आश्रम व्यवस्था-ब्रह्मचर्य आश्रम गृहस्थ आश्रम सन्यास आश्रम
आश्रम शब्द का अर्थ
- आश्रम शब्द श्रम से बना हैं, जिसका अर्थ हैं मेहनत करना । आश्रम का अर्थ हैं श्रम करते-करते ठहरने का स्थान। इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि आश्रमों का अर्थ वे स्थान जहाँ जीवन-यात्रा करते हुए मनुष्य कुछ समय के लिए ठहरता हैं। प्रत्येक आश्रम जीवन में एक व्यवस्था हैं जिसमें कुछ काल तक प्रशिक्षण प्राप्त करके प्रत्येक व्यक्ति आगामी व्यवस्था के लिए अपने को तैयार करता हैं। इस व्यवस्था का अन्तिम उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करके प्रत्येक को मोक्ष कराना था । इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही व्यक्ति चारों आश्रमों में संयत और अनुशासनात्मक जीवन व्यतीत करता था। जिस व्यक्ति के सामने जीवन का लक्ष्य नष्ट न हो वह संयत जीवन नहीं व्यतीत कर सकता। समस्त मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की तैयारी था। इस प्रकार इन चारों आश्रमों में शेष तीन पुरुषार्थ धर्म, अर्थ और काम चौथे पुरुषार्थ मोक्ष के साधन मात्र थे।
- छांदोग्यउपनिषद में केवल तीन आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु बाद के उपनिषदों में चारों आश्रमों का वर्णन मिलता हैं। इसका यह अर्थ हैं कि प्रारम्भ में सन्यास को आश्रम नहीं माना जाता था । श्वेताताश्वर उपनिषद् के अनुसार सन्यासी ब आश्रमों से अलग हैं। सन्यासी सभी बन्धनों से मुक्त हैं, इसी कारण उसे किसी आश्रम में रखना आवश्यक नहीं समझा जाता था। धर्मसूत्रों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को क्रम से इन चारों के आश्रमों के नियमों का पालन करना चाहिए। कई सूत्रकारों की यह भी धारणा थी जिस व्यक्ति ने पहले तीन आश्रमों के नियमों का विधिपूर्वक पालन नहीं किया हैं वह मोक्ष के लिए प्रयत्न करने का भी अधिकारी नहीं माना जा सकता।
- कौटिल्य का मत है कि अहिंसा, सत्य, पवित्रता, ईर्ष्या न करना, दूसरे के अच्छे गुणों की प्रशंसा, दया और सहिष्णुता ऐसे गुण हैं जिनका सभी आश्रमों में अनुसरण करना चाहिए। राजा को उन हैं सभी को दण्ड देना चाहिए जो अपने आश्रमों में कर्तव्यों का पालन न करते हों क्योंकि वर्णाश्रम व्यवस्था न रहने से समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी और संसार नष्ट हो जाएगा और यदि व्यक्ति इन नियमों का पालन करेंगे तो समाज की उन्नति होगीं।
ब्रह्मचर्य आश्रम Brahmacharya Ashram
- धार्मिक विद्यार्थी के अर्थ में ब्रह्मचारी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में मिलता हैं। गायत्री मन्त्र से स्पष्ट हैं कि ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी के दो प्रमुख उद्देश्यों यथा बुद्धि का विकास और चरित्र के निर्माण का स्थान दिया गया था। इस आश्रम में बालक अपनी इच्छा और मनोभावों पर नियंत्रण करके अतीत के साहित्य को पढ़कर बड़ों का आदर करता तथा सादा जीवन व्यतीत करके उच्च विचारों को अपनाता था ।
- संस्कारों की विवेचना में यह उल्लिखित हैं कि उपनयन संस्कार से पूर्व जीवन अनुशासनहीन एवं अनियमित तथा निरुद्देश्य होता हैं। यह संसार मानव को नियमित जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता हैं। सभी मानव जन्मतः शूद्र उत्पन्न होते हैं। इस संस्कार से उसका दूसरा जन्म होता हैं। भारतीय ऋषियों का विश्वास था कि मनुष्य तीन ऋण लेकर पैदा हुआ है- ऋषियों के प्रति, परमात्मा के प्रति और पूर्वजों के प्रति । वेदाध्ययन द्वारा ही वह ऋषियों का ऋण चुकता कर सकता था। इस प्रकार वेदाध्ययन एक कर्तव्य था, इसके द्वारा मानव सामाजिक धरोहर को निरन्तर गतिशील बनाए रखता था ताकि यह ऋषियों द्वारा प्रदत्त साहित्य से आगे जाने वाली संततियों के जीवन में उत्साह भर सके और उनका उचित मार्गदर्शन कर सके। ध्यातव्य हैं कि उपनयन संस्कार के बाद बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था जिसका (उपनयन संस्कार) सबसे प्राचीन उल्लेख अथर्ववेद में मिलता हैं ।
शतपथ ब्राह्मण में उपनयन संस्कार की उन सभी विशेषताओं का उल्लेख हैं जो गृहसूत्रों में दी गई हैं। वे चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं।-
(1) विद्यार्थी की प्रार्थना पर गुरु उसको अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करता था ।
(2) आचार्य उस बालक को कुछ देवताओं के संरक्षण में देता था ।
(3) गुरु विद्यार्थी को वे व्रत और कर्तव्य बतलाता था जो गुरु के परिवार में रहते हुए उसे करने पड़ते थे यथा अग्नि में समिधाएँ लगाना, आचमन करना, और भिक्षा मांग कर लाना।
- (4) आचार्य बालक को उसकी वेशभूषा बतलाता था यथा मृगचर्म, मेखला, दण्ड आदि । गृहसूत्रों में दैनिक जीवन में उपयोगी कुछ अन्य शिक्षाएँ भी मिलती हैं यथा ब्रह्मचारी को वर्षा में बाहर नहीं निकलना चाहिए। जल में मूत्र नहीं करना चाहिए। गृहसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का आठ वर्ष की, क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होना चाहिए। इस संस्कार से पूर्व बालक को गायत्री मन्त्र पढ़ाया जाता था। एक ब्रह्मचारी को यज्ञोपवीत, मेखला और दण्ड धारण करना पड़ता था । जब आचार्य को यह विश्वास हो जाता था कि बालक वास्तव में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेगा तब वह उसे अपना शिष्य बना लेता था। ध्यातव्य हैं कि उपनयन संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इसलिए उसे 'द्विज' कहा जाता था । इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य यह था कि बालक जिस आश्रम में प्रविष्ट हो रहा है उसके उत्तरदायित्व को भली-भाँति समझ सके।
- इस संस्कार के बाद गुरु बालक को शरीर स्वच्छ रखने और सदाचार का जीवन बिताने के विषय में उपदेश देता था। उसे एक निर्धारित पोशाक पहननी पड़ती थी। उसकी दिनचर्या पूर्व निर्धारित होती थी। उसे गुरु के आश्रम में रहना पड़ता था तथा उसे आश्रम के सभी कार्यों में गुरु की सहायता करनी पड़ती थी। इस समय आचार्य को बालक का आध्यात्मिक पिता समझा जाता था। आचार्य का कर्तव्य था कि वह ब्रह्मचारी को सत्य का ठीक वह रूप बतलाए जैसा कि वह स्वयं समझता था। आचार्य शिष्य को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता था असतो मा सदगमय तमसोमाज्योतिर्गमय आचार्य ब्रह्मचारी से अपने पुत्र की भांति प्रेम करता था और बड़े ध्यान से आत्म-विद्या और धर्मशास्त्र पढ़ाता था। शिष्य भी संयम से खाता था, कम कपड़े पहनता था और गुरु से पहले उठता और बाद में सोता था । गौतम के अनुसार एक ब्रह्मचार को अपने जिह्वा, बाहुओं, और पेट पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए और अनुशासन में रहना चाहिए । ब्रह्मचार्य आश्रम में विद्यार्थी बौद्धिक विकास के साथ-साथ अपना नैतिक विकास भी करना चाहिए। उसे देवताओं और अतिथियों के प्रति भी अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए।
- इस काल में विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना पड़ता था, इसके बिना बौद्धिक और नैतिक उन्नति असम्भव थी । इस समय ब्रह्मचारी के तीन प्रमुख कर्तव्य थे यथा वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय, आचार्य, आचार्य की सेवा और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन । इस आश्रम में मन, वचन, कर्म से सत्य और धर्म का पालन आचार्य, माता-पिता और अतिथियों की सेवा, ईश्वर के प्रति विश्वास और उदारता आदि के गुणों के विकास पर बहुत बल दिया जाता था।
- शिक्षा की समाप्ति पर आचार्य शिष्य को उपदेश देता था कि सत्यं वद धर्मं चर अर्थात् सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो। स्वाध्याय से प्रमाद मत करो। अपनी कुशलता का ध्यान रखो। ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो। देवताओं और पूर्वजों के प्रति कर्त्तव्य की उपेक्षा मत करो । अपने माता-पिता, आचार्य और अतिथि को देवता के तुल्य समझो। मेरे अच्छे कर्म हैं उन्हीं का अनुसरण करना, दूसरे कर्मों का नहीं। उपरोक्त उक्तियों से स्पष्ट हैं कि वैदिक काल में ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे वह विद्योपार्जन में सफल होकर भावी गृहस्थ जीवन भी इस प्रकार व्यतीत करे कि वह समाज का उपयोगी सदस्य बनकर समाज की उन्नति में सहायक हो सके।
- मनु ने भी ब्रह्मचारियों की पोशाक, भिक्षा मांगकर लाने के कर्त्तव्य, उसे गुरु को देने के पश्चात् शेष भोजन में से स्वयं कम भोजन करने आदि का वर्णन किया हैं। उनके अनुसार पोशाक में ब्राह्मण के लिए सन का वस्त्र, क्षत्रिय के लिए रेशम का और वैश्य के लिए ऊन का वस्त्र पहनने की अनुमति दी गई हैं। इससे स्पष्ट होता हैं कि जितना ही उच्च वर्ण का बालक होता था उतना ही मोटा या खुदरा कपड़ा उसे पहनना पड़ता था। विद्यार्थी यज्ञोपवीत और डंडा धारण करता था । ब्रह्मचारी न तो अपने शरीर पर किसी प्रकार के तेल की मालिश आदि करता, न आँखों में सुरमा लगाता था, न इत्र, न छतरी और न जूता धारण करता और न संगीत, वाद्य, नृत्य, जुआ और गपशप में भाग लेता । इस समय यह आवश्यकता से अधिक स्त्रियों से बात नहीं करता था और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था। उसे सत्यभाषी, नम्र और संयमी होना पड़ता और काम, क्रोध व लोभ से मुक्त रहना पड़ता था। वह किसी प्रकार कि प्रति हिंसा का व्यवहार नहीं करता था। मनु के अनुसार एक ब्रह्मचारी को सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिए। वह किसी दिन वह सूर्योदय के बाद ही उठे तो उसे उपवास रखना चाहिए और गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। इस समय वह दोनों समय संध्या करता और शरीर की शुद्धि के लिए स्नानादि करने के नियमों का सहीपूर्वक पालन करता। एक ब्रह्मचारी बड़ी सावधानी से आचार्य के प्रवचन सुनता, कम भोजन करता, सादी पोशाक पहनता, गुरु से पहले उठता और बाद में सोता था। वह कभी भी गुरु की निन्दा नहीं सुनता था । उपरोक्त उक्तियों से स्पष्ट हैं कि ब्रह्मचारी आचार्य का बहुत आदर करता था । याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट कहा हैं कि ब्रह्मचारी को स्वाध्याय करने के लिए आचार्य की सेवा करनी चाहिए। सदा सावधानी से उसके कथन को सुनना चाहिए और मन, वचन और शरीर से गुरु के हित एवं उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए। केवल शिक्षा समाप्त होने के बाद एक ब्रह्मचारी अपनी सामर्थ्यानुसार गुरु-दक्षिणा देता था। विद्या प्राप्ति के इच्छुक ब्रह्मचारी निश्चय ही पूर्ण अनुशासन में रहते थे। समाज के किसी भी वर्ग का चाहे अमीर वर्ण का हो या निर्धन वर्ण का प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। इस समय प्रत्येक द्विज का यह पवित्र कर्तव्य था कि वह वेदों का अध्ययन करे और शरीर से गुरु के हित एवं उन्नति का प्रयत्न करे ।
- विद्यार्थी भौतिक सुखों का कम से कम उपयोग करता था और सादा जीवन व्यतीत करता था क्योंकि जीवन की यह पद्धति ही यौवनावस्था के प्रबल वेग को रोकती थी। मनु के अनुसार जिस विद्यार्थी ने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है यदि वह केवल गायत्री मन्त्र जानता हैं तो वह उस ब्रह्मचारी से अच्छा हैं जो चारों वेदों को जानने वाला हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता। उसी ने लिखा हैं कि बिना चरित्र निर्माण के ज्ञान की प्राप्ति व्यर्थ हैं और चरित्र निर्माण के लिए इन्द्रियों को वश में करना अनिवार्य हैं। जिस विद्यार्थी के मन और वाणी पवित्र हैं और सदा सुरक्षित रहते हैं वही वेदाध्ययन का पूर्ण लाभ उठा सकता हैं।
- ब्रह्मचर्य आश्रम चारों पुरुषार्थों में धर्म का सबसे अधिक महत्त्व समझा जाता था । एक ब्रह्मचारी धर्म के द्वारा काम और अर्थ पर नियन्त्रण रखता था। उसका प्रमुख उद्देश्य यह था कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्त करे कि भावी जीवन में वह अपने धर्म का पालन कर सके जिससे कि गृहस्थाश्रम में वह देवताओं, ऋषियों, और पूर्वजों के ऋणों से उऋण हो जाये और अतिथियों की सेवा शुश्रूषा करके अन्य मानव के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर सके। इस प्रकार ब्रह्मचारी इस आश्रम में शिक्षा प्राप्त करके और निर्दिष्ट नैतिक नियमों का पालन करके ही धर्म का पालन करता था । इस प्रशिक्षण के द्वारा ब्रह्मचारी के जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष का भी महत्त्व स्पष्ट झलकता हैं।
गृहस्थ आश्रम Grihastha ashram
विद्या समाप्ति के बाद एक ब्रह्मचारी अपने घर लौटता था जिसे समावर्तन कहा जाता था। इसके बाद वह ब्रह्मचर्य के व्रतों से मुक्त होने के लिए स्नान करता था तब इस स्थिति में उसे स्नातक कहते थे। एक स्नातक जब अपने बालकों, मित्रों व पड़ोसियों के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करता था। इस प्रकार वह एक योग्य नागरिक बना जाता था। गृहस्थ के दैनिक कर्त्तव्यों में पंच महायज्ञों यथा देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ की विशेष महत्ता थी । इन यज्ञों के द्वारा वह एक गृहस्थ के रूप में अपने परिवार और समाज के प्रति सभी कर्तव्यों का निर्वहन करता था जो इसके निजी कल्याण का कारक था। ऋग्वेद में एक गृहस्थ हेतु गृहपति शब्द का प्रयोग किया गया है। इस समय एक गृहस्थ के तीन प्रमुख कर्तव्य थे यथा यज्ञ, अध्ययन व दान । इस प्रकार यज्ञ करके देवताओं का अध्ययन (वैदिक ग्रन्थें का) करके ऋषियों का तथा सन्तान पैदा करके वह अपना ऋण चुकता करता था। कौटिल्य का मत है कि राजा का उन सभी को दण्डित करना चाहिए जो परिवार के कर्त्तव्यो को पूरा न कर सकें। उन्होंने यह भी कहा कि एक राजा को उन सन्यासियों को गांवों में प्रवेश नहीं देना चाहिए जो उन्हें ऐसा बनने के लिए प्रेरित करते हैं। बौधायन धर्मसूत्र में गृहस्थों को दो प्रकारों में बांटा गया है यथा शालीन व यायावर। इनमें शालीन का अपना घर व संतति होती थी जबकि यायावर सम्पत्ति अर्जित करने के अभिलाषी थे ।
- महाभारत में यह उक्ति स्पष्ट रूप से कही गई हैं कि गृहस्थ जीवन से ही मानव अपने जीवन का लक्ष्य पूरा कर सकता हैं। महाभारत के रचनाकार द्वैपायन व्यास का कहना हैं कि एक गृहस्थ के रूप में पूर्ण जीवन व्यतीत कर तथा इस आश्रम के कर्तव्यों को पूरा करके प्रशिक्षण प्राप्त करना शास्त्रसम्मत श्रेष्ठ धर्म माना जाता हैं। इसी आश्रम में एक मानव तीनों पुरुषार्थों यथा धर्म, अर्थ व काम का पालन कर मोक्ष की तरफ आगे बढ़ सकता हैं। इस प्रकार मानव जीवन के व्यक्तिगत व सामाजिक सभी उत्तरदायित्वों की पूर्ति इसी आश्रम में रहकर कर सकता हैं।
- मनुस्मृति में यह कहा गया हैं कि जिस प्रकार वायु के सहारे मानव जीवित रहते हैं उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ पर निर्भर हैं क्योंकि शेष तीनों आश्रमवासियों का पोषण अन्न व ज्ञान के द्वारा एक गृहस्थ के द्वारा ही हो पाता हैं। यही कारण हैं कि उत्तरदायित्वों की पूर्ति इसी आश्रम में के रहकर कर सकता हैं।
वानप्रस्थ आश्रम Vanprastha Ashram
- ताण्ड्य महाब्राह्मण में सर्वप्रथम इस आश्रम का उल्लेख मिलता हैं। जब मनुष्य के सिर के बाल सफेद हो जाते थे व शरीर पर झुर्रियां पड़ जाती थीं तब वह इस आश्रम में प्रवेश करता था । इसका अभिप्राय यह हैं कि वह इस अवस्था तक यह भली-भाँति समझ जाता था कि इन्द्रियों के सुख स्थायी नहीं हैं, इसलिए वह जीवन के प्रमुख लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हेतु वन जाने का निश्चय करता था। इस आश्रम में मनुष्य अपने परिवार, घर व गांव को त्याग कर वन में जाकर रहता था । इस समय उसका प्रमुख उद्देश्य इन्द्रियों को अपने वश में करना था । वह किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करता था । वह ब्रह्मजीवन व्यतीत करता था, वर्षाऋतु में एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाता था, , केवल भिक्षा हेतु गांव की यात्रा करता था तथा एक गांव में एक रात से अधिक नहीं रहता था। शरीर पर केवल कौपीन धारण करता था, पौधे से फल-फूल नहीं तोड़ा करता था तथा भोजन हेतु बीजों को नष्ट नहीं करता थ। वह अपने भोजन हेतु गृहस्थों पर आश्रित रहता था । इस आश्रम में वह कन्दमूल खाकर अपना जीवन बिताता था। वह कम से कम वस्त्रों का उपयोग करता था तथा जमीन पर शयन करता था। वह तपस्या करके अपने शरीर के प्रति उदासीनता जागृत करता था। इस प्रकार संयम का जीवन आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक था ।
- आत्म-नियंत्रण के साथ-साथ वह दूसरे व्यक्तियों के साथ आत्मीयता का त्याग नहीं करता था । समस्त प्राणियों के प्रति वह दया-भाव रखता था। इसी क्रम में कण्व ऋषि ने शकुन्तला का लालन-पालन किया तथा वाल्मीकि ने सीता का भरण-पोषण तथा लव-कुश का भरण-पोषण किया । वे दोनों उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हैं कि वानप्रस्थी अपने परिवार, ग्राम या नगर की सदस्यता से मुक्त होकर भी समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से मुक्त नहीं हो पाता था। उसके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नति में ही नहीं मानी जाती थी। इसके लिए उसे समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को भी पूरा करना पड़ता था । जीवन की सादगी, वन की शान्ति और स्वतन्त्रता उसे अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए उचित वातावरण का निर्माण करती थी।
- बौधायन धर्मसूत्र में वानप्रस्थ के दो प्रकार बतलाए गए हैं- 'पंचमानक' जो स्वयं भोजन पकाकर खाते थे और अपचमानक जो अपना भोजन नहीं पकाते थे । दूसरा वर्ग केवल शाक और फल खाकर उदर पूर्ति करता जबकि माँस और मिठाई से परहेज करता था । बहुत भूखा होने पर भी खेतों में होने वाले अन्न और फल-फूल नहीं खाता था। वह मृगचर्म या वृक्षों की छाल का सदैव कपड़ों के रूप में प्रयोग करता था । वह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता और वृक्ष के नीचे ही निवास करता था। इस आश्रम में भी वह उन पाँच महायज्ञों को करता जो वह गृहस्थाश्रम में करता था। वह अतिथियों को भी उसी भिक्षा में से भोजन कराता था जो वह अपने लिए लाता था । वह अपना अधिकतर समय वेदों, उपनिषदों का स्वाध्याय करने और तप करने में लगाता था जिससे कि उसका शरीर पवित्र हो जाये तथा वह आध्यात्मिक उन्नति कर सके। इस आश्रम में रहकर वह सभी प्राणियों के साथ दया का व्यवहार करता था। मनु के मतानुसार यदि किसी व्यक्ति की वानप्रस्थ आश्रम के कर्त्तव्यों का पालन करते हुए मृत्यु हो जाए तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता हैं ।
- पैरवानस धर्मसूत्र (तीसरी सदी ई.) में वानप्रस्थों के दो भेद बतलाए गए हैं- सपत्नीक और अपत्नीक । इसका अर्थ हैं कि इस आश्रम में कुछ व्यक्ति पत्नी सहित भी रहते थे किन्तु वे सांसारिक बन्धनों से मुक्त रहने के लिए गांव या नगर छोड़कर वन में रहते थे और किसी अनावश्यक वस्तु का संग्रह नहीं करते थे। वे समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए इस आश्रम में भी दैनिक पंचमहायज्ञ करते थे। परन्तु उनका अधिकतर समय स्वाध्याय और मनन में व्यतीत होता था जिससे कि उन्हें आध्यात्मिक शान्ति मिल सके। परन्तु वे समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं करते थे और अपने मनन के आधार पर जनता को उपदेश देकर उनको सन्मार्ग बतलाते थे। इस प्रकार इस आश्रम में मनुष्य विशेषतया धर्म और मोक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित करता था। उसके लिए अर्थ और काम का आश्रम में काई महत्त्व नहीं था ।
सन्यास आश्रम Sanyas Ashram
- ऐतरेय ब्राह्मण में आश्रमों का वर्णन मिलता हैं किन्तु इस आश्रम का उसमें स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं। उपनिषद् काल में परिव्राजक या सन्यासी विद्यमान थे। ऐसा प्रतीत होता हैं कि पाणिनि (लगभग 500ई0पू0) के समय से पूर्व ही चार आश्रमों की व्यवस्था पूर्णरूप से स्थापित हो गई थी । वानप्रस्थ आश्रम के बाद मनुष्य इस आश्रम में प्रवेश करता था अर्थात् वह इसमें सांसारिक जीवन का पूर्णरूप से त्याग करता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकारके अनुसार मनुष्य गृहस्थाश्रम में सीधा बिना वानप्रस्थ आश्रम में रहे भी संन्यासी हो सकता था। संन्यासी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता था। वह किसी पर आश्रित भी नहीं रहता था। उसे दिन में एक बार भिक्षा माँगने का अधिकार था। वह जीवन और मृत्यु से उदासीन रहता था। वह कठोर वचन धैर्यपूर्वक सुनता तथा मोह और घृणा का पूर्णरूपेण त्याग कर देता था। प्रत्येक वस्तु से छुटकारा, उद्देश्य की दृढ़ता, ब्रह्म में आत्मा और उसका चिन्तन करके, वह मुक्ति के परम सुख की कामना करता था। वह (संन्यासी) केवल अपना ही कल्याण नहीं चाहता अपितु वह अपने जीवन के उदाहरण से, और अपनी शिक्षाओं द्वारा समाज की अच्छी वृत्तियों को प्रोत्साहित करता था ।
- जिन व्यक्तियों के पास वह भिक्षार्थ जाता था अपने व्यवहार और शिक्षाओं से वह उनके जीवन को प्रभावित करता था। वह अपनी मानवता से उन सभी व्यक्तियों का मार्गदर्शन करता था जो उसके पास इच्छा से जाते थे। यह वह श्रेष्ठ पुरुष था जिसके समक्ष व्यक्ति स्वतः ही झुक जाता था । सत्य, असत्य, सुख, दुःख इस संसार और परलोक की परवाह न करके वह केवल आत्मा की खोज में लग जाता था । हिन्दुओं का यह दृढ़ विश्वास था कि इस प्रकार उस व्यक्ति के सभी पाप धुल जाते हैं तथा वह जीवन के विविध लक्ष्यों को प्राप्त कर लेता हैं।
पांडुरंग वामन काणे ने वानप्रस्थ और सन्यास में प्रमुख रूप से तीन भेद बतलाए हैं
1.वानप्रस्थी सपत्नीक भी हो सकता था किन्तु सन्यासी सपत्नीक नहीं हो सकता था ।
2. वानप्रस्थी यज्ञ की अग्नि रखते थे और यज्ञ करते थे किन्तु संन्यासी अग्नि का त्याग कर देते थे।
3. वानप्रस्थी तपस्वी का जीवन व्यतीत करते थे तथा आहार आदि का क्लेश सहन करते थे किन्तु सन्यासी भूख व प्यास की परवाह न करके केवल परम तत्त्व का चिंतन करने में अपना समय बिताता था। इस आश्रम में संन्यासी केवल मोक्ष की प्राप्ति के लिए पूर्ण प्रयत्न करता हैं । इस आश्रम में धर्म और मोक्ष का समन्वय हो जाता हैं। कौटिल्य के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति को सभी आश्रमों में सबके साथ अहिंसा का व्यवहार करना चाहिए और सत्य, पवित्रता आदि गुणों का आचरण करना चाहिए तथा ईर्ष्या और निर्दयता से सदैव बचना चाहिए । धैर्य से काम करना चाहिए और दूसरे के अच्छे गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए।