शाहजहाँ-प्रसादादधिगमत- ‘पण्डितराज' पदवी विराजितेन तैलंगकुलावतंसेन पण्डितराजजगन्नाथेन आसफविलासाइत्येयंमाख्यायिका विरमीवत्"।
- वहाँ कुछ दिन शाहजहाँ तथा उसके पुत्र दाराशिकोह के आश्रय में अपना 'नवीनवयः' (युवावस्था का पूर्वार्ध, 30 वर्ष तक) सुखपूर्वक बिताया था- दिल्ली-वल्लभ-पाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वयं’’(भामिनीविलास)| जगदाभरण में जगन्नाथ ने दाराशिकोह का वर्णन किया है। इससे जान पड़ता है कि 1640 ई. के बाद ये दिल्ली से निकल पड़े, उस समय यदि इनकी आयु 30 वर्ष माने तो इनका जन्मसमय 1610 ई० अनुमानित होता है।
- ये अप्पयदीक्षित और भट्टोजिदीक्षित के उत्तरसम-सामयिकविरोधी थे तथा इनके ग्रन्थों पर स्वतन्त्र रूप से खण्डन-ग्रन्थ लिख गये थे । अप्पयदीक्षित के भ्रातुष्पौत्र एवं शिष्य नीलकण्ठ दीक्षित ने 1638 ई० में नीलकण्ठविजय काव्य की रचना की थी, जिस समय दीक्षितजी परम वृद्ध रहे होंगे । सिद्धान्तकौमुदीकार भट्टोजिदीक्षित के गुरु शेषकृष्ण के पुत्र शेषवीरेश्वर पण्डितराज के एवं उनके पिता पेरुभट्ट के गुरु थे।
- बादशाह शाहजहाँ के साथ पण्डितराज ने कश्मीर की यात्रा की थी और वहाँ के नवाब आसफखान द्वारा बादशाह के सत्कारादि का वर्णन इन्होंने ‘आसफविलास’ में किया है। विद्वान् होते ही जगन्नाथ राजाश्रय को प्राप्त करने बीकानेर गये वहाँ के राजा जगत सिंह की प्रशंसा में इन्होंने जगदाभरणकाव्य (53 पद्यमात्र) की रचना की। इन्हीं जगत सिंह के पिता कर्ण सिंह के आदेश से मैथिल गशनन्द कवीन्द्र ने कर्णभूषण (रसनिरूपण) ग्रन्थ की रचना की थी। किंवदन्ती है कि वहाँ से ये जयपुरनरेश जय सिंह की सभा में पधारे । वहाँ मुल्लाओं के दो आक्षेपों के निराकरण हेतु पण्डितसभा हुई थी; पर समाधान नहीं हो रहा था। पण्डितराज ने समाधान का वचन दिया और कहा कि 'एक आक्षेप का उत्तर मैं तुरन्त दे सकता हूँ और दूसरे का उत्तर अरबी-फारसी पढ़कर दूंगा। वहाँ इन्हें फारसी पढ़ाने की व्यवस्था की गई और कुछ ही दिनों में ये दस भाषा के पारंगत हो गए। उक्त आक्षेपों का उत्तर देने हेतु इन्हें दिल्ली बादशाह के दरबार में भेजा गया। इनके समाधान से सभी प्रसन्न हो गये ।
पण्डितराज जगन्नाथ आक्षेप - (1)
- राजा जय सिंह आदि वास्तविक क्षत्रिय नहीं है, क्योंकि परशुराम ने जब इक्कीस बार पृथ्वी को निः क्षत्रिय कर दिया तो क्षत्रिय आये कहाँ से ? समाधान-परशुराम ने जब पहली बार पृथ्वी को निः क्षत्रिय कर दिया, तो दूसरी बार के लिए क्षत्रिय कहाँ से आए ? यह इक्कीस बार कहना ही प्रमाणित करता है कि संहार के बाद भी बहुत क्षत्रिय बचे रहे, जो इन राजाओं के पूर्व थे.
पण्डितराज जगन्नाथ आक्षेप-2, अरबी भाषा संस्कृत से प्राचीन है।
समाधान-मुसलमानों के ‘हदास' धर्मग्रन्थ में लिखा है कि-'मुसलमान हिन्दुओं से विपरीत आचरण करें, यही उनका धर्म है। इस वाक्य से ही सिद्ध होता है कि हिन्दू धर्म मुसलमानों के धर्म से प्राचीन है और स्वतः सिद्ध है कि उन हिन्दुओं की भाषा भी अरबी से प्राचीन है। दिल्ली दरबार में रहकर पण्डितराज ने एक परमरमणीय यवनी से प्रेम किया और बादशाह की कृपा से वह इन्हें प्राप्त हो गई। इसका प्रमाण यह है कि-
न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदापि ।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तहस्त, 'लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु ॥
यह समाचार देशभर में फैल गया और इन्हें
पण्डितों ने जातिच्युत घोषित कर दिया। इन पण्डितों में अप्पयदीक्षित और
भट्टोजिदीक्षित प्रमुख थे। अतः इनसे बैरभाव हो गया था कुछ दिनों के बाद यह यवनी, जिसका नाम 'लवंगी' था, असमय में ही विदश्ता हो गई और
पण्डितराज ने विरक्तभाव से दिल्ली को छोड़ दिया। ये यवनी सम्पर्क से अपने को स्वयं
पापी समझने लगे-
सुरधुनिमुनिकन्ये! तारथे: पुण्यवन्तं
स तरित निजपुण्यैस्तत्र किं ते महत्त्वम् ।
यदि हि यवनकव्या-पापिनं मां पुनीहि
तदिह
तव महत्त्वं तन्महत्त्वं महत्त्वम् । (रसलहरी )
कुछ समय पण्डितराज ने नेपाल के समीप
कूचविहार (कामरूप) के राजा प्राणनारायण (1633 66ई.) के आश्रय में भी रहे, जहाँ
‘प्राणाभरण' की रचना की। यह ग्रन्थ वही है जिसे
पूर्व में ‘जगदाभरण' कहा गया है,
फर्क इतना ही है कि वहाँ जगत सिंह के
स्थान में 'प्राणनारायण' रख दिया गया है। इस राजा का वंश इस
प्रकार है- विश्व सिंह-मल्लदेव (नरनारायण) लक्ष्मीनारायण वीरनारायण- प्राणनारायण ।
इनमें मल्लेदव के आश्रित काव्यकौमुदीकार देवनाथ ठक्कुर (काव्यप्रदीपकार गोविन्द
ठक्कुर के पुत्र) थे। वहाँ से लौटकर ये काशी में रहने लगे। अन्य राजाओं का आश्रय
इन्हें तुच्छे दिखने लगा । ये लिखते हैं-
दिल्लीश्वरों वा जगदीश्वरों वा मनोरथान् पूरयितुं समर्थः ।
अन्यैर्नृपालैः परिदीयमानं शाकायं वा स्याल्लवणाय वा
स्यात् ॥
रसगंगाधर के मंगलाचरण आदि से ज्ञात
होता है कि पण्डितराज वैष्णव थे, हालाँकि
अन्य देवताओं की स्तुति भी इनको प्राप्त है। इनका जीवन यद्यपि उल्लासमय रहा, पर इन पर बड़े-बड़े अनर्थपात हुए
युवावस्था में ही पाणिगृहीती 'करुण
विलास' में उन्होंने लिखा है-
धृत्वा पदस्खलनभीतिवशत् करं मे या रूढत्रवत्यसि शिलाशकलं विवाहे ।
सा मां विहाय कथमद्य विलासिनि !
द्याम् आरोहसीति
हृदयं शतधा प्रयाति ॥
स्वजातीय पत्नी और पाणिगृहीता ( यवनी प्रेयसी) का देहान्त हो गया। युवक पुत्र स्वर्गवासी हो गया। यह रसाशधर-प्रत्यनीक अलंकार के उदाहरण में पुत्रशोक का वर्णन। यवनीसम्पर्क- दोष से में पण्डितों द्वारा अपमानित हुए और अन्त में विरक्त होकर गंगा के शरण में गंगालहरी की रचना करते हुए , गंगालाभ कर लिया । ये ब्रह्मतेज से युक्त थे किंवदन्ती है कि जब यवनी इनके शयनकक्ष में आयी तो उसे हुआ कि मैं जल जाऊँगी और वह लौट गई। बादशाह के दरबार में पण्डितराज के इस ब्रह्मतेज को कम करने का प्रश्न उठ गया। किसी पण्डित के कहने से इन्हें हुक्के के पानी से नहलाया गया और तब यवनी इनके पास जा सकी। पण्डितराज बहुत गवले स्वभाव के थे और यह गर्व उनका यथार्थ था, परन्तु विद्वत्समाज इन्हें शाम्रोद्धत कहता है। वे न केवल 'अलंकारान् सर्वान् अपि मलितगर्वान् रचयुत" जैसी उक्ति रखते हैं, अपितु अपनी कविता की स्वयं ही अत्यधिक प्रशंसा करते हैं-
धुर्यैरपि माधुर्यैर्द्राक्षा-क्षीरेषु माक्षिक-सुधानामा
वन्द्यैव माधुरीयं पण्डितराजस्य कवितायाः ।।
- ये न केवल अप्पयदीक्षित या भट्टोजिदीक्षित का खण्डन दर्पपूर्ण वाणी से करते हैं, वरन् आनन्दवर्धन, मम्मट आदि की तीखी आलोचना में भी ये पीछे नहीं रहे। परन्तु अन्तिम अवस्था में इन्हें अपने कृत्यों पर पश्चाताप हुआ कि क्यों हमने विद्वानों का अनादर किया ? क्यों यवनीसम्पर्क किया ? और इस विरक्ति के साथ संसार से ऊबकर भगवती भागीरथी गंगा के शरण में पहुँचे। पर उस समय में भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) ने इन्हें नहीं छोड़ा और ये गर्व से गंगा नदी की सबसे ऊपरी सीढ़ी पर बैठ गये ओर बोले- माता गंगा के लिए मैं इतनी दूर से आया हूँ तो यह माता पुत्र के लिए थोड़ी दूर भी ऊपर नहीं होंगी ?
- पण्डितराज गंगालहरी के एक-एक पद्य रचते व सुनाते थे और गंगा एक-एक सीढ़ी ऊपर आ रही थी और अन्तिम पद्य समाप्त होते ही एक ऐसा तरंग आया जो पण्डितराज को समेटे हुए प्रवाह में विलीन कर लिया, माता ने पुत्र को गोद में ले लिया । इनके सम्बन्ध में और भी कुछ-लवंगी के ऊपर यह इतने आसक्त थे कि उसके बिना इन्हें तनिक भी चैन नहीं था और स्वर्ग का सुख भी तुच्छ प्रतीत होता था-
यवनी नवनीतकोमलाशी शयनीये यदि नीयते कदाचित् ।
अवनीतलमेव साधु मन्ये न वनी माघवनी विनोदहेतुः ।।
यवनीरमणी विपदः शमनी कमनीयतया नवनीसमा ।
उहि-ऊहि वचोऽमृतपूर्णमुखी स सुखी जगतीह यद गता ॥
- इत्यादि अनेक श्लोक पण्डितराज ने इस यवनकन्या के विषय में कहे है। अपना यौवनकाल इन्होंने इस यवनकन्या के साथ दिल्ली में बिताया। ढलती उमर में यौवन का नशा उतरने पर इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए 'मधुपुरी मध्ये हरिः सेव्यते' मथुरा आकर कृष्ण की आराधना में लग गये और अन्त समय में (अर्थात् काशी जाने से पूर्व) 'यमुनावर्णनम्' तथा 'यमुना लहरी' की रचना की थी। अलंकारशास्त्र के सम्बन्ध में इन्होंने जो ग्रन्थ लिखा, उसका नामकरण ‘रसगंगाधर’ है । यह प्रौढ़ और विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ है। इनमें सारे उदाहरण उन्होंने स्वयं अपने बनाकर दिये हैं। इससे स्पष्ट है ग्रन्थरचना क्रम में सबसे अन्त है इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है-
निर्माय नूतनमुदाहरणानुरूपं
काव्यं मयात्र निहितं न परस्य किच्चित् ।
किं सेव्यते सुमनसां मनसाऽपि गन्धः
कस्तुरिकाजननशक्तिभृता मृगेण ।
किन्तु दुर्भाग्य है कि पण्डितराज का यह ग्रन्थ अधूरा है। इसमें केवल दो आनन हैं। प्रथम आनन में अन्य सब काव्यलक्षणों का खण्डन करके 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' को काव्य का लक्षण स्थापित किया है । काव्य के हेतुओं में प्रतिभा को ही मुख्य हेतु ठहराया गया है और 1. उत्तमोत्तम, 2. उत्तम, 3. मध्यम तथा 4. अधम ये चार काव्य के भेद बतलाये हैं। द्वितीय आनन में ध्वनि के भेदों को दिखलाकर अभिधा तथा लक्षणा का विवेचन किया है। उसके बाद 70 अलंकारों का वर्णन किया है। उत्तरालंकार के विवेचन के बाद यह ग्रन्थ बीच में ही समाप्त हो गया है।