पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार रस संख्या Rasa number according to Panditraj Jagannath
पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार रस संख्या (Rasa number according to Panditraj Jagannath)
पण्डितराज के अनुसार श्रृंगार, करूण, शान्त, रौद्र, वीर, अद्भुत, हास्य, भयानक, वीभत्स ये नौ रस होते हैं-
श्रृंगार करुणः शान्तो रौद्रो वीरोऽतुस्तथा हास्यो भयानकश्चैव वीभत्सश्चेति ते नव।।
स्थायीभाव -
पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार उपर्युक्त रसों के क्रम से रति, शोक, निर्वेद, क्रोध, उत्साह, विस्मय, हास्य, भय और जुगुप्सा ये नौ स्थायीभाव हैं -
रतिः शोकश्च निर्वेदः क्रोधोत्साहश्च विस्मयः ।
हासो भयं जुगुप्सा च स्थायिभावाः क्रमादमी।।
1. रति स्त्री
- पुरुष का परस्पर प्रेम नामक चित्तवृत्ति विशेष ‘रति' है वही रति यदि गुरु, देवता, पुत्र आदि विषयक हो तो 'रति' नामक स्थायीभाव कहलाता है।
2. शोक -
- पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न मन की विकलता नामक चित्तवृत्ति 'शोक' स्थायी भाव है।
3. निर्वेद -
- नित्य और अनित्य वस्तुओं के विचार से उत्पन्न विषयों से विरक्ति 'निर्वेद' स्थायीभाव होता है।
4. क्रोध
- गुरु, बन्धु के वध आदि आदि परम अपराध से उत्पन्न प्रज्वलन नामक 'क्रोध' स्थायी भाव होता है।
5. उत्साह -
- शत्रु के पराक्रम तथा दानादि के स्मरण से उत्पन्न उन्नतता नामक ‘उत्साह’ स्थायीभाव होता है।
6. विस्मय -
- अलौकिक वस्तु के दर्शन आदि से उत्पन्न आश्चर्य नामक 'विस्मय' स्थायी भाव होता है।
7. हास -
- वाणी तथा अश् आदि के विकारों के दर्शन से उत्पन्न विलास नामक 'हास' होता है ।
8. भय -
- व्याघ्रादि के दर्शन से उत्पन्न परम अनर्थ विषयक चित्र की विकलता ‘भय’ स्थायीभाव कहलाता है।
9. जुगुप्सा
- घृणित वस्तुओं के अवलोकन से उत्पन्न घृणास्पद चित्तवृत्तिविशेष ‘जुगुप्सा' है।
विभाव किसे कहते हैं
- इन स्थायीभावों को लोक में उन नायकों में और उद्दीपन रूप कारणों से प्रसिद्ध काव्य और नाटकों में 'विभाव' कहा जाता है
अनुभाव किसे कहते हैं
- उन स्थायीभावों से जो कार्य उत्पन्न होते हैं, वे 'अनुभाव' कहलाते हैं।
व्यभिचारीभाव किसे कहते हैं
- स्थायीभावों के साथ रहने वाली चित्तवृत्तियाँ व्याभिचारीभाव' कहलाती है। जैसे श्रृंगार रस के नायक-नायिका आलम्बन विभाव, चाँदनी, बसन्त ऋतु, उद्यान, एकान्त-स्थान आदि उद्दीपन विभाव हैं, कटाक्ष, भुजाक्षेप, तद्रुणश्रवण, कीर्त्तन् आदि अनुभाव और रोमांच, कम्प आदि सात्त्विक भाव तथा स्मरण, चिन्ता आदि व्यभिचारीभाव हैं।
भाव- ध्वनि किसे कहते हैं
- विभाव और अनुभावों के अतिरिक्त जो रसों के व्यंजक होते हैं, वे भाव कहे जाते है । पण्डितराज ने विभावादि के द्वारा ध्वनित किये जाने वाले हर्षादि में किसी एक को 'भाव' कहा है। मम्मट कान्तविषयक रति को श्रृंगार रस कहते हैं और देवता, मुनि, गुरु, नृप, पुत्रादिविषयक रति को 'भाव' कहते हैं। व्यज्जित व्यभिचारीभावों भी 'भाव' कहा जाता है। तात्पर्य यह कि जहाँ पर व्यभिचारीभाव रस की सहकारिता से ऊपर उठकर विभावादि से पोषित होकर प्रधानतया व्यंग्य होते है, वहाँ उन्हें 'भाव कहा जाता है। इस प्रकार व्यंजित व्यभिचारी भावों को भी 'भाव' कहा गया है।
पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार हर्षादि 34 भाव है-
हर्ष, स्मृति, क्रीड़ा, मोह, धृति, शांत, ग्लानि, दैन्य, चिन्ता, मद, श्रम, गर्व, निद्रा, मति, व्याधि त्रास, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रा, उन्माद, मरण, वितर्क, विषाद, औत्सुक्त, आवेग, जड़ता आलस्य, असूया, अपस्मार, चपलता और निर्वेद ये तैंतीस व्यभिचारीभाव है और गुरु, देवता, नृप, पुत्रादि विषयक रति चौंतीसवाँ भाव है।
रसाभास और भावाभास क्या होते हैं ?
- जिस रस का आलम्बन विभाव अनुचित हो, वहाँ 'रसाभास' होता जैसे नायिका की एक नायक के प्रति रति उचित है, किन्तु यदि एक नायिका का अनेक नायकों के साथ अथवा उपनायक के साथ रतिप्रसंग वर्णित हो तो 'रसाभास' हो जायगा । इस प्रकार रसों का अनुचित रूप में वर्णन ‘रसाभास' कहा जाता है। इसी प्रकार भावों का अनुचित रूप में वर्णन 'भावाभास' कहा जाता है। जैसे विभावादि से परिपुष्ट देवादिविषयक रति भाव है और अपरिपुष्ट होने पर 'भावाभास' हो जाता है। भरतमुनि का कथन है कि भावाभिव्यक्ति में यदि समस्त भावाभिव्यज्जन-सामग्री का उपयोग न हो, केवल कुछ ही अभिव्यंजन-सामग्री से भाव अभिव्यक्त हो तो उसे 'भावाभास' समझा जायेगा ।
जैसे-
- अनुक्ता सीता के प्रति रावण का रतिभाव प्रकट करना अनुचित होने से यहाँ भावाभास है।
भावशान्ति एवं भावोदय क्या है
- भाव के उत्पन्न होते ही चमत्कारपूर्ण ढंग से सहसा शान्त हो जाना ही 'भाव-शान्ति' है। इसी प्रकार जब एक भाव के शमन होने पर दूसरा भाव चमत्कारपूर्ण ढंग से उदित हो जाये तो ‘भावोदय' कहलाता है।
भावसन्धि एवं भावशबलता
- जब एक भाव के उदय होने पर दूसरा भाव भी उदित हो जाय और दोनों की शान्ति न हो तो ‘भावसन्धि’ की अवस्था कही जाती है। इसी प्रकार जब एक के बाद दूसरा-दूसरे के बाद तीसरा और तीसरा के बाद चौथे, इस प्रकार क्रमशः भाव उदित होते जायें तो 'भावशबलता' कही जाती है।