यज्ञ का उद्देश्य (Aim of Yagya in Hindi)
यज्ञ का उद्देश्य, यज्ञ करने के क्या फायदे होते हैं (Yagya aim in Hindi)
अब हम अनेक ऋषि-महर्षियों के उन वचनों को उद्धृत करते हैं, जिनसे यज्ञ के महत्त्व का सुन्दररूप से परिचय हो सकेगा।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ कर्मसमुद्भवः ॥ (गीता 3।14)
"समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और उनकी अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती हैं और वर्षा यज्ञ से होती हैं तथा वह यज्ञ कर्म से होता हैं।"
अग्न्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ॥ ( मनुस्मृति 3176)
‘अग्नि में विधि-विधानपूर्वक दी हुई आहुति सूर्यदेव को प्राप्त होती हैं, पश्चात् उससे वृष्टि होती हैं, वृष्टि से अन्न होता हैं और अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती हैं।'
अग्न्नौ प्रास्तहुतिर्ब्रह्मन्नादित्यमुपगच्छति ।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेन्नं ततः प्रजाः ॥ (महाभारत, शान्तिपर्व 263 111 )
‘अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्यमण्डल को प्राप्त होती हैं, सूर्य से जल की वृष्टि होती हैं, वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता हैं और अन्न से समस्त प्रजा जन्म तथा जीवन धारण करती हैं।'
यजते क्रतुभिर्देवान् पितृश्च श्रद्धायान्वितः ।
गत्वा चान्द्रमसं लोकं सामपाः पुनरेष्यति ।। ( भागवत 3132। 2-3)
‘जो पुरुष श्रद्धापूर्वक यज्ञादि द्वारा देवताओं और पितरों का पूजन करता हैं वह यज्ञों के प्रताप से चन्द्रलोक में जाकर सोमरस (अमृत) का पान करके पुनः इहलोक में आता हैं।'
यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान् यज्ञपुरुषः ।
इज्यते स्वेन धर्मेण जनैर्वणाश्रमान्वितैः ॥
तस्यराज्ञोमहाभागा भगवान् भूतभावनः ।
परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतोनिजशासने ॥
तस्मिंस्तुष्टे किमप्राप्यं जगतामांश्वरेश्वरे । (भागवत 4|14।18-20)
जिसके राज्य अथवा नगर में वर्णाश्रमधर्मियों के द्वारा यज्ञ-पुरुष भगवान् का यजन होता है उस पर भगवान् प्रसन्न होते हैं। क्योंकि वे ही समस्त विश्व की आत्मा तथा समस्त भूतों के रक्षक हैं। भगवान ब्रह्मादि जगदीश्वरों के भी ईश्वर है, अतः भगवान् के प्रसन्न होने पर संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जो कि अप्राप्य हों।'
यज्ञेनाप्यायिता देवा वृष्टयुत्सर्गेण मानवाः ।
आप्यायन्ते धर्मयज्ञा यज्ञाः कल्याणहेतवः ॥ (पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड 31 132 )
यज्ञ से देवताओं का आप्यायन (वर्द्धन) अथवा पोषण होता हैं। यज्ञ द्वारा वृष्टि होने से मनुष्यों का पालन-पोषण होता हैं। इस प्रकार जगत् का पालन-पोषण करने के कारण धर्मयज्ञ कल्याण के हेतु कहे जाते हैं।
यज्ञैराप्यायिता देवा वृष्ट युत्सर्गेण प्रजाः।
आप्याययन्ते धर्मज्ञ यज्ञाः कल्याणहेतवः || (विष्णुपुराण 11 618)
‘हे धर्मज्ञ! यज्ञ से देवताओं का आप्यायन अथवा पोषण होता है, यज्ञ द्वारा वृष्टि होने से मनुष्यों का पालन-पोषण होता है। इस प्रकार जगत् का पालन-पोषण करने के कारण यज्ञ कल्याण के हेतु कहे जाते हैं। '
यज्ञेषु देवास्तुष्यन्ति यज्ञे सर्वे प्रतिष्ठितम् ।
यज्ञेन घ्रियन्ते पृथ्वी यज्ञस्तारयति प्रजाः ।।
अन्नेन भूता जीवन्ति यज्ञे सव प्रतिष्ठितम् ।
पर्जन्यो जायते यज्ञात्सर्वे यज्ञमयं ततः ॥ (कालिकापुराण 3217-8)
‘यज्ञों से देवता सन्तुष्ट होते हैं, यज्ञ ही समस्त चराचर जगत् का प्रतिष्ठापक हैं। यज्ञ पृथ्वी को धारण किये हुए हैं । यज्ञ ही प्रजा को पापों से बचाता हैं। अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं, वह अन्न बादलों द्वारा उत्पन्न होता हैं और बादल की उन्नत्ति यज्ञ से होती है। अतः यह सम्पूर्ण जगत् यज्ञमय है।"
यज्ञैर्यश्वरो येषां राष्ट्रे सम्पूज्यते हरिः ।
तेषां सर्वेप्सितावाप्ति ददाति नृप भूभृताम् ॥ (विष्णुपराण 1।13।।19)
‘हे राजन्! जिन राजाओं के राज्य में भगवान् हरि का यज्ञों द्वारा पूजन किया जाता हैं, वे उनकी सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं।'
ये यजन्ति शून्या हरिभक्तान् हरिं तथा ।
त एवं भुजनं सर्वे पुनन्ति स्वांघ्रिपांशुना । (नारदपुराण 39। 64 ) "
जो स्पृहा से रहित (निष्काम भाव से) होकर भगवान् और भगवद्भक्तों को यज्ञ के द्वारा पूजते हैं, वही अपने चरण-रज से समस्त ब्रह्मण्ड को पवित्र करते हैं।'
'यज्ञदानादिकं कर्म भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणाम् ।' (अग्निपुराण 381148)
‘यज्ञे करने से मनुष्य देवलोकों को प्राप्त करता हैं, हवन करने से पापों का नाश होता है ।, जप करने से समस्त कामनाओं को प्राप्त करता हैं और सत्य-भाषण से परम पद को प्राप्त करता हैं।
होमेन पापं पुरुषो जहाति
होमेन नाकं च तथा प्रयाति ।
होमेस्तु लोके दुरितं समग्रं
विनाशयत्येव न संशयोऽत्र ॥
"यज्ञ के द्वारा मनुष्य अपने पापों को दूर करता हैं और यज्ञ से वह स्वर्ग को प्राप्त करता हैं। यज्ञ ही संसार के समस्त पापों को नष्ट करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।'
मातापित्रोर्हिते युक्तो गो-ब्राह्मणहिते रतः ।
दान्तो यज्वा देवभक्तो ब्रह्मलोके महीयते ॥ (कूर्मपुराण, उत्तरार्ध 15। 24 )
'माता-पिता के हित में संलग्न, गो और ब्राह्मण के हित में रत, देवभक्त और दानशील- ये सभी यज्ञ करने से ब्रह्मलोक में पूजित होते हैं।'
'यज्ञैरनेकैर्देवत्वमाप्येन्द्रण भुज्यते।' (पद्यपुराण, सृष्टि 13। 368)
‘अनेक यज्ञों के करने से देवत्व को प्राप्त करके इन्द्र के साथ दिव्य भोगों को भोगते हैं।'
प्रीयतां पुण्डरीकाक्षः सर्वयज्ञेश्वरो हरिः ।
तस्मिस्तुष्टतेजगत्तुष्टेजगत्तुष्टं प्रीणितं भवेत् ।। (मत्स्य पुराण 2381 38 )
‘विष्णु भगवान् यज्ञ से सन्तुष्ट होते हैं, उनकी सन्तुष्टता से जगत् सन्तुष्ट होता है और उनकी प्रसन्नता से ही जगत् प्रसन्न होता हैं।'
'दानशीलो भवेद्राजा यज्ञशीलश्च भारत ।' ( महाभारत, शान्तिपर्व 61 153)
हे युधिष्ठिर! दान करनेवाला तथा यज्ञ करनेवाला राजा होता हैं।
न हि यज्ञसमं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ।
तस्माद्यष्टव्यमित्याहुः पुरुषेणानुसूयता ॥ ( महाभारत, शान्तिपर्व 61।53)
‘तीनों लोकों में यज्ञ के बराबर और कोई उत्तम वस्तु नहीं हैं। इसलिये दोषदृष्टि से रहित होकर मनुष्य को यज्ञ करना चाहिये, ऐसा महर्षियों ने कहा हैं।'
यानि यज्ञेष्विहेज्यन्ति सदा प्राज्ञा द्विजर्षभाः।
तेन ते देवयानेन पथा यान्ति महामुने । (महाभारत, शान्तिपर्व 2631 29)
'हे महामुने! जो बुद्धिमान् विप्र सर्वदा श्रेष्ठ यज्ञ करते रहते हैं, वे यज्ञ के प्रभाव से देवयान मार्ग के द्वारा देवलोक को प्राप्त करते हैं।
स्वाहा-स्वधा-षट्कारा यत्र सम्युगनुष्ठिताः ।
अजस्त्रं चैव वर्तन्ते वसतत्तेत्राविचारयन् ।। ( महाभारत, शान्तिपर्व 2871 51 )
‘जिस राष्ट्र में स्वाहा, स्वधा और वषट्कार के अनुष्ठान विधि-पूर्वक सर्वदा होते रहते हैं, वहीं पर मनुष्य को बिना विचारे निवास करना चाहिये।'
'हुतेन शाम्यते पापम्।' (महाभारत, शान्तिपर्व 2911 2)
'हवन करने से पापों का शमन हो जाता है।'
देवाः सन्तोषिता यज्ञैर्लोकान् संवर्धयन्त्युत ।
उभयोर्लोकयोर्देवि भूतिर्यज्ञैः प्रद्दश्यते ॥
तस्माद्यज्ञाद्दिवं याति पूर्वजैः सह मोदते ।
नास्ति यज्ञसमं दानं नास्ति यज्ञसमो विधिः ।
सर्वधर्मसमुद्देशो देवि यज्ञे समाहितः ।। ( महाभारत )
‘यज्ञों से सन्तुष्ट होने पर देवगण लोकाभ्युदय की कामना करते हैं, साथ ही यज्ञों के द्वारा दोनों लोकों का कल्याण सम्पन्न होता हैं। यज्ञ से प्राणी के लिये विशेष फल यह होता हैं कि वह स्वर्गलोग का भागी बनता हैं और वहां पर अपने पूर्वजों के साथ आनन्द करता हैं। संसार में यज्ञ के समान कोई दान नहीं और यज्ञ के समान कोई विधि-विधान नहीं हैं। यज्ञ से ही समस्त धर्मों है का उद्देश्य सिद्ध होता है। यह बात सुस्पष्ट है।'
‘यज्ञादिभिर्देवाः शक्तिसुखादीनाम् ।' (महर्षि अंगिरा )
‘यज्ञादि करने से देवगण सन्तुष्ट होते हैं, उनकी सन्तुष्टता से मनुष्य शक्ति और सुखादि की प्राप्ति करता हैं।"
तथा अन्य धर्मग्रन्थों में-
अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ।
अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः
यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः।
यज्ञेन देवानाप्नोति ।
यज्ञेश्च देवानाप्नोति
यज्ञभागभुजो देवाः ।
यज्ञभागभुजः सर्वे ।
यज्ञो वै सर्वकामधुक् ।
यज्ञो यज्ञपतिः साक्षात् यज्ञोऽयं सर्वकामधुक् ।
यज्ञाः पृथ्विपीं धारयन्ति ।
उपर्युक्त यज्ञ के महत्त्व को प्रकट करने वाले अनेक प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध है कि यज्ञ का फल केवल ऐहलौकिक ही नहीं हैं, अपितु पारलौकिक भी हैं। अतः जिस यज्ञानुष्ठान के प्रभाव से जीव की क्षुद्रता, अल्पज्ञता आदि विविध उपद्रवों का विनाश होता हैं और वह परमात्मा के साथ एकता को प्राप्त होता हैं, उस यज्ञ का महत्त्व सर्वमान्य हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हैं।