वैराग्य शतक विवेचना , वैराग्य शतक की व्याख्या
Vairagya Satak Explanation in Hindi
वैराग्य शतक विवेचना, वैराग्य शतक की व्याख्या (Vairagya Satak Explanation in Hindi)
चूड़ोत्तँसित चन्द्र चारू कलिका-चंचच्छिखाभास्वरो
लीलादग्ध विलोलो काम शलभः श्रेयोदशाग्रे स्फुरन्।
अन्तः स्फूर्जदपार मोहतिमिर प्राम्भारमुच्चाटयन्
चेतः सद्यनि योगिनां विजयते ज्ञान प्रदीपो हरः ।।
शीश के बने आभूषण हुए चन्द्रमा की किरणों से प्रकाशमान शीश वाले, तेजस्वी, कामदेव रूपी चंचल पतंगे को सरलता से जलाने वाले, कल्याणकारियों में अग्रगण्य, मन में बढ़ते हुए अज्ञान रूपी अपार अन्धकार को नष्ट करते हुए, भगवान् शंकर रूपी श्वेत ज्ञान दीपक योगियों के भवन में विजयी हों ।
तृष्णा को नमस्कार
उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं घ्माता गिरे र्धातवो
विस्तीर्ण: सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन सन्तोषिताः।
मन्त्राराधन तत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशा:
प्राप्तः काण वराटकोऽपिन मयातृष्णे सकामा भव ॥
मैंने खजाना मिलने की आशा में सारी धरती खोद डाली, सोना मिलने की आशा में पर्वत की सब धातुएँ फूँक डालीं, सागर को पार कर लिया एवं राजाओं को यत्नसे सेवा करके उन्हें सन्तुष्ट किया । मन्त्र सिद्धि करने में लगे हुए मन से मैंने मरघट में बहुत सी रातें बिताई, पर मुझे कानी कोड़ी भी नहीं मिली । हे लालच तू मुझे अब तो छोड़ दे।
मृत्यु से भयभीत
निवृत्ता भोगेच्छा पुरूषबहुमानोऽपिगलितः
समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवित समाः।
शनैर्यष्टयुत्थानं घनतिमिर रूद्धे च नयने
अहो मूढ: कायस्तदपि मरणापाय-चकितः।
भोगों की इच्छा समाप्त हो गई है। पुरूष होने का अत्यधिक गर्व भी गल गया है बराबर की अवस्था वाले जो मित्र प्राणों के समान प्रिय थे, वे सब मर गये हैं। दुर्बलता में लाठी के सहारे धीरे से उठा जाता है। दोनों आँखों में घना अधेरा रहता हैं आश्चर्य का विषय है कि दुष्ट अथवा मूर्ख लोग मृत्यु रूपी हानि के कारण दुःखी हैं।
विधाता का खेल
हिंसा शून्यं अयत्न लयमशनं धात्रा मरूत् कल्पितं
व्यालानाम् पशवस्तृणांकुर भुजः सृष्टाः स्थली शायिनः ।
संसारणिव लंघन क्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणाम्
तामन्वेषयतां प्रयान्ति सततं सर्वे समाप्तिं गुणाः ॥
विधाता ने स्वयं ही साँपों का भोजन वायु के रूप में बिना यत्न के मिलने वाला और हिंसारित बनाया है । उसने पशुओं को तिनके और अंकुर खाने वाला तथा धरती पर सोने वाला बनाया है । पर संसार रूपी सागर को पार करने में समर्थ बुद्धि वाले मनुष्यों का स्वभाव उसने ऐसा बनाया है, जिसे खोजते हुए ही मनुष्यों के सभी गुण समाप्त हो जाते हैं । विभिन्न कारणों से त्याग में वंचित ही रहे -
क्षान्तं न क्षमया गृहोचित सुखं त्यक्तं न सन्तोषत:
सोढो दुःसह शीतवाततपन-क्लेशो न तप्तं तपः ।
ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमित प्राणैर्न शम्भो: पदं
तत्तत्कर्म कृतं यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वंचिताः ॥ (वै0रा06)
हमने सहन तो किया, किन्तु क्षमा के कारण नहीं, विवशता के कारण। घर में मिलने वाला उचित सुख हमने त्यागा अवश्य, पर सन्तोषपूर्वक नहीं, अपितु दरिद्रता के कारण। हमने असहनीय ठण्डा, गर्मी और हवा का क्लेश सहन तो किया, पर तपस्या नहीं की। हमने सांस रोककर रात दिन धन का ध्यान किया, पर प्राणायाम करके भगवान् शंकर का ध्यान नहीं किया। इस प्रकार हमने कर्म तो वे सभी किये जो मुनि जन करते हैं, पर वैसा फल नहीं मिला, जैसा मुनियों को मिलता है।
चन्द्र-सूर्य की दीनता अग्रिम श्लोक में प्रदर्शित की गयी है -
येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः ।
तेनैव च दिवा भानुरहो दौर्गत्यमेतयोः ।। ( नीतिश0 101)
जिस आकाश रूपी वस्त्र के टुकड़े से रात में चन्द्रमा अपना शरीर ढँकता है, उसी से दिन में सूर्य अपना शरीर ढँकता है। इन दोनों की दुर्गति आश्चर्य का विषय है। विषयों का त्याग नहीं-
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेक वारं
शय्या च भूः परिजनो निजदेह मात्रम् ।
शय्या च भूः परिजनों निजदेह मात्रम् ।
विशीर्णशतखण्डमयि च कन्था
हा हा तथापि विषयान्न परित्यजन्ति ॥ (वैरा0 श015)
भीख माँगकर खाना, वह भी स्वादरहित और एक बार हो पाता है। बिस्तर के रूप में धरती अर्थात् धरती पर सोना, परिवार केवल अपना शरीर है। वस्त्र के रूप में पुराने और सैकड़ों टुकड़ों से बनी कथरी है । शोक का विषय है कि मनुष्य फिर भी विषयों को नहीं छोड़ता । दुर्जनों की उद्दण्डता सहन नहीं कर सकता -
फलमलशनाय स्वादु पानाय तोयं
क्षितिरपि शयनार्थे वाससे वल्कलं च
नव धन-मधु-पान भ्रान्त सर्वेन्द्रियाणाम्
अविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ॥
खाने के लिए फल पर्याप्त हैं, स्वादिष्ट पानी पीने के लिए है, सोने के लिए धरती की पीठ है और पेड़ की छाल के वस्त्र हैं। मैं नवीन धन रूपी मदिरा से मतवाली सभी इन्दियों वाले दुष्टों की उद्दंडता को सहने के लिए उत्साहित नहीं हो पाता हूँ।
राजसभा में विद्वानों का क्या काम -
न नटा न विटा न गायकाः न च सव्येतरवादचुचवः ।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः ॥ (वैरा0श 056)
- न हम परस्त्रीगामी विट हैं, न नर्तक है, न गायक हैं, न दूसरों के द्रोह करने वाले हैं और न स्तनों के बोझ से झुकी हुई नारी हैं। राज दरबार में हमारा क्या काम, अर्थात् राज दरबार में तो बिट, नट, गायक, और नारियों की आवश्यकता है।
काल को नमस्कार है
सा रम्या नगरी महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत्
पार्श्वे तस्य च सा विदग्ध परिषत्ता चन्द्र बिम्बाननाः ।
उदवृत्ता: स च राज-पुत्रनिवहस्ते वन्दिन स्ताः कथाः
सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपथं कालाय तस्मै नमः ।।
वही सुन्दर नगरी, वही महान् राजा, वही सामन्तों का समूह, उस राजा के समीप वही विद्वानों की सभा, वे ही चन्द्रमुखी नारियाँ, वे अत्यन्त चतुर राजकुमार, वे कुशल बन्दी वे कथाएँ- यह जन, सब जिस काल के कारण नष्ट होकर स्मरण का विषय रह गया, उस काल को नमस्कार है।