संस्कृत में काव्य सम्बन्धी अवधारणा (Poem concept in Sanskrit Language )
संस्कृत में काव्य सम्बन्धी अवधारणा (Poem concept in Sanskrit Language )
संस्कृत में काव्य किसे कहते हैं
कवि के कर्म को काव्य कहते है। किसी विषय का चमत्कारपूर्ण वर्ण करने वाला विद्वान 'कवि' कहलाता है और उसकी कृति (रचना) को काव्य कहते हैं। इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए मम्मट ने कहा है कि लोकोत्तरवर्णन में निपुण कवि का कर्म कृति काव्य है।
‘लोकोत्तरवर्णनानिपुणकविकर्म काव्यम् ।
इस प्रकार अलौकिक चमत्कारपूर्ण वर्णन में निपुण कवि की सौन्दर्यपूर्ण रचना (कृति) ही काव्य है। सर्वप्रथम अग्निपुराणकार ने काव्य का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि अभीष्ट अर्थ को संक्षेप में प्रतिपादन करने वाली पदावली को 'वाक्य' कहते हैं और स्फुट अलंकार से युक्त, गुणवत् एवं दोष-रहित वाक्य को 'काव्य' कहते है”।
संक्षेपपाद्वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली ।
काव्यं स्फुरदलंकारं गुणवद् दोषवर्जितम् ।।
(अग्निपुराणोक्तो काव्यालंकारशास्त्रम्)
- इस प्रकार अग्निपुराणकार के अनुसार स्मुरद् अलंकार, गुणवत् एवं दोष रहित इष्ट अर्थ को प्रतिपादन करनेवाली पदावली (वाक्य) 'काव्य' है।
- अग्निपुराणकार के पश्चात् दण्डी ने अग्निपुराण के लक्षण में से 'संक्षेपाद्वाक्यम' के स्थान पर ‘शरीर तावत्' जोड़कर इष्ट अर्थ से व्यवच्छिन्न पदावली की काव्य का शरीर बताया है।
शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली।
- इसके अतिरिक्त दण्डी के 'तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथज्जन' तथा 'तैः शरीर च काव्यानामलंकारश्च दर्शिताः इन वाक्यों के उल्लंघन के द्वारा स्पष्ट प्रतीत होता है कि दण्डी ने अग्निपुराण के अनुसार ही अलंकारयुक्त, दोष रहित मनोहर अर्थ की प्रतिपादिका पदावली' की के काव्य माना है।
भामह ने भी 'सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत्' तथा 'न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम' शब्दार्थों सहितौ काव्यम्' लिखकर उपर्युक्त कथन को स्वीकार किया है। वामन उपर्युक्त काव्यलक्षण को अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
“काव्यं ग्राह्यरात्'। सौन्दर्यमलंकार व दोषगुणालंकारहानादानाभयाम् । रीतिरात्मा काव्यस्य । विशिष्टपदरचना रीतिः। विशेषो गुणात्मा । अत्र च काव्यशब्दोऽयं गुणालंकारसंस्कृतयों शब्दार्थयोर्वते ।"
- इस प्रकार वामन के मतानुसार दोष के परित्याग और गुणालंकार से युक्त सुन्दर शब्द और अर्थ काव्य हैं।
- आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा और शब्दार्थयुगल को काव्य का शरीर माना है (शब्दार्थशरीर तावत्काव्यम्) उनके मतानुसार सहृदयहृदयश्लाघ्य अर्थ व्यंग्यार्थ है और वह व्यंग्यार्थ रसादिरूप है और वह रसादिरूप व्यंग्यार्थ काव्य की आत्मा है और व्यंग्यार्थ से युक्त शब्द और अर्थ काव्य का शरीर है।
- राजशेखर ने काव्य-पुरुष की कल्पना कर शब्द और अ को काव्य का शरीर और इसको काव्य की आत्मा कहा है (रसा आत्मा)।
- कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा स्वीकार किया है और वैदग्धीभणिति रूप शब्दार्थ को काव्य माना है.
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदारह्लादकारिणि ॥
भोज ने अग्निपुराण का अनुसरण करते हुए निर्दोष, गुणयुक्त, अलंकारों से अलंकृत और रस-युक्त वाक्य को काव्य माना है।
निर्दोषं गुणवत्काव्यमलंकारैरलतम् ।
मम्मट एक ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने सुव्यवस्थति एवं परिमार्जित काव्य लक्षण प्रस्तुत किया है-
तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि।
मम्मट ने दोष-रहित, गुणसहित, सर्वत्र सालंकाररहित शब्द और अर्थ को काव्य माना है। जयदेव मम्मट पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि जो मम्मट अनलंकृती (अलंकार-रहित) शब्द और अर्थ को काव्य स्वीकार करते हैं वे अग्नि को शीतल क्यों नहीं मानते ?
अंगीकरोति यः कार्य काव्यं शब्दार्थावनलंकृती ।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमलकृती ॥
विश्वनाथ ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों को खण्डन करके रसात्मक वाक्य को काव्य स्वीकार किया है (रसात्मकं वाक्यं काव्यम्) विश्वनाथ के अनुसार शौद्धोदनि ने भी रसादिमद् वाक्य को काव्य माना है (काव्यं रसादिमद्वाक्यम्) । उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर विश्वनाथ ने रसादिमद् वाक्य को काव्य स्वीकार किया है।