विशाखदत्त का जीवन परिचय, विशाखदत्त का समय निर्धारण
विशाखदत्त का जीवन परिचय एवं कृतित्व Vishakhadutt Biography in Hindi
विशाखदत्त राजनीति-विषयक नाटकों की
रचना में प्रवीण प्रतीत होते है। इनकी विश्रुत रचना तो 'मुद्राराक्षस' ही है, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन से सम्बद्ध है और जो अमात्य चाणक्य की
बुद्धिमत्ता तथा कुटनीतिमत्ता का एक विमल निदर्शन है।
विशाखदत्त का समय निर्धारण
विशाखदत्त के कालनिर्णय में बहिः साक्ष्य बहुत कम सहायक हैं। इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम मुद्राराक्षस की चर्चा धनिक कृत दशरूपावलोक (1/68) में है-तत्र बृहत्कथामूलं मुद्राराक्षसम् । धनिक का समय 1000ई० है। एक अन्य स्थल (2/55) पर भी इस ग्रन्थ में धनिक ने इस नाटक में प्रयुक्त मन्त्रशक्ति और अर्थशक्ति के उदाहरण दिये हैं। भोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण (5/65) में मुद्रारक्षस का नाम लिये बिना इसके दो पद्य (1/22 तथा 3/21) उद्धृत किये हैं। यह 11 वीं शताब्दी ई० का ग्रन्थ है। इनकी अपेक्षा इसीलिए अन्तः साक्ष्य अधिक चर्चित और व्यवस्थित है।
अन्त:साक्ष्य की दृष्टि से चार
महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय हैं-(1) भरतवाक्य
में 'चन्द्रगुप्त' आदि पाठ, (2) भरतवाक्य में म्लेच्छों के आक्रमणकी चर्चा, (3) प्रस्तावना में चर्चित चन्द्रग्रहण तथा
(4) जैन-बौद्ध धर्मों के प्रति विचार। इनका
क्रमश: विवेचन किया जाता है। भरतवाक्य में चन्द्रगुप्तादि पाठ-मुद्राराक्षस के
भरत-वाक्य (7/18) में उत्तरार्ध इस प्रकार है-
म्लेच्छैरुद्वीज्यमाना भुजयुगमधुना संश्रिता राजमूर्ते:
स श्रीमद्वन्धुभृत्यश्र्चिरमवतु महीं प्रार्थिवश्र्वन्दगुप्तः ।
- इसमें राजा चन्द्रगुप्त के चिर-रक्षा का आशीर्वाद है। भरतवाक्य कथानक का अंक नहीं होता, अपितु उसमें नाट्यकार द्वारा पृथ्वी की अपने समकालिक किसी राजा के प्रशंसा करता । यद्यपि इस प्रसंग में 'पार्थिवोऽवन्तिवमां' 'पार्थिवो दन्तिवर्मा' 'पार्थिवो रन्तिवर्मा' इत्यादि अनेक पाठ मिलते हैं, तथापि बहुसंख्यक विद्वानों ने ‘चन्द्रगुप्त’ वाले पाठ को मूल एवं अन्य पाठों को परिवर्तित (ऊह-रूप) कहा है। यह चन्द्रगुप्त प्रसिद्ध गुप्तवंशीय नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय था जिसका शासन काल 375ई० से 413 ई० तक माना जाता है। विशाखदत्त का अन्य नाटक 'देवीचन्द्रगुप्त' भी इसी राजा के सिंहासनारोहण से सम्बद्ध है। गुप्तवंशीय राजा विष्णु के उपासक थे । उक्त भरतवाक्य में भी विष्णु की वराहमूर्ति की चर्चा है । गुप्तकाल के ही उद्यगिरि-अभिलेख वाली गुफा में चित्रित वराह की मूर्ति मिली है जिसमें असुरों से पृथ्वी की रक्षा वराह कर रहे हैं, भरतवाक्य का सीधा सम्बन्ध इस गुहाचित्र से है ।
- मुद्राराक्षस की विषय-वस्तु और अभिनेयता ने इसका अभिनय बार-बार कराया था; संकट के बाद राज्य पाने वाले राजाओं ने इसके मंचन को शुभ मानकर इसका अभिनय कराया और उनके प्रशंसकों ने राजा का नाम भरत-वाक्य में बदलना आरम्भ कर दिया। इसीलिए अवन्तिवर्मा आदि अनपेक्षित नामों वाले पाठ उत्पन्न हुए । तेलंग, ध्रुव तथा पं० बलदेव उपाध्याय ने अवन्तिवर्मा (मौखरिवंश के राजा, षष्ठ शताब्दी ई० का उत्तरार्ध) वाले पाठ को प्रामाणिक मानकर विशाखदत्त का समय 550-600ई० माना है। किन्तु वस्तुस्थिति इसके प्रतिकूल है। लेखक ने चन्द्रगुप्त मौर्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय की राज्य प्राप्ति में साम्य देखकर इस नाटक की रचना की प्रेरणा पायी थी; उसका प्रबल समर्थन उन्होंने 'देवीचन्द्रगुप्त' लिखकर किया । भारतवर्ष के जिस रूप की प्रशंसा मुद्राराक्षस ( 3 / 19 आ शैलेन्द्रात्........आतीरात् दक्षिणस्यार्णवस्था) में की है, वह अवन्तिवर्मा के राज्य में सम्भव नहीं था; अपितु चन्द्रगुप्त द्वितीय का ही राज्य था । गुप्तकाल में ही पाटलिपुत्र में समारोह पूर्वक कौमुदी महोत्सव मनाया जाता था जिसकी मुद्राराक्षस में (3/19 के बाद), भले ही कृतककलह के निमित्त उसके निषेध के लिए, चर्चा है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में, फाहियान के अनुसार, बौद्ध धर्म की स्थिति अच्छी थी । मुद्राराक्षस में वर्णित व्यवस्था से उसकी संगति बैठ जाती है। इस प्रकार विशाखदत्त को 400-450 ई० में मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।
म्लेच्छों का आक्रमण-
- उपर्युक्त भरत वाक्य में म्लेच्छों के आक्रमण का उल्लेख है जिसका प्रतीकार विशाखदत्त के समकालिक (अधुना) राजा चन्दगुप्त या अवन्तिवर्मा ने किया था । प्राचीन भारत में सामान्यतः विदेशियों को ‘म्लेछ' कहा जाता था; वे वर्णाश्रम-धर्म को नहीं मानते थे । ईस्वी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों में क्रमश: शकों तथा हूणों को म्लेच्छ कहते थे; यह बात अवश्य थी कि म्लेच्छों ने यहाँ शासन करना आरम्भ कर दिया था। 'अवन्तिवर्मा' पाठ मानने वाले कहते हैं कि इस राजा ने प्रभाकरवधर्न (हर्ष के पिता) के सहयोग से 582 ई० में हूणों को पराजित किया था । किन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय के द्वारा अपने सिंहासनारोहण के समय ही शकों को पराजित करने का तथ्य इसकी अधिक प्रबल है; शकराज को मारकर चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने ध्रुवदेवी से परिणय किया ताकि म्लेच्छों से आक्रान्त पृथ्वी पर पुनः सनातन व्यवस्था स्थापित की। इसकी संगति अधिक ग्राह्य है।
चन्द्रग्रहण का उल्लेख
- मुद्राराक्षस की प्रस्तावना में ऐसे चन्द्रग्रहण का उल्लेख है जो बुध-योग के कारण टल जाता है। यद्यपि इसमें श्लेष द्वारा ज्योतिषशास्त्रीय एवं प्रकृत विषय- दोनों का निरूपण है, किन्तु इसमें निर्दिष्ट तथाकथित चन्द्रग्रहण की व्यवस्था को लेकर भी विद्वानों ने विशाखदत्त का काल निरूपित किया हैं विशाखदत्त ज्योतिष के विद्वान् थे इस शास्त्र में बुध योग से चन्द्रग्रहण का निवारण-सिद्धान्त वराहमिहिर (500ई. के लगभग) के पूर्व में ही प्रचलित था। वराहमिहिर ने अपनी ‘बृहत्संहिता' में कहा है कि बुधयोग से चन्द्रगहण का निषेध नहीं होता । यह स्थिति विशाखदत्त को 500ई० पूर्व सिद्ध करती है जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के राज्यकाल में या उससे कुछ ही बाद विशाखदत्त का काल मानने का समर्थन करती है।
जैन-बौद्ध धर्मों के प्रति धारणा
- मुद्राराक्षस के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि विशाखदत्त के समय में जैन और बौद्ध धर्म समाज के में आदरणीय थे । इस नाटक के सप्तम अंक में राक्षस कहता है कि बोधिसत्त्वों का तग तो प्रसिद्ध है किन्तु चन्दनदास ने अपने कर्म से ( मित्र के लिए प्राणत्याग करते हुए) उनके चरित्र को भी न्यून बना दिया (7/5)। इसी प्रकार क्षपणक जीवसिद्धि का ब्राह्मणों के साथ रहना भी जैनधर्म के प्रति आदरभाव का सूचक है। ये दो धर्म सप्तम शताब्दी से हासोन्मुख हुए। अतः विशाखदत्त को 600ई. से पूर्व रखना उपयुक्त है। इस दृष्टि से वे मौखरि अवन्तिवर्मा के अथवा चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भी रखे जा सकते हैं किन्तु अन्य स्थितियाँ (जैसे सम्पूर्ण भारत का एकछत्र राज्य मानना, विष्णु से अपने आश्रयदाता की भरतवाक्य में तुलना, देवीचन्द्रगुप्त की रचना इत्यादि) में विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में सिद्ध करती हैं। प्रो० हिलब्राँ, स्पेयर, टॉनी, रणजित पण्डित, सी. आर. देवधर आदि इसी के समर्थक हैं। इस मत के प्रवर्तक प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल थे।
विशाखदत्त का जीवन परिचय Vishakhadutt Jeevan Parichy
- नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार के द्वारा विशाखदत्त का कुछ परिचय दिया गया है। विशाखदत्त के पितामह वटेश्वरदत्त थे इनके पिता का नाम महाराज पृथु अथवा भास्कर दत्त था कहीं-कहीं इनका नाम विशाखदेव भी मिलता है। इनके पिता तथा पितामह के नामों को देखने से प्रतीत होता है कि सम्बन्ध किसी राजवंश से था, क्योंकि प्राचीन काल में किसी एकच्छत्र सम्राट् के अधीनस्थ राजाओं को 'सामन्त' कहा जाता था । ऐसा प्रतीत होता है कि कवि विशाखदत्त किसी चक्रवर्ती सम्राट् के आश्रित थे। इन्होंने उसी राजा के गुणों का वर्णन नाटक में प्रकारान्त से किया है।
- मुद्राराक्षस में विशाखदत्त के जीवन के विषय अन्तः साक्ष्य नहीं है। फिर भी इस नाटक में गौड़देश की प्रथाओं, रीति-रिवाजों तथा सूक्ष्मतिसूक्ष्म बातों का वर्णन होने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये गौड़देश के वासी थे। उनके प्रदेश में धान की खेती अधिक मात्रा में होती थी। इसी कारण धान की सघनता से वे पूर्णतः परिचित थे । मलयकेतु की सेना में रहने वाले खर्शो के प्रति विशाखदत्त का विशेष लगाव दिखाई पड़ता है। इससे लगता है कि विशाखदत्त देश के वासी थे।
मुद्राराक्षस के अन्तिम श्लोक 'भरतवाक्य' से भी विद्वानों ने विशाखदत्त आश्रयदाता राजा का अनुमान किया है। यह श्लोक इस प्रकार है-
वाराहीमात्योनेस्तनुमनुबलामास्थितस्यानुरूपां
यस्य प्राग्दन्तकोटिं प्रलयपरिगता शिश्रिये भूतधात्री
म्लेच्छैरूद् वेज्यमाना भुजयुगमधुना संश्रिता राजमूर्ते:
सश्रीमद्वबन्धुभृत्यश्चिचरमवतु महीं पार्थिवश्चन्दगुप्तः ।।- ( 7/19) मुद्रा 0
इस श्लोक के अन्त में चार पाठभेद हैं-
1. पार्थिवो रन्तिवर्मा
2. पार्थिवोऽवन्तिवर्मा
3. पार्थिवो दन्तिवर्मा
4. पार्थिवश्चन्द्रगुप्तः
- इस चारों पाठभेदों में से प्रामाणिक पाठ का निर्णय होने पर विशाखदत्त के काल का भी निर्णय हो सकता है। प्रथम पाठ में कथित राजा रन्विर्मा के नाम का उल्लेख किसी भी इतिहासकार ने नहीं किया है। अतः रन्तिवर्मा के साथ कवि विशाखदत्त का सम्बन्ध किसी भी तरह स्थापित नहीं किया जा सकता है। दूसरा पाठ 'अवन्ति वर्मा' है । इतिहास के अनुसार अवन्तिर्मा नाम के दो राजा हुए हैं। पहले काश्मीर के राजा तथा दूसरे कन्नौज के मौखरिवंश के थे। काश्मीर के राजा अवन्ति वर्मा नवीं शताब्दी के मध्य (855-863 ई०) ) में हुए थे। कवि विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में काश्मीर नरेश के लिये म्लेच्छ जैसे घृणित नाम का प्रयोग किया है। इसलिये विशाखदत्त के आश्रयदाता काश्मीर नरेश नहीं हो सकते। दूसरी बात यह है कि याकोबी ने नाटक की प्रस्तावना में उल्लिखित चन्द्रग्रहण को 2 दिसम्बर 860ई० का माना है। अतः विशाखदत्त निश्चित ही इस चन्द्रग्रहण से पूर्व के होने चाहिये । अतः विशाखदत्त काश्मीर नरेश अवन्तिवर्मा के काल के प्रतीत नहीं होते हैं।
- दूसरे अवन्ति वर्मा भी भारत कन्नौज के मौखरि वंश के थे । इनका समय छठीं शताब्दी उत्तरार्ध में था। किन्तु यह राजा कभी भी भारत का एकछत्र सम्राट नहीं था, जैसा कि वर्णन विशाखदत्त ने भरतवाक्य में किया है। दूसरी बात यह है कि इस अवन्तिवर्मा ने कभी भी म्लेच्छों को परास्त नहीं किया था। कुछ लोग कहते हैं कि अवन्तिवर्मा ने थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की सहायता से सन् 582ई。 में हूणों को परास्त किया था तथा तथा भरतवाक्य में कथित म्लेच्छ पद हूणों के लिये ही आया है। किन्तु म्लेच्छ कहने से हूणों का ही अर्थ लिया जाए, इसमें कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि विशाखदत्त ने तो नाटक में कुतूलाधिपति चित्रवर्मा, मलय के राजा सिंहनाद, कश्मीर नरेश पुष्कराक्ष, सिन्धु के शासक सिन्धुशेण तथा फारस के अधिपति मेघ को भी म्लेच्छ कहा है । पर्वतश्वर तथा मलयकेतु को भी विशाखदत्त म्लेच्छ कहते हैं । फिर भरतवाक्य में उल्लिखित ‘म्लेच्छ' पद से हूणों को मानकर कन्नौज के राजा अवन्तिवर्मा का पाठ भी उचित नहीं लगता।
- तृतीय पाठान्तर में राजा दन्तिवर्मा को स्वीकार किया गया है। दन्तिवर्मा पल्लवनरेश थे । इनका समय अष्टम शतक उत्तरार्ध है। किन्तु इन राजा दन्तिवर्मा ने म्लेच्छों को परास्त किया था इसका कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। साथ ही प्रो. ध्रुव ने कहा है कि पल्लव राजा कट्टर शैव थे, जबकि विशाखदत्त ने इन्हें विष्णु का अवतार माना है। अतः 'दन्तिवर्मा' का यह पाठभेद ठीक नहीं है।
- अन्ततः ‘चन्द्रगुप्त’ यह पाठ ही परिशेषात् उचित मालूम पड़ता है। इतिहास में तीन चन्द्रगुप्तों का वर्णन मिलता है। प्रथम चन्द्रगुप्त मौर्य, दूसरे गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त प्रथम तथा तीसरे चन्द्रगुप्त मौर्य ही के मुद्राराक्षस के नायक हैं। विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस के राक्षस के मुख से चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त से लिए कटुशब्दों का प्रयोग किया है इसलिये चन्द्रगुप्त मौर्य विशाखदत्त के आश्रयदाता नहीं हो सकते । दूसरे गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त प्रथम ने म्लेच्छों को परास्त किया था इस बात का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं हैं अन्ततः विशाखदत्त चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के आश्रय में थे इसी बात को स्वीकार किया जा सकता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को परास्त किया था विशाखदत्त ने शकों को म्लेच्छ कहा है। भरतवाक्य में चन्द्रगुप्त को विष्णु का अवतार कहा गया में है । यह बात चन्द्रगुप्त द्वितीय पर पूर्ण लागू होती है। उन्हें भी विष्णु भक्त तथा विष्णुका अवतार माना जाता है।
- इस प्रकार इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि विशाखदत्त चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रामदित्य के काल में ( 400ई.) हुए थे। भरतवाक्य में प्रयुक्त 'अधुना' शब्द से विक्रमादित्य तथा विशाखदत्त की समानकालीनता सिद्ध होती है। मुद्राराक्षस के टीकाकार ढुण्डिराज पण्डित जैसे कुछ लोगों का कहना है भरतवाक्य में उक्त राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ही हैं क्योंकि प्रसरत: वहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य का ही नाम उचित लगता है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी सेल्यूकस को परास्त किया था तथा सेल्यूकस को यूनानी होने से म्लेच्छ कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा मानने पर भी विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त मौर्य का आश्रित नहीं माना जा सकता है, क्योंकि नाटक में चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के लिये कटुवचनों का प्रयोग है। ऐसी दशा में तो विशाखदत्त का काल ही निर्धारित नहीं हो सकता है। इस प्रकार कुल मिलाकर विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (400ई०) के ही काल का मानना न्यायसंगत है।