शूद्रक की काव्यकला (Shudrak Ki Kavay Kala)
शूद्रक की काव्यकला
- शूद्रक की शैली बड़ी सरल है। बड़े-बड़े छन्दों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। नये-नये भाव स्थान -स्थान पर मिलते थे। इस प्रकरण का मुख्य रस श्रृंगार है। रस की विभिन सामग्री से परिपुष्ट कर श्रृगांर का सुन्दर रुप कवि ने दिखलाया है। शुद्रक ने वर्षा का बड़ा विशद वर्णन किया है। इसमें चमत्कार - जनक अनेक सूक्तियाँ है।( 9114 ).
चिन्तासक्तनिमग्नमन्त्रिसलिलं दूर्तोमिशंखाकुलं
पर्यन्तस्थितचारनमकंर नागाश्वहिस्त्राश्रयम् ।
नानावाशककड़. पक्षिरुचिरं कायस्थसर्पास्पदं नीतिक्षुण्णतटचि च राजकरणं हिस्रैः समुद्रायते ।।
- इस श्लोक में राजकरण --कचहरी --का खूब सच्चा वर्णन किया गया है। शूद्रक का कहना है कि कचहरी समुद्र की तरह जान पड़ती है। चिन्तामग्न मन्त्री लोग जल है, दूतगण लहर तथा शंख की तरह जान पड़ते है-- इधर-उधर दूर देशों में घूमने के कारण दोनों की यहाँ समता दी गई है। चारों ओर रहनेवाले चोर-- आजकल के खुफिया पुलिस--घड़ियाल हैं। यह समुद्र हाथियों तथा घोड़ों के रुप में हिंस्र पशुओं से युक्त है तरह-तरह के ठग तथा पिशुन लोग बगुले है। कायस्थ (मुंशी लोग) जहरीले सर्प हैं। नीति से इसका तट टूटा हुआ है। यह प्राचीन काल के राजकरण को वर्णन है; आजकल की कचहरी तो कई अंशों में इससे भी बढ़कर है। कचहरी में पहले पहले पैर रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को शूद्रक के वर्णन की सत्यता का अनुभव पद-पद पर होता है।
- शर्विलक के चरित्र का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। ये ब्राह्मण देवता आर्य चारूदत के घर में रात को सेंध मारने जाते है पहुँचने पर उन्हें मालूम पड़ता है कि वह अपना मानसूत्र भूल आये है । झटपट गले में पड़े रहनेवाले डोरे की-- जनेऊ की--सुधि उन्हें हो जाती है। बस, आप इसी से अपना कार्य सम्पादन करते हैं। इस चौर्य-प्रसंग में यज्ञोपवीत की उपयोगिता सुन लीजिये (3117)-
यज्ञोपवीतं हि नाम ब्राह्मणस्य महदुपकरणद्रव्यम्, विशेषतोऽस्मद्विधस्य! कुतः एतेन मापयति भितिषु कर्ममागनितेन मोचयति भुषणसंप्रयोगान् ।
उद्घाटको भवति यन्त्रदृढे कपाटे दष्टस्य कीटभुजगैः परिवेष्टनं च ॥
1. हरिश्चन्द्रस्त्मिां भाषामपभ्रंश इतीच्छति ।
अपभ्रंशो हि विद्वद्भिर्नाटकादौ प्रयुज्यते ॥ (प्राकृतसर्वस्य 1612 )
2.हिमवत्-सिन्धुसौवीरान् येऽन्यदशान् समाश्रिताः।
उकारबहुला तेषु नित्यं भाषां प्रयोजयेत् ॥ (नाटकशास्त्र | 8147 )
- ब्राहाणों के लिए, जनेऊ बड़े काम कि चीज है, विशेष करके हमारे जैसे (चार) ब्राह्मणों के लिए , क्योंकि जनेऊ से भीत पर सेंध मारने की जगह को नापते हैं। आभूषण के बंधन जनेऊ के द्वारा छुडाये जाते है और यदि साँप या कीट काट खाय, तो उसे जनेऊ से बाँध भी सकते है (जिसमें विष न चढे) । ठीक ही है; चोर ब्राह्मण के लिये जनेऊ का और उपयोग हो ही क्या सकता है ?