पण्डितराज का मत- संस्कृत काव्य का कारण
पण्डितराज जगन्नाथ का मत- संस्कृत काव्य का कारण
- पण्डितराज जगन्नाथ का कहना है कि प्रतिभा ही एकमात्र वह शक्ति है जिसक कारण कवि काव्य-निर्माण में समर्थ हो सकता है। प्रतिभा के बल पर ही कवि भूत, भविष्य, वर्तमान की वस्तुओं एवं अनुभूत रमणीय प्रसंगों को चित्रवत् प्रस्तुत करके उसे सामान्य लोगों को लिए ग्राह्य बना देता है।
- पण्डितराज ने कवि की प्रतिभा के द्विविध कारणों का उल्लेख किया है- (1) किसी देवी-देवता या किसी महापुरुष के प्रसार से प्राप्त अदृष्ट शक्ति और (2) विलक्षण व्युत्पत्ति एवं काव्य-निर्माण के अभ्यास से प्राप्त शक्ति किन्तु ये तीनों सम्मिलित रूप में हेतु नहीं हैं क्योंकि कई बालकों में भी व्युत्पत्ति और अभ्यास के बिना भी केवल महापुरुषों के प्रसाद से उत्पन्न हुई देखी जाती है। यदि यह कहा जाय कि वहाँ हम पूर्वजन्म के विलक्षण व्युत्पत्ति और अभ्यास मान लेंगे किन्तु गौरवप्रमाणाभाव और कार्य के बिना तीनों के कारण मानन में उनकी उनकी जन्मान्तरीय कल्पना उचित नहीं प्रतीत होती।
- इस प्रकार पण्डितराज के मतानुसार मात्र प्रतिभा ही काव्य का हेतु है, व्युत्पत्ति और अभ्यास तो प्रतिभा के कारण है। इस प्रकार प्रतिभा के दो हेतु हैं-अदृष्टजन्य प्रतिभा और व्युत्पत्ति एवं अभ्यासजन्य प्रतिभा इस प्रकार व्युत्पत्ति और अभ्यास प्रतिभा के कारण है काव्य के हेतु नहीं है।
पण्डितराज के अनुसार
- काव्य-रचना के अनुकूल शब्दों और अर्थों की स्वाभाविक उपस्थिति ‘प्रतिभा’ हैं व्यक्तिविवेककार का कथन है कि “कवि का रसानुकूल शब्दार्थों के चित्त में लीन हो जाना प्रतिभा है जो परमतत्त्व के स्पर्श से जागृत होती है।”
क्षणं स्वरूपस्पर्शोत्था प्रज्ञैव प्रतिभा मता।।)
- कवि कर सर्जनात्मक प्रतिभा के सम्बन्ध में अग्निपुराण का कथन है कि “कवि अपार काव्य संसार का रचयिता है, उसे जैसा कविता है, वही रूप प्रदान करता है। यदि कवि शृशरी से परिपूर्ण हो जाता है और यदि वह बीतराग है, तो काव्य-जगत वीतराग दिखाई देता है। इस प्रकार प्रतिभा काव्य- निर्माण का हेतु है जो अदृष्टजन्य होती है।
पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के चार भेद किये हैं
(1) उत्तमोत्तम
(2) उत्तम
(3) मध्यम
(4) अधम
(1) जहाँ पर शब्द और अर्थ अपने को गौण बनाकर किसी चमत्कारजनक अर्थ को अभिव्यक्ति करते हैं, उसे 'उत्तमोत्तम' काव्य कहते है।
(2) जहाँ पर व्यंग्यार्थ अधिक चमत्कार जनक नहीं होता, उसे 'उत्तम काव्य' कहते हैं,, अर्थात् जहाँ पर व्यंग्यार्थ गौण (अप्रधान) हो जाता है और वाच्यार्थ अधिक चमत्कार जनक होता है, उसे उत्तम काव्य कहा जाता है। उसे ही मम्मट ने 'गुणीभूतव्यंग' काव्य कहा है। ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने व्यंग्यार्थ के अप्रधान (गौण) होने पर 'गुणीभूतव्यंग्य' कहा है।
(3) जहाँ पर वाच्यार्थ का चमत्कार व्यंग्य अर्थ में चत्मकार के साथ न रहे अर्थात् जहाँ व्यंग्य का चमत्कार स्फुट प्रतीयमान न हो, वाच्यार्थ का चमत्कार स्पष्ट प्रतीयमान हो वह 'मध्यम काव्य’ होता है।
(4) जहाँ पर अर्थ का चमत्कार शब्द के चमत्कार को पुष्ट करने के लिए हो, उसे 'अधम' काव्य कहते हैं। मम्मट ने इसे 'शब्दचित्र' काव्य कहा है।
पण्डितराज जगन्नाथ का कहना है कि जहाँ पर ध्वनि-सौन्दर्य तथा अर्थचमत्कार से पूर्णतया विहीन शब्द का चमत्कार हो वहाँ 'अधमाधम' नामक पंचम-कोटि का काव्य भी माना जा सकता है। जैसे, एकाक्षर-पद्य, अर्थावृत्ति यमक, पìबन्ध आदि। जिनका प्रयोग प्राचीन कवियों ने किया है। किन्तु काव्य-लक्षण को ध्यान में रखते हुए मैने उन्हें काव्य की कोटि में परिगणित नहीं किया है। कुछ आचार्य काव्य के चार भेद नहीं मानते उन्होंने उत्तम, मध्यम, और अधम इन तीन भेदों को ही स्वीकार किया है और शब्दचित्र एवं अर्थचित्र दोनों को एक ही श्रेणी (अधमकाव्य) में परिगणित किया है। किन्तु पण्डितराज का कथन है कि शब्दचित्र और अर्थचित्र दोनों को अधम काव्य की श्रेणी में रखना उचित नहीं है।
पण्डितराज जगन्नाथ का ध्वनि-काव्य भेद
- उपर्युक्त वर्गीकरण के पश्चात् जगन्नाथ ने उत्तमोत्तम ध्वनि भेद के असंख्य भेदों को दो वर्गों में विभाजित किया है-अभिधामूला ध्वनि और लक्षणमूला ध्वनि। इनमें अभिधामूला ध्वनि को विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि-काव्य और लक्षणामूला ध्वनि को अविवक्षितवाच्य ध्वनि कहते हैं। इनमें अभिधामूला ध्वनि के तीन पक्ष है- रसध्वनि, वस्तुध्वनि और अलंकारध्वनि । इनमें रसध्वनि को असलंक्ष्यक्रमध्वनि भी कहते है। इसमें वाड्.ग्य के पौर्वापर्य का ज्ञान नहीं रहता। ‘रसध्वनि' शब्द से रस, भाव, रसाभास, भावभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसिन्ध और भावशबलता आदि का ग्रहण होता है। दूसरे लक्षणामूला ध्वनि के दो भेद होते हैं अर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्य और अत्यन्तरिस्कृत वाच्य । इस प्रकार ध्वनिकाव्य के पाँच भेद होते हैं। इनमें रसध्वनि' परम रमणीय होता है।