संस्कृत काव्य के निर्माण में हेतु कारण
संस्कृत काव्य काव्य का कारण
- पण्डितराज जगन्नाथ केवल प्रतिभा को काव्य हेतु मानते है। उनके अनुसार काव्य बनाने के लिए अनुकूल शब्दों एवं अर्थों की तत्काल उपस्थिति ही प्रतिभा है। 'प्रतिभा को ही आचार्यों ने शक्ति नाम से भी अभिहित किया हैं प्रतिभा और शक्ति एक ही सत्य हैं पण्डितराज के काव्य-हेतु पर विचार करने के पूर्व काव्य-हेतु के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों पर दृष्टिक्षेप करना आवश्यक प्रतीत होता है।
- पण्डितराज के पूर्ववर्ती आचार्यों में दो दल विद्यमान थे। एक दल था, जो केवल प्रतिभा को ही काव्य का प्रमुख कारण मानता था। इस मत के अनुयायी आचार्य वामन, रुद्रट, राजशेखर, पण्डितराज आदि है। दूसरा दल प्रतिभा के साथ-साथ व्युत्पत्ति और अभ्यास को जोड़कर प्रतिभा, व्युत्पत्ति ओर अभ्यास तीनों को काव्य का कारण मानता है। इस मत के पोषक आचार्य भामह, दण्डी, बाणभट्ट, मम्मट, जयदेव आदि है। सर्वप्रथम अग्निपुराणकार महर्षि व्यास ने काव्य-हेतुओं पर विचार किया है। उनके मतानुसार संसार में कवित्व-शक्ति अत्यन्त दुर्लभ है। यदि शक्ति भी हो तो व्युत्पत्ति होना दुर्लभ है और व्युत्पत्ति का ज्ञान भी हो तो विवेक (अभ्यास) अत्यन्त दुर्लभ है-
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।
व्युत्पत्तिर्दुर्लभा तत्र विवेकस्तत्र दुर्लभः ॥
अग्निपुराणकार के पश्चात भामह ने शक्ति (प्रतिभा) पर अधिक बल देते हुए काव्यविदुपासन एवं अनयनिबन्धावलोकन के द्वारा (निपुणता, व्युत्पत्ति) तथा काव्यक्रियादरः (विवेक, अभ्यास) तीनों को काव्य का हेतु माना है-
काव्यं तु जाये जातु कस्यचित्प्रतिभावतः
तु शब्दभिधेये विज्ञाय कृत्य तद्विदुपासनम्।।
विलोक्यान्यनिबन्धांश्च कार्यः काव्यक्रियादरः ।।
भामह के पश्चात् दण्डी ने नैसर्गिकी प्रतिभा के साथ-साथ निर्मलश्रुत (व्युत्पति) और अमन्दाभियोग (अभियास) तीनों को काव्य हेतु माना है -
नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।
अमन्दश्चाभियोगोऽस्यः कारणं काव्यसम्पदः ।
अमन्दश्चाभियोगऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः ॥
रुद्रट ने शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों का काव्य का हेतु स्वीकार किया है-
त्रितयमदिं व्याप्रियते शक्तिव्युत्पत्तिरभ्यासः ।।
- आचार्य मम्मट ने शक्ति, निपुणता (युत्पति) और अभ्यास तीनों के सम्मिलित रूप को काव्य का हेतु स्वीकार किया है। इनके अतिरिक्त बाग्भट्ट, विद्याधर, अलंकारशेखर के रचियता केशव मिश्र आदि आचार्यों ने भी शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को काव्य का हेतु माना है। इस प्रकार त्रिहेतुवादी आचार्यों का मत है कि शक्ति (प्रतिभा), व्युत्पत्ति (निपुणता) और अभ्यास ये तीनों ही काव्य के निर्माण में हेतु हैं, कारण हैं।
- जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि एक वर्ग के आचार्य केवल प्रतिभा (शक्ति) को ही काव्य का एकमात्र हेतु मानते हैं। सर्वप्रथम प्रतिभा को ही काव्य का प्रमुख हेतु मानते हुए भामह कहते हैं कि प्रतिभा सम्पन्न कवि ही सर्वथा निर्दोष काव्य की रचना कर सकता है।
रुद्रट ने प्रतिभा को ही मात्र काव्य का हेतु माना है। वह प्रतिभा (शक्ति) दो प्रकार की होती है
(1) सहज और (2) उत्पाद्य । इनमें सहज प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त अथवा अदृष्टजन्य होती है और उत्पाद्य प्रतिभा व्युतपत्तिजन्य होती है। उनके बाद वामन ने भी केवल प्रतिभा को ही काव्य का हेतु माना है (कवित्वबीजं प्रतिभानम्) । उनके अनुसार प्रतिभा ही कवित्व का बीज है । वह प्रतिभा पूर्वजन्म का संस्कार विशेष है जो ईश्वर प्रदत्त होती है, जिसके बिना काव्य बन पाता, यदि बन भी जाय तो वह उपहास का पत्र होता है
(कवित्वबीजं संस्कारविशेषः कश्चित् । सस्माद्विना
काव्यं ने निष्पद्यते, निष्पन्ने वा हास्यायतनं स्यात् ।
- राजेशखर का कथन है कि केवल प्रतिभा (शक्ति) ही काव्य का हेतु है ( सा (शक्तिः) केवलं काव्ये हेतुरिति यायाबरीयः) । उन्होंने अपने मत की पुष्टि में मेधावी, रुद्र तथा कुमारदासादि का उदाहरण प्रस्तुत किया है जिन्होंने जन्मान्ध से ही केवल प्रतिभा के द्वारा काव्य का निर्माण किया था । राजशेखर के अनुयायी बाणभट्ट (द्वितीय) ने यहाँ तक कहा है कि प्रतिभा ही केवल काव्य निर्माण में हेतु है व्युत्पत्ति और अभ्यास तो उसी के संस्कारक हैं काव्य के हेतु नहीं हैं (प्रतिभैव च कबीनां काव्यकरणाकरणम् व्युत्पत्तिभ्यासौ तस्या एवं संस्कारकाकरों न तु काव्यहेतुः)