वासवदत्ता का कलात्मक परिचय (Artistic Introduction to Vasavadatta)
1. वासवदत्ता स्थापत्य कला -
- विद्वानों ने कला के दो भेद उपयोगी तथा ललित कला माने है । ललित कला के भी दो भेद है-मूर्तकला और अमूर्त कला । स्थापत्य कला वस्तुतः मूर्त कला है इसलिए यह संगीत कला और कविता से श्रेष्ठ ठहराई गयी है। यह कला, चाक्षुष सौन्दर्य बोध से सम्पन्न होने के कारण अमूर्त कला की अपेक्षा संप्रेषणशीलता की तीव्रता के लिए रहती है। यह कला सहज, सरल, सार्वजनिक तथा ग्राह्य होती है। कला मर्मज्ञ के साथ ही कला अनिभज्ञ व्यक्ति भी स्थापत्य कला की विविध सौन्दर्य उर्मियों को देखकर मुग्ध हो सकता है। भारत में स्थापत्य कला की अपनी मौलिक विशेषताएं है। भारत अनादिकाल से धार्मिक एवं दार्शनिकों का देश रहा है। इस देश में जीवन के वाह्य सौन्दर्य से हटकरण मनुष्य की आन्तरिक भावनाओं पर अधिक मनन चिन्तन हुआ है। इसलिए यहां की स्थापत्यकला में भी इनकी अभिव्यक्ति में सहज स्वरूप में हुई हैं देव मन्दिर के निर्माण से लेकर राजमहलों यही नहीं साधारण मनुष्य के गृहों में, अनेक विदेशी स्थापत्य कलाओं को अपनी कुक्षि में पचाये हुए धर्म दर्शन का अद्भुत समन्वय यहां की स्थापत्य कला में मुखरित हुआ है। वासवदत्ता की कथा में स्थापत्य कला का है बहुत परिचय मिलता है।
- प्राचीन स्थापत्य कला के केन्द्र है- पौराणिक ऐतिहासिक । प्रायः राजभवनों और राजनगरों में निर्मित भवनों में ही स्थापत्यकला अधिक मुखरित हुयी है। राजतन्त्र में राजा, अमात्य, मैत्री, सचिव, सेनापति, राजपुरुष, कवि, पण्डित, आचार्य, पुरोहित नगर निवासी आदि सभी राजधानी में रहते थे । इनसे नगर (राजधानी) की शोभा में अभिवृद्धि होती थी। राजप्रसाद की अपनी भव्यता होती थी । राजपरिवार के प्रायः प्रत्येक सदस्य के लिए अत्यन्त सुसज्जित और आकर्षक ढंग से ये भवन निर्मित होते थे। नगर में यातायात के लिए राजमार्ग की व्यवस्था थी। वासवदत्ता में बने विविध भवनों का विस्तार चाक्षुष बिम्ब के रूप में प्रस्तुत किया हैं राजभवनों और राजनगरों में निर्मित भवनों में ही स्थापत्यकला अधिक मुखर हुयी है।
- राजतंत्र में राजा, अमात्य, मंत्री, सचिव, सेनापति, राजपुरुष कवि पण्डित, आचार्य, पुरोहित, नगर निवासी आदि सभी राजधानी में रहते थे। इनमे नगर (राजधानी) की शोभा में अभिवृद्धि होती थी। राजपरिवार के प्रायः प्रत्येक सदस्य के लिए अत्यन्त सुसज्जित और आकर्षक ढंग से ये भवन निर्मित होते थे । राजा के निवास के लिए जो भवन निर्मित होता था उसको राजभवन या राजकीय भवन राजमहल, राजमन्दिर, राजप्रसाद आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। इन राजमहलों में स्थिति एक राज्यसभा या राजसभा होती थी ।
- राजधानी में स्थापत्य कला की दृष्टि से राजभवन के अतिरिक्त अन्तःपुर या अन्तःपुर का द्वार, नगर भवन, मंत्रणागृह, कलाभवन, विलास भवन या उल्लास भवन, राजकीय घाट, राजकीय मंदिर, राजकीय उद्यान, राजद्वार, कारागार, रंगशाला, राजमार्ग आदि विवेचनीय है । वासवदत्ता कथा में राजधानी का वर्णन करते हुए वे कहते है (कन्दर्पकेतु ने वासवदत्ता के भवन को देखा ) जो एक-के अन्त पर जड़े हुए सुर्वण, मोती, नीलमणि और पद्मराग मणियों के कारण मानो वासवदत्ता के देखने के लिए आये हुए देवतागणों से युक्त परकोटो से घिरा हुआ था । जो वायु द्वारा हिलायी गयी आकाशरूपी वृक्ष की पुष्पमंजरी के समान अमरावती की शोभा को तिरस्कृत करती हुयी पाटकाओं से शोभायमान था । वासवदत्ता का भवन अनेक नदियों से सुशोभित था जो नदियां सुवर्णशीलाओं से युक्त थी जो कर्पूर, केसर, चन्दन, इलायची और लवंग की सुगन्ध को धारण करने वाली थी । तट के समीप में रखे गये स्पार्तक शिलाओं पर सुखपूर्वक बैठे हुए जाने पड़ते कबूतरों से युक्त थी, जो स्थित वृक्षों के गिरते हुए पुष्पों से गुच्छेदार जल वाली थी । कर्पूर समूह से विरचित पुलिनों पर बैठे ठे हुए राजहंसों के कलरव से राजहंसी का अनुमान हो रहा था। राजा की चित्तवृत्ति के समान छोटी-छोटी नदियों को तिरस्कृत करने वाली अनेक नदियों से सुशोभित भवन को देखा।
2. वासवदत्ता चित्रकला
- वासवदत्ता चित्रकला साधारणतः चित्र दो प्रकार होते है - 1. भित्ति चित्र 2. प्रतिकृति । प्राचीन भारत में प्रथम प्रकार के चित्र कंदराओं, अजन्ता की गुफाओं एवं प्रासादों की दीवारों पर मिलते है तथा द्वितीय प्रकार के चित्र एक व्यक्ति अथवा अनेक व्यक्त्यिों की प्रतिकृति को कहते है । इसमें प्रकृत व्यक्ति बिंब का काम करता है। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत की चित्रकला उसकी अन्य कलाओं की भांति अति प्राचीन है। इनमें से अधिकांश प्रस्तरयुगीन है। भारतीय जनजीवन में राजा महाराजाओं से लेकर पेशेवर चित्रकार तक ये चित्र बनाते तथा प्रासादों को सजाते थे। विश्व प्रेम में शूरसेन अपने कमरे में देवताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरे तथा रूपसेन श्रीराम पंचायत, अयोध्यानरेश और अयोध्या के दृश्यों के चित्र लगाता है ।
- वासवदत्ता में कन्दर्पकेतु स्वप्न में वासवदत्ता को चित्रित पाता है । जय पराजय में ‘भारमाली’ अपने प्रेमी का चित्र रखती है जो स्वप्न में गिरकर भावी आपत्ति की सूचना देता है। ‘विश्व प्रेम’ का भोग विलास में डूबा राजा चन्द्रसेन अपने कमरे में सुन्दरी स्त्रियों की तस्वीरें तथा राजयोग में चन्द्रसूदन अपने कमरे में भड़कदार बाजारू चित्र टांगता है।
3. वासवदत्ता मूर्तिकला-
- संसार में मूर्ति प्रतीक जितना प्रभावी सिद्ध हुआ है, उतना अन्य कोई प्रतीक नहीं । भारत में मूर्तिकला प्राग् मौर्य युग से लेकर आधुनिक युग तक के इतिहास को अपने कृषि में आत्मसात किये हैं, इसलिए विद्वानों ने मूर्तिकला को प्राग्मौर्य, मौर्य, शुगं, शक, कुशाण, गुप्त पूर्वमध्य, उत्तरमध्य प्रागाधुनिक, वर्तमान मूर्तिकला की शैलियों के नाम से विभाजित किया है। कहीं अनेक रूपों वाली विष्णु की मूर्ति के समान अनेक पशुओं से व्याप्त थी ।
4 वासवदत्ता संगीत-नृत्य -
संगीत, गायन, नर्तन और वादन के समाहार को कहते है। गद्यकाव्यों में गायन नर्तन एवं वादन का समावेश अतिप्राचीन काल से होता आया है। कथाकारों ने भी संगीत को प्रचुरता के साथ प्रयुक्त किया है। इन गद्यकारों की भाषा आनुप्रासिक संगीत और लयात्मकता से युक्त है एक मधुर संगीतमय नाद की अनुभूति कराती है। इस सन्दर्भ में मलय वायु सम्बन्धी वर्णन द्रष्टव्य है-
कन्दर्पकेलिसम्पल्लम्पलाटीललाटतटलुलितालक
समृद्धमधुरिमगुणः, कामकला कलापकुशल धम्मिल्लभारबकुलकुसुम- परिमल मेलन चारूकर्णातसुन्दरीस्तनकलाषधुसृण धूलिपटलपरिमलामोदवाही, रणरकरसितापरान्तकान्त कुनतलोल्लनसंक्रान्त परिमलमिलितालिमालामधुरतरझंकर स्थलः वमुखरितनभः (146/148)
- वह (मलयपवन) सुरतक्रीड़ा विलास में आसक्त लाटप्रदेश की रमणियों के ललाटपटल पर लटकते हुए केशों के जूड़े में लगे हुए मौलश्री के पुश्पों की सुगन्ध के संयोग से बढ़े हुए मनोहर गुणों वाला था । वह कामकला समूह मे निपुण और सुन्दर कर्णाटक प्रदेश की युवतियों के मे स्तनकलश पर लगाये गये कुंकुमों ने धूलिकणों के सम्पर्क से अत्यन्त मनोहर गन्ध को धारण करने वाला था। वह उत्सुकता से उत्पन्न अनुराग वाली अपरान्त देशकी ललनाओं के केशों के हिलने के कारण संयुक्त गन्ध से एकत्रित भ्रमरपंक्ति की मधुर गुंजार से आकाशमण्डल को ध्वनित करने वाला था । वह नवयौवना के अनुराग से चंचल केरल प्रदेश की युवतियों के कपोलों पर पत्रावली बनाने में कुशल था । वह चौसठ कलाओं में निपुण तथा सौन्दर्य सम्पन्न मालवप्रदेश की युवतियों के नितम्ब मण्डल की धीरे-धीरे दबाने में चुतर था। वह काम क्रीड़ा के परिश्रम से थकी हुयी आन्ध्र प्रदेश की कामनियों के निविड विशाल स्तनों के पसीने की बूंदों के समूह ह से शीतल था । ऐसा मलयपवन बह रहा था। जो मंच चलते हुए काले अगरू की सुगन्ध से प्रसन्न मनोहर भ्रमरों के समूह के गुंजार से गुंजरित था, जो (दासियों की) प्रसन्नता के कारण हंसी के किरण समूह से शुभ्रता सम्पन्न था। जो अनेक प्रकार के परिहास कथन के समूह में कुलश और सजे-धजे लोगों से व्याप्त था जो जलते हुए गूगल इत्यादि सुगन्धित पदार्थो की सुगन्ध से आकर्षित नगर-उपवनों के भ्रमरसमूह से व्याप्त था जो नन्द नाम के अर्जुन के रथ की ध्वनि से ध्वनित दिशाओं वाले अर्जुन के युद्ध के समान पादध्वनि से ध्वनित दिशाओं वाला था । जो (अन्य) राजाओं द्वारा दिये गये उपहारों से सम्पन्न राजभवन के समान राजा द्वारा दिये गये उपहारों से समन्वित था।
- आदर्शवादी व्यक्तियों के लिए कुछ सीमा तक गीत नृत्य आदि कलाएं भोग की सामग्री मानी जाती हैं। विशेषकर उस अवस्था में जब देश परतन्त्रता की बेड़ी से जकड़ा हुआ है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि संगीत-नृत्य तथा नाट्यकला आदि के प्रति पर्याप्त अभिरूचि प्रदर्शित की है । ये नाटककार प्रायः सामन्ती संस्कृति से प्रेरित एवं प्रभावित रहे है और दूसरी ओर ये कला संचेतना से परिपूरित भी प्रतीत होते हैं उनके नाटक वस्तुतः आधुनिक कला चेतना के प्रमाण है।
5. वासदवदत्ता पाककला-
- वासदवदत्ता में भोजन तथा भोजन के प्रकार का विवरण मिलता हैं मकरन्द अपने मित्र कन्दर्पकेतु के लिए फल-फूल खाने के लिए लाता है जब दोनों प्रेमी भागते हुए विन्ध्य जंगल मे पहुंचते है और थककर वह लताकुंज में सो जाते है । प्रातःकाल जब कन्दर्पकेतु सोया ही था वासवदत्ता उसके लिए फल इत्यादि लाने जंगल में चली जाती है।
6. वासदवदत्ता में प्रसाधन एवं वेश-भूषा
- गद्यकाव्यकारों ने किसी जाति तथा वर्ग विशेष की वेशभूषा की विस्तृत चर्चा न करके मात्र संकेत किया है, जैसे-स्वतंत्र युवतियां सुरतोचित वेश, राजकुमार के वेशमें कन्दर्पकेतु, राजकुमारी के वेश में वासवदत्ता मित्र के वेश में मकरन्द, पथिक के वेश में किरात, पक्षी के वेश में शुकसारिका सुन्दर पोशाक पहने हुए दूर-दूर से आये हुए राजकुमार स्वयंवर में सुशोभित हो रहे
वासदवदत्ता में आभूषण -
प्राचीन काल से ही व्यक्ति सौन्दर्य प्रेमी रहा है। वह शरीर को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के वस्त्रों के अतिरिक्त अनेक प्रकार का प्रयोग करता है।
1. कुण्डल -
- उत्तंक नामक वेद का शिष्य, अपनी गुरुपत्नी के लिए जनमेजय के यहां मणिकुण्डल मांगने जाता हैं वासवदत्ता में कन्दर्पकेतु कुण्डल धारण करता है। इसी प्रकार 'कुलीनता' में प्रत्येक पुरुष पात्र कुण्डल धारण करता है। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता है कि कुण्डल भारत का अतिप्राचीन अलंकार है। संस्कृत महाकाव्यों में यह कुण्डल अत्यन्त लोकप्रिय आभूषण रहा है जिसे स्त्री पुरुष दोनों धारण करते हैं वाल्मीकि रामायण में अयोध्या का तो प्रत्येक नागरिक कुण्डल धारण करता है। कवि कालिदास ने भी कुण्डल पहनने का चित्रण किया है। हार, केयूर, वलय, मुद्रिका तथा नुपूर- केयूर, नूपुर, भुजबन्ध, कंकण का व्यवहार प्राचीनकाल से शुरू हो गया था। हनुमान जी ने लंका जाते समय देखा कि मैनाक पर्वत पर रहने वाली स्त्रियां गले में हार, पैरों में नूपुर, भुजाओं में केयूर धारण करके आकाश में पति के साथ विस्मिता होकर मुस्करा रही थी । वलय तो कालिदास में इतना प्रिय है कि उनके द्वारा चित्रित नगर निवासनी पहनती ही थी । आश्रमवासिनी शकुन्तला धातु के स्थान पर कमल नाल का वलय बनाकर पहनती है । इसी प्रकार आभूषणों में मुद्रिका कम प्राचीन नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि पहले इसका नाम मुद्रिका (अंगूठी) न होकर अंगुलीय था। उपर्युक्त आभूषणों का उल्लेख सबसे अधिक सेठ गोविन्ददास ने किया है। वासवदत्ता में बाजूबन्द ( बांह में पहनने वाले आभूषणाविशेष), गले में हार, माला से युक्त, केशविन्यास पैरों में नूपुर का उल्लेख किया गया है ।
7. वासदवदत्ता में पेय पदार्थ
- मद्य-भारतीय जन-जीवन में 'मद्य' पेय के रूप में अपनाया जाता रहा है तथा इसके साथ ही, इस पेय को वर्जित भी किया गया है। मनु ने इसकी तुलना पाप से की है।
- महाभारत में कहा गया है कि इसके पान से लज्जा और बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा मद्यप कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ध्यान छोड़कर इच्छानुसार कार्य करने लगता है। वह विद्वानों का आश्रय छोड़कर पाप को प्राप्त होता है और रूखा, कड़वा भयंकर बोलने लगता है। वासवदत्ता में भी सुरापान बतलाया गया हैं राजा लोग मद्यमापन करते थे। राजा के महल में रहने वाले प्रजाओं को भी सुरापान करते पाया गया है।
वासदवदत्ता के अन्य मादक पदार्थ-
- मद्य को छोड़कर मानव अनेक नशीली वस्तुओं का प्रयोग करता है। स्कन्दगुप्त में में धातुसेन कहता है- चाणक्य कुछ भांग पीता था । उसने लिखा है कि राजपुत्र भेड़ियां है, इसके पिता को दैव सावधान रहना चाहिए। विशाल में महापिंगल तो पूर्णतः भंगड़ी लगता है। विशाख की रानी तरला व्यंग्य में अपने पति से कहती है-इस बुढ़ापे में प्रेम की अफीम खाने चला है। वासवदत्ता में प्रेम बन्धनहीन चित्ततत्त्व की आनन्दमयी स्थिति है।