राजा भर्तृहरि का जीवन परिचय (Raja Bharthari Jeevan Parichay)
राजा भर्तृहरि का जीवन परिचय (Raja Bharthari Jeevan Parichay)
- व्यक्ति विशेष के साथ यह कम ही दिखलाई पड़ता है कि उसमें सरस्वती और लक्ष्मी का वास साथ-साथ हो । ऐसा इसलिए माना जाता है कि हिन्दू धर्म दर्शन में अनेक स्थानों पर इनमें आपस में वैमनस्यता का उल्लेख मिलता है । इस सन्दर्भ में तो इन्हें (सरस्वती और लक्ष्मी) को सौत माता तक की उपाधि प्रदान की जाती है । इस आधार पर दोनों माताओं का साथ रहना निश्चित रूप से अद्भुत संयोग ही माना जाता है । स्वभावगत विश्लेषण भिन्न होने का एक प्रमुख कारण यह भी कहा जाता है कि एक बुद्धि तथा दूसरे को वैभव के प्रतीक के रूप में उजागर कर विद्वान दोनों को अलग ही रखते हैं। सामाजिक जीवन में भी यह पाया जाता है कि सम्पन्न व्यक्ति, सेठ, साहूकार राजा महाराजा विद्वान नहीं होते अपितु व्यवस्था को चलाने के लिए हर क्षेत्र विशेष के विद्वानों का एक पुंज अपने साथ रखते हैं जबकि इसके विपरीत कवि, लेखक, कलाकार, गायक, शिल्पकार, विद्वान धन से विहीन पाये जाते हैं ।
- यहाँ इस संयोग का सीधा प्रभाव व्यक्ति पर पड़ने से तात्पर्य है कि वह व्यक्ति विद्वान भी होगा और सम्पन्न भी होगा। वैश्विक इतिहास को यदि हम छोड़ दे और भारतीय इतिहास को देखें ऐसे अनेक राजा महाराजाओं का उल्लेख मिलेगा जो विद्वान और सम्पन्न थे किन्तु यह गिनती के ही मिलेगे ।
- राजा भर्तृहरि ऐसे ही पूर्ण प्रकृति पुरूषों की संज्ञा में आते हैं जिनपर लक्ष्मी और सरस्वती की समान कृपा थी । यह संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे साथ ही उनकी प्रसंशा एक प्रसिद्ध कवि और परिपूर्ण शास्त्री के रूप में की जाती है। भर्तृहरि एक विशाल साम्राज्य के शासक थे जिसकी राजधानी उज्जयिनि भी जिसे वर्तमान में उज्जैन के नाम से जाना जाता है। मालवा राज्य पर राजा भर्तृहरि का शासन था जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी । राज्य और शासन व्यवस्था पर राजा भर्तृहरि का ध्यान समान रूप से था। भर्तृहरि के छोटे भाई राजा विक्रमादित्य थे। यह नाम उनकी प्रसिद्धि के पश्चात् ही प्राप्त हुआ जबकि इस नाम से पूर्व उनको विक्रम के नाम से जाना जाता था।
- विक्रम के विषय में ऐसा विचार था कि वह विद्वान, न्यायप्रिय, धर्मामात्मा राजनीति के ज्ञाता और प्रतिभाशाली तथा प्रभावशाली राजा थे। यही कारण था कि राजा भर्तृहरि ने इनको अपना प्रधानमंत्री बनाया। दोनों भाईयों के मध्य प्यार और सर्मपण की मिसाल मिलती रही है। ऐसा कहा जाता है कि ऐसा प्रेम राजा रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसा ही था । विश्वास शब्द इन दोनों से ही आरम्भ होता था। भर्तृहरि विक्रम से पुत्रवत् स्नेह करते थे और विक्रम राजा भर्तृहरि से पितावत श्रद्धा और सम्मान रखते थे।
राजा भर्तृहरि और पिंगला
- राजा भर्तृहरि ने दो विवाह किये थे परन्तु इन दोनों विवाहों के पश्चात् भी आपने पिंगला नाम की राजकुमारी से विवाह किया। पिंगला अप्सराओं की भांति सम्पूर्ण सौन्दर्य को समेटे हुए थीं । असाधारण सौन्दर्य की धनी पिंगला पर राजा भर्तृहरि इस प्रकार से मोहित हुए कि वह विद्या, विवेक, संयम को त्याग कर दास स्वरूप जीवन व्यतीत करने लगें। पिंगला यद्यपि राजा के समक्ष तो पतिव्रता की मूर्ति स्वरूप थी किन्तु उनके मन में घुड़साल का दारोगा बसे थे। वह घुड़साल के दरोगा की पूजा मन में करती थीं, जबकि घुड़साल का दरोगा नगर की वेश्या पर मुग्ध था। राजा भर्तृहरि के राज्य में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था जो ईश्वर की अराधना में लीन रहता था एक दिन साक्षात् ईश्वर ने दर्शन देकर कहा कि हे! राजन मैं तुमको एक फल देता हूँ जो तुम्हें निरोगी और चिर आयु रखेगा। वह ब्राह्मण फल लेकर राजा के पास आया और राजा ने उसको उपहार स्वरूप धन देकर वह फल ले लिया और उस फल को पिंगला को दे दिया कि इससे तुम सदैव सुन्दर और युवा बनी रहो किन्तु पिंगला ने वह फल घुड़साल के दरोगा को दे दिया दरोगा ने वह फल वेश्या को दिया और वेश्या ने वह फल पुनः राजा को दिया और सारी सच्चाई राजा के सम्मुख आ गयी । राजा भर्तृहरि इससे अत्यन्त दुःखी हुए और सारा राज-पाठ अपने छोटे-भाई को देकर स्वयं जंगल की ओर चले गये।