संस्कृत साहित्य में गुणव्यंजक रचना | Sanskrit Gunvaynajak Rachna

Admin
0

संस्कृत साहित्य में  गुणव्यंजक रचना 

संस्कृत साहित्य में  गुणव्यंजक रचना | Sanskrit Gunvaynajak Rachna


संस्कृत साहित्य में  गुणव्यंजक रचना 

 

गुणव्यंजक रचना - 

  • टवर्ग से रहित अन्य वर्गों के प्रथम और तृतीय वर्ण शर (श ष स) तथा अन्तःस्थ (य र ल व) से निर्मितनिकटता से प्रयुक्त अनुस्वारपरसवर्ण और अनुनासिक वर्णों से शोभितआगे कहे जाने वाले साधारणतया एवं विशेषतया निषिद्ध संयोगादि के स्पर्श से शून्यसमासरहित अथवा कोमल समासयुक्त रचना माधुर्य गुण में व्यंजक होती है। 
  • वर्गों के द्वितीय और चतुर्थ वर्ण दूर-दूर सन्निवेशित गुण (माधुर्य) के न अनुकूल होते हैं और न प्रतिकूल यदि निकटता से सन्निविशित हो तो और अनुप्रास हो तो प्रतिकूल भी हो जाते हैं। अन्य विद्वान तो टवर्ग से भिन्न पाँचों वर्गों का पाँचों वर्गों को माधुर्य का व्यंजक मानते हैं।

 

ओजगुणव्यंजक रचना- 

  • समीप-समीप में प्रयुक्त वर्गों के द्वितीय और चुतर्थ वर्णजिहवामूलीयउपध्मानीयविसर्ग और सकार की बहुलता से निर्मितभय अथवा रेफ से घटित संयोगपरक समीप-समीप में प्रयुक्त ह्रस्व स्वरों से युक्त तथा दीर्घसमास युक्त रचना ओजगुण का व्यंजक होती है । इस रचना के भीतर आये हुए वर्गों के प्रथम और तृतीय वर्ग यदि संयुक्त न हों तो न अनुकूल होते हैं और न प्रतिकूल ही होते हैं। इसी प्रकार अनुस्वार और परसवर्ण को भी समझना चाहिए। प्रसाद गुण व्यंजक रचना- जिसके श्रवणमात्र से ही वाक्य का अर्थ अस्तगत बेर के समान सरलता से प्रतीत हो और जो सब जगह (सभी रसों) सभी रचनाओं में सामान्य रूप से रहेउसे प्रसादगुण-व्यंजक रचना कहते हैं।

 

सामान्यतो वर्जनीय रचना- 

  • अब उन-उन गुणों को व्यक्त करने में समर्थ निर्मित (रचना) के परिचय के लिए साधारण और विशेष रूप से वर्जनीय (त्याज्य) का वर्णन करते हैं यदि एक अक्षर का साथ-साथ पुनः प्रयोग एक पद में एक बार हो ता वह अश्रव्य होता है। जैसे कुकुभसुरभिः’ ‘वितगात्र’ तथा 'पल्लमिवाभातिइत्यादि में क,ल का (ककारतकारलकार का) यही वही बार-बार प्रयुक्त हो तो अधिक दोष होता है। जैसे 'वितततरुरेष भाति भूमौ में तकार का । इसी प्रकार भिन्न-भिन्न पदों में आने पर भी अधिक दोष होता है। जैसे-शुक करोषि कथं विजने रुचिम्इत्यादि में। यदि भिन्न-भिन्न पदों में बार-बार प्रयोग हो तो उससे भी अधिक दोष होता हैजैसे- पिक ककुभे मुखरीकुरु प्रकामम्में। इसी प्रकार पहले समान वर्ग का अन्य अक्षर यदि एक पद में एक बार आवे तो अशुभ होता है। जैसे-'विथस्ते मनोरथःमें और 'का प्रयोग यदि बार-बार प्रयोग हो तो और अधिक अश्रव्य होता है जैसे-'वितथरवचनं तव प्रतीमःमें 'त-थ-तका प्रयोग । यदि भिन्न-भिन्न पदों में एक बार प्रयोग हो तो अधिक अश्रव्य होता है। जैसे 'अब तस्य वचः श्रुत्वांइत्यादि में। यदि भिन्न-भिन्न पदों में बार बार प्रयोग हो तो और अधिक अश्रव्य होता है। जैसे 'अध तथा कुरु येन सुखं लभेयहाँ पर थ त थका प्रयोग।

 

  • यदि एक वर्ग के अक्षरों का प्रयोग पहले के बाद दूसरे का और तीसरे के बाद चौथे का हो तो तभी दोष होता है किन्तु यदि पहले के बाद तीसरे का दूसरे के बाद चौथे का सह प्रयोग हो तो उतना अश्रव्य नहीं होता है किन्तु थोड़ा अर्थात् बहुत कम होता है। जिसे निर्माण मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं और यह प्रयोग यदि बार-बार हो तो और अधिक अश्रव्य होता है जिसे साधारण जन भी समझ सकते है जैसे- 'खग कलानिधेरेष विजृम्भतेतथा 'इति वदति दिवानिशं धन्यःइत्यादि में। किन्तु वर्ग के अन्तिम अक्षरों का अपने वर्ग के अक्षरों के पहले अथवा पीछे आना दोषयुक्त नहीं होताजैसे 'तनुते तनुतां तनौइत्यादि में । किन्तु वर्ग के पंचम वर्ण का बार-बार आना अश्रव्य होता है। जैसे 'मम महती मनसि कथाविरासित्इत्यादि में । किन्तु ये अश्रव्य त्वादि दोष गुरु वर्ण के बीच आने से दूर हो जाते है । जैसे-'संजायतां कथाकार करके केकाकलस्वनःइत्यादि में । इसी प्रकार तीन या तीन से अधिक अक्षरों का प्रयोग भी प्रायः अश्रव्य होता है । जैसे-राष्ट्र तवोष्ट्र परितश्चरिन्तइसमें ष्ट्रका प्रयोग अश्रव्य है। इसी प्रकार अनुभव के अनुसार श्रुति-कटुता के अन्य उदाहरण भी समझने चाहिए।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top