वेद व्यास की समीक्षा महाभारत रचना के संबंध में
वेद व्यास की समीक्षा महाभारत रचना के संबंध में (Ved Vyas Literature Review)
- संस्कृत-साहित्य में आदिकवि वाल्मीकि के अनन्तर (बाद में) महाऋषि व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए। इनके लिखित काव्य आर्ष-काव्य ' के नाम से प्रसिद्ध है। पिछली शताब्दियों में संस्कृत की जो उन्नति हुई, जिन काव्य नाटकों की रचना हो गयी उनमें इन दो ग्रन्थों का प्रभाव मुख्य है।
- महाकवि कालीदास ने रघुवंश में इन कवियों की बडे आदर के शब्दों में संकेत किया है। व्यास की प्रतिभा की परिचायक यही घटना है। कि युद्धो के वर्णन में कहीं भी पुनरूक्ति नहीं दीख पड़ती है। व्यास जी का अभिप्राय महाभारत लिख कर केवल युद्धों का वर्णन नहीं है, अपितु इस भौतिक जीवन की नि:सारथा दिखलाकर प्राणियों को मोक्ष के लिए उत्सुक बनाना है। इसी लिए महाभारत का मुख्य रस शान्त है, वीर तो अंगभूत है । इसमें प्राकृतिक वर्णन नितान्त अनुठे तथा नवीनता पूर्ण है।
- व्यास जी की यह कृति महाकाव्य न होकर इतिहास कही जाती हैं; क्योंकि वह हमारे आदरणीय वीरों की पुण्यमयी गाथा है। यह वह धार्मिक ग्रन्थ है जिसमें प्रत्येक श्रेणी का मनुष्य अपने जीवन के सुधार की सामग्री प्राप्त कर सकता है। राजनीति का तो वह सर्वस्व ही है। राजा और प्रजा के पृथक-पृथक कर्तव्यों तथा अधिकारों का समुचित वर्णन इसकी महती विशेषता है। वाल्मीकि के साथ-साथ से भी हमारे कवियों को काव्यसृष्टि के लिए प्रेरणा तथा स्फूर्ति मिलती आई है और आगे भी मिलेगी।
- भगवद्गीता की महत्ता का प्रदर्शन करना आवश्यक है। कर्म, ज्ञान और भक्ति का जैसा मंजुल समन्वय गीता में किया गया है वैसा अन्यत्र अप्राप्य है। व्यास जी का कथन है कि इस आख्यान को बिना जाने हुए जो पुरूष वेदांग तथा उपनिषदों को भले जानें, वह कभी विचक्षण नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह महाभारत एक साथ ही अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है। जिसने इस आख्यान का रसमय श्रवण किया है उसे अन्य कथानकों में किसी प्रकार का रस नहीं मिलता, ठीक उसी प्रकार, जैसे कोकिल की मधुर कूक के आगे कौए की बोली नितान्त रूखी प्रतीत होती है।
- महाभारत की प्रशंसा में व्यास ने स्वयं इसे समस्त कविजनों के लिए उपजीव्य बतलाया है। इस ग्रन्थ के अभ्यास से कवियों की बृद्धि में स्फूर्ति उत्पन्न होती है- व्यास जी का यह कथन अक्षरशः सत्य है।
बाद के कविजनों ने सचमुच महाभारत से बहुत कुछ लिया है:
इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कवि-बुद्धयः ।
पन्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः ॥
इदं कविवरैः सर्वेराख्यानमुपजीव्यते ।
उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः ।
- महाभारत के पात्रों में एक विचित्र सजीवता भरी हुई है। सब अपने-अपने ढंग के निराले पात्र हैं; परन्तु धर्मराज में जो धार्मिकता दिखाई पड़ती है वह एक अद्भुत वस्तु है। महाभारत सदा से धर्मशास्त्र के रूप में ही गृहीत होता आया है। वस्तुतः वह है भी धर्म का ही प्रतिपादक ग्रन्थ। व्यास ने अपना सन्देश मनुष्यों के लिए सुन्दर श्लोक में निबद्ध कर दिया है'। यदि मनुष्य सच्चा सुख का अभिलाषी है तो उसका परम कर्तव्य धर्म का सेवन ही है।
महाभारत का वैशिष्टय महर्षि वेदव्यास ने भारतीय अर्थनीति, राजनीति तथा अध्यात्म शास्त्र के सिद्धान्तों का सारांश इतनी सुन्दरता से इस ग्रन्थरत्न में प्रस्तुत किया है कि यह वास्तव में भारत के धर्म तथा तत्वज्ञान का विश्वकोष है। धर्म ही भारतीय संस्कृति का प्राण है और इसीलिए व्यासजी ने अधर्म से देश का नाश तथा धर्म से राष्ट्र के अभ्युत्थान की बात बड़े ही सुन्दर आख्यानों के द्वारा हमें सिखलाई है। 'भारत-सावित्री' (जो महाभारत की भव्य शिक्षा का सार-संकलन माना जाता है) में व्यास की स्पष्ट उक्ति है कि धर्म का परित्याग किसी भी दशा में, भय से या लोभ से कभी नहीं करना चाहिए | धर्म शाश्वत है चिरस्थायी है-
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतों: ।
धर्मो नित्यः सुख-दु:खे त्वनित्यः ।
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ||
व्यास कर्मवादी आचार्य हैं। कर्म ही मनुष्य का पक्का लक्षण है, कर्म से पराड़मुख मानव मानव की पदवी से सदा वंचित रहता है (अश्वमेध0 43/27)
प्रकाश-लक्षणा देवा मनुष्याः कर्मलक्षणाः ।
इसीलिए' यह भव्य भारतभूमि कर्मभूमि है। फल भोगने का स्थान तो स्वर्ग है, जो इस भूमि के छोड़ने के अनन्तर प्राप्त होता है। इस बिशाल ब्रह्माण्ड में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ वस्तु है, जिसके कल्याण के लिए पदार्थों की सृष्टि होती है तथा समाज की व्यवस्था की जाती है। आज के समाजशास्त्रियों का यह सिद्धान्त कि मनुष्य ही इस विश्व का केन्द्र है व्यास के इस कथन पर आश्रित है (शान्ति0180/12 )
गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि ।
नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किन्चित् ॥
मानवता का उन्नयक तत्व पुरुषार्थ ही है। व्यास के शब्दों में यह सिद्धान्त 'पाणिवाद' के नाम से विख्यात है। जगत् में जिन लोगों के पास 'हाथ' है- जो कर्म में दक्ष तथा उत्साही हैं उनके सब अर्थ सिद्ध होते हैं। संसार में पाणिलाभ से बढकर लाभ ही कोई दूसरा नहीं है। मानव जीवन की कृतकार्यता हाथ रखने तथा हस्त- संचालन मे ही तो है। हाथ रहते भी हाथ पर हाथ रखकर जीवन बिताना पशुत्व का व्यंजक चिह्न है। इसमें मानव की सिद्धार्थता नहीं है ( शान्ति0 180/11,12)
अहो सिद्धार्थता तेषां सन्तीह पाणय: ।
अतीव स्पृहये येषां सन्तीह पाणयः ॥
न पाणिलाभदधिको लाभ: कश्चन विद्यते ।
व्यासजी की राष्ट्रभावना
- व्यासजी की राष्ट्रभावना बड़ी ही उदात्त, विशुद्ध तथा ओजस्विनी है। राजा राष्ट्र का केन्द्र होता है। तथा स्वेच्छाचारी राजाओं के दोषों से भी विहीन होता है। वह होता है प्रजा का सर्वभावेन हितचिन्तक तथा मंगलसाधक। भारतीय धर्म ही राजमूलक होता है, अर्थात् धर्म की व्यवस्था तथा संचालन का उत्तरदायित्व राजा के ही ऊपर एकमात्र रहता है। यदि राजा प्रजा का पालन नहीं करे, भी अस्तित्व लुप्त तो प्रजा ही एक दूसरे को न खा डालेगी, प्रत्युत वेदत्रयी का हो जायेगा और विश्व को धारण करने वाला धर्म ही रसातल में डूब में जायेगा। राजधर्म के बिगड़ने पर राज्य तथा राष्ट्र का सर्वनाश हो जाता है।
- राजनीतिक नेता के लिए महाभारत एक विलक्षण आदर्श उपस्थित करता है, जो आज भी उतने ही सुन्दर रूप से अनुकरणीय तथा ग्राह्य है। भारत कृषि प्रधान राष्ट्र है। अतः व्यास जी का आग्रह है कि जो नेता स्वयं अपने हाथों कृषि नहीं करता, खेत नहीं जोतता - बोता, उसे नेता बनकर राष्ट्र की समिति में जाने का अधिकार नहीं होता।
न नः समितिं गच्छेद् यश्च नो निर्वपेत्कृषिस्
(उद्योग0 36/31)
ठीक ही है, किसानों का नेता किसान ही हो सकता है। कृषि से अनभिज्ञ, कुर्सीतोड़, बकवादी नेता किसानों का कौन सा मंगल कर सकता है ?
व्यास का अध्यात्म तत्व
व्यासजी अध्यात्मशास्त्र की सूक्ष्म बारीकियों में न पड़कर हमें सुखद तथा नियमित जीवन बिताने की शिक्षा देने पर आग्रह करते हैं। मानव का आध्यात्मिक कल्याण इन्द्रिय निग्रह से ही होता है। मनुष्य इन्द्रियों का दास बनकर पशुभाव को प्राप्त होता है और इन्द्रियों का स्वामी बनकर अपने जीवन को सफल बनाने में समर्थ होता है। एक स्थान पर व्यास की यह सारगर्भित उक्ति है कि वेद का उपनिषद् अर्थात् रहस्य है- सत्य। सत्य का भी उपनिषत् है-- दम और इसी दम- इन्द्रिय-दमन का रहस्य है मोक्षासमग्र अध्यात्म शास्त्र का यही निचौड़ है (शान्ति0 299/13)
वेदोस्योपनिषत् सत्यं सत्यस्योपनिषद् दमः ।
दमस्योपनिषद् मोक्ष एतत् सर्वानुशासनम् ।।
‘करनी बड़ी है कथन से’ - व्यासजी की यही मान्य शिक्षा है मानवों के लिए महाभारत में किसी बोध्य ऋषि के द्वारा कही गई यह प्राचीन गाथा इसी तथ्य पर जोर देती है (शान्ति 0 178/6) –उपदेशेन वर्तामि नानुशास्मीह कन्चन ।
भारतीय संस्कृति आर्जव - ऋजुभाव स्पष्ट कथन तथा सीधे आचरण को ही मानव-जीवन में नितान्त महत्व देती है। वह जिह्य मार्ग- टेढ़ा रास्ता- 'मनस्यन्यत वचस्यन्यत्' को मृत्यु का रूप बतलाती है तथा प्राणियों को उसके मानने से सदा दूर भागने का उपदेश देती है( शान्ति0 11 / 4 ) -
सर्व जिह्यं मृत्युपपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम्
एतावान् ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति ।
- काल के चक्र से कोई बच नहीं सकता। पाण्डवों की विषय तथा समृद्ध दशाओं के आलोचक की दृष्टि में काल की महिमा अपरिमेय है। काल ही कभी बलवान बनता है और कभी दुर्बल । वही जगत् को अपनी इच्छा से ग्रसता है। इसी चक्र के भीतर यह समग्र विश्व अपनी सत्ता धारण किये हुए है। वह देवनिर्मित मार्ग है जिसे लाख चेष्टा करने पर भी कोई पलट नहीं सकता। मानव जीवन का श्रेयस्कर मार्ग है धर्म का आश्रय लेकर आत्मविजय करना ।
- व्यास जी ने आत्म-साक्षात्कार के लिए बडी सुन्दर उपमा दी है। जिस प्रकार मूंज से सींक को अलग किया जाता है, उसी प्रकार पंचकोशों में अन्तर्निहित चैतन्यरूप आत्मा को भी साधक पृथक् कर साक्षात्कार करता है। आनन्दवर्धन की तो यह स्पष्ट सम्मति है कि महाभारत का मुख्य रस शान्त रस है। नाना विकट प्रपंचों में न लिप्त होकर मानव आत्मवस्वरूप का परिचय पाकर मोक्ष का सम्पादन करे। महाभारत की यही अमूल्य शिक्षा है।
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