श्री हर्ष की रचनाओं का चरित्र चित्रण
श्री हर्ष की रचनाओं का चरित्र चित्रण
- चरित्र के चित्रण में हर्ष ने अपनी स्वाभाविक निपुणता प्रदर्शित की हैं। वे स्वयं राजा थे और इसीलिये वे दरबार से सम्बद्ध जीवन के चित्रण तथा कथानक के विन्यास में स्वाभाविक कौशल दिखलाते हैं।
- उदयन का चित्रण धीरललित नायक के रूप में बड़ा सुन्दर हैं। वह अपने प्रधानामात्य यौगंधरायण के ऊपर अपने राज्यसंचालन का भार रखकर स्वयं कला तथा प्रणय की आसक्ति में अपना जीवन बिताता हैं। उसके सौन्दर्य-प्रेम का परिचय 'कामोत्सव' के अवसर पर मिलता हैं। उसका चित्रण 'रोमांचक प्रणयी' (रोमान्टिक लवर) के रूप में हर्ष ने बड़ी दक्षता से किया हैं।
- नाटिका की नायिका रत्नावली के रूप में बहुत सुन्दर तथा चरित्र में बहुत ही उदात्त हैं। वह सिंहलेश्वर की दुहिता हैं। और इस आभिजात्य का उसे पूर्ण अभिमान हैं। उसके चरित्र में एक छोटा सा भी धब्बा नहीं हैं। उसका प्रत्येक कार्य औदात्य द्वारा प्रेरित होता हैं। जब उसे उदयन का पूरा परिचय मिल जाता हैं कि यह वही नरेन्द्र हैं जिसके लिये पिता ने मुझे दिया था, तभी वह प्रणय में अग्रसर होती हैं। यह प्रणय स्वाभाविकता तथा मर्यादा के बिलकुल भीतर रहता हैं। वह अपने दासी भाव से भिन्न नहीं हैं। वह अपनी स्वामिनी की पूर्ण सेविका होने के नाते उसके प्रति किसी प्रकार अनुचित कार्य करने से सदा परांगमुख रहती हैं।
- संकेत-स्थल के लिये भी वह स्वयं अग्रसर नहीं होती, प्रत्युत् विदुषक तथा सुसंगता के कारण ही वह इसमें प्रवृत कराई जाती हैं। महारानी इस वृतान्त से परिचित हो गई हैं, यह जानकर वह इतनी लज्जित होती हैं कि अपना प्राण ही दे देना चाहती हैं। वह इसे अपनी मर्यादा के ऊपर घोर प्रहार समझती हैं।
- रत्नावली का प्रणय रोमान्चक होकर भी संयत तथा मर्यादित हैं। इसके हृदय में राजा के लिये प्रेम का परिचय हमें चित्रफलक के वृतान्त से भली-भाँति चलता हैं। उसके कार्यकलाप मर्यादा तथा आभीजात्य के सौरभ से सुगन्धित हैं। फलतः रत्नावली का चरित्र बड़ा ही उदात्त, प्रणय पूर्ण तथा कोमल हैं।
- इसके विपरीत वासवदत्ता के चरित्र में प्रभुत्व तथा पूर्ण राज्य हैं। वह जानती हैं तथा अभिमान रखती हैं कि वह उदयन की पट्टमहिषी हैं। राजा भी उसके साथ अधिकार पूर्ण प्रणय के आगे हैं अपना मस्तिक झुकाता हैं और इसकी रट लगाये रहता हैं कि देवी को प्रसन्न करने के अतिरिक्त सागरिका से संगम का अन्य कोई उपाय नहीं हैं। (देवी प्रसादनं मुक्तवा नास्ति अन्योपायः) । वह इतनी प्रभुत्व शालिनी हैं कि अपराध करने पर वह अपनी दासियों को कौन कहै, राजा के 'नर्मसचिव' विदूषक को भी कारागार में डाल देती हैं। 'प्रभूता सर्वतोमुखी' की जीती जागती प्रतिमा होने पर भी वह कोमल हैं, क्रूर नहीं। राजा की वास्तविक हितचिन्तक हैं, विद्वेषक नहीं । वह सचमुच प्रतिप्राणा हैं और प्रभूता की भावना इसी की बाहा अभिव्यक्ति हैं। वासवदत्ता के चरित्र के संदर्भ में रत्नावली का चरित्र कोमलता, मृदुता तथा आभिजात्य के आलोक से पूर्णरूपेण आलोकित होता हैं।
नागानन्द का नायक
- नागानन्द का नायक जीमूतवाहन अपने आदर्श चरित्र के लिये सदा स्मरणीय रहेगा । वह पितृभक्ति का उज्ज्वल प्रतीक हैं। जो विशाल साम्राज्य के वैभव तथा समृद्धि की उपेक्षा करके अपने माता-पिता की सेवा के निमित्त जंगल में जाकर रहता हैं। वह कल्पवृक्ष के दान के द्वारा अपने परोपकार को सिद्ध करता हैं। वह साधारण पार्थिव जीव हैं; मलयवती के प्रेम से यही सिद्ध होता हैं। परोपकार की वेदी पर आत्मसमर्पण उसके जीवन का महान उद्देश्य हैं। वह दृढनिश्चयी हैं, और उसके निश्चय तथा स्वार्थत्याग का सद्यः प्रभाव क्रूरहृदय नृशंस गरूड़ पर इतना अधिक पड़ता हैं कि वह उसी दिन से हिंसा-व्यापार से विरत हो जाता हैं।
नागानन्द के मुख्य रस के विषय में आलोचको में मतभेद हैं। कतिपय आलोचक इसमें 'शान्तरस' की प्रधानता मानते हैं, परन्तु अभिनव गुप्त ने इसे 'दयावीर' का ही एक समुज्ज्वल दृष्टांत माना हैं। स्वयं उनके पिता के मुख से जीमूतवाहन के शोभन गुणों का यह मंजुल वर्णन उद्धृत हैं -
निराधारं धैर्ये कमिव शरणं यातु विनय:
क्षमः क्षान्ति वोढुं क इह? विरता दानपरता ।
हतं नूनं सत्यं व्रजतु कृपणा क्वाद्य करूणा
जगज्जातं शुन्यं त्वयि तनय! लोकान्तरगते । नागानन्द 5/30
- राजा जीमूतकेतु अपने पुत्र की मृत्यु से शोकोद्विग्न होकर कह रहा हैं- हैं पुत्र ! तुम्हारे दूसरे लोक चले जाने पर स्वर्गवासी होने पर धैर्ये बिना आधार का हो गया। विनय अब किसके शरण में जाय? अब क्षमा को कौन धारण कर सकता हैं। अब दानशीलता उठ गई। सच मुच सच्चाई नष्ट हो गई। आज दीन बनकर करूणा कहाँ जाय ? सच तो यह हैं कि आज यह संसार सूना ही हो गया- निःसार हो गया। सचमुच परोपकारी प्राणी संसार को आलोकित करने वाला प्रदीप हैं ।