बाणभट्ट का जीवन परिचय- गद्य कवि बाण - जीवन एवं कृतित्त्व
बाणभट्ट का जीवन परिचय (Banabhatt ka jivan parichay)
➽ हर्षचरित प्रारम्भिक उच्छवासों से बाणभट्ट के जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। वे वत्सगोत्रीय ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम चित्रभानु और माता का नाम राजदेवी था। बाण की माता का निधन उनकी वाल्यावस्था में ही हो गया था। बालक बाणभट्ट का पालन-पोषण उनके पिता चित्रभानु ने किया। जब बाण की आयु चौदह वर्षकी थी तभी दुर्भाग्य से उनके पिता का भी देहावसान हो गया। इसके पूर्व ही उनके पिता ने बाण के सभी ब्राह्मणोचित संस्कार यथासमय शास्त्रसम्मत रीति से अपनी कुलपरम्परा के अनुसार सम्पन्न करा दिया था। बचपन में ही बाण के सिर से माता-पिता के हाथों की छाया उठ जाने से बाण अत्यन्त सन्तप्त हो गये किन्तु काल प्रभाव से जब शोक कम हुआ तो बाण में सहज चपलता पूरी तरह घर कर गयी । पिता, पितामहादि के द्वारा अर्जित और संचित धन-वैभव प्रभूत मात्रा में था । अतः बाण की मित्र-मण्डली खूब जम गयी और वे उन सबके साथ देशाटन के लिए घर से निकल पड़े । इस तरह विभिन्न स्थलों का भ्रमण करने के पश्चात् वे अपनी जन्मभूमि में वापस आ गये।
➽ हर्षचरित के अनुसार, ग्रीष्मकाल में एक दिन महाराज हर्ष के भाई कृष्ण ने बाण को बुलवाया बहुत विचार करके युवक बाण ने वहाँ जाने का निश्चय किया। प्रातः काल तैयार होकर वे अपने ग्राम प्रीतिकूट से निकले । प्रथम दिन मल्लकूट तथा दूसरे दिन यष्टिग्रहक नामक ग्राम में रात बिताने के पश्चात् तीसरे दिन मणितार के समीप अजिरवती के तट पर स्थित महाराज हर्षदेव के स्कन्धावार में पहुँचे तथा राजभवन के समीप ही निवास किया।
➽ सायंकाल बाणभट्ट महाराज हर्ष से मिलने पहुँचे। प्रथमतः
उन्होंने हर्षके हाथी 'दर्पशात' को देखा और तब
राजभवन में प्रविष्ट होकर हर्षके दर्शन किये । किन्तु 'यह वही भुजंग बाण
है' कहकर हर्ष ने बाण
से बात नहीं की। बाण ने अपनी भुजंगता (लम्पटता) के भ्रम को मिटाने के लिए अपनी ओर
से पर्याप्त स्पष्टीकरण दिया किन्तु हर्ष उन पर प्रसन्न न हुए फिर भी हर्ष के
प्रति बाण के हृदय में श्रद्धा भर गयी। वे राजभवन से निकलकर अपने मित्रों के यहाँ
रूक गये। राजा ने धीरे-धीरे बाण के सम्बन्ध में अच्छी तरह पता किया और उनके
वैदुष्य तथा ब्राह्मणोचित स्वभाव से परिचित होने पर प्रसन्न हो गये। पुनः बाण
राजभवन में प्रविष्ट हुए तो राजा ने उन्हें प्रेम, मान, विश्वास और धन की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। महाराज हर्ष के
साथ बहुत समय तक रहकर बाण पुनः अपनी जन्मभूमि प्रीतिकूट को लौट आए।
➽ बाणभट्ट विवाहित थे । बाण के पुत्र का नाम भूषणभट्ट या पुलिनभट्ट था। इस नाम के विषय में के ऐकमत्य नहीं है । भूषणबाण, पुलिन्द, पुलिन्ध्र या पुलिन नाम भी कहे जाते हैं। कादम्बरी विषयक एक जनश्रुति के अनुसार बाणभट्ट के दो पुत्र । बाण के चन्द्रसेन और मातृशेण नामक दो भाई भी थे।
➽ बाणभट्ट के गुरु का नाम
भत्सु या भर्वु था। इनके अन्य भी पाठभेद पाये जाते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि गुरु
का सही नाम क्या था? वल्लभदेव की 'सुभाषितावली' में 'भश्चु’ द्वारा निर्मित
श्लोक उद्धृत किये गये हैं। महाराजा हर्ष के यहाँ लौटने के पश्चात् अपने
बन्धु-बान्धवों के आग्रह पर बाणभट्ट ने महाराज हर्षवर्धन का चरित सुनाया था
(अर्थात् अपनी अलंकृत गद्य शैली में 'हर्षचरित' की रचना की) इसके पश्चात् बाण के शेष जीवन का वृत्त उपलब्ध
नहीं होता। हाँ, किंवदन्ती है कि
बाण 'कादम्बरी' को पूरी नहीं कर
सके थे और मृत्यु शैया पर पड़ गये। अपने जीवन के अन्तकाल में उन्होंने अपने दोनों
पुत्रों को बुलाकर पूछा कि कादम्बरी कौन पूरी करेगा ? दोनों पुत्रों ने
इसके लिए हामी भरी। तब उन्होंने कादम्बरी के अनुरूप भावकल्पना और भाषा-प्रयोग के
सम्बन्ध में परीक्षा लेकर भूषणभट्ट या पुलिनभट्ट को कादम्बरी पूर्ण करने की आज्ञा
दी ।
➽ बाण का समृद्ध ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। महाराज हर्ष ने भी उन्हें पर्याप्त धन प्रदान किया था । अतः भोग-ऐश्वर्य की प्रचुर सामग्री उन्हें उपलब्ध थी। इस तरह उन्हें किसी भी प्रकार का अभाव न था और उनका जीवन आर्थिक दृष्टि से निरापद एवं सुखमय था। बाण और मयूर के सम्बन्ध की चर्चा अनेकत्र प्राप्त होती है। बाण की मित्रमण्डली में स्त्री-पुरुष मिलाकर प्रायः चालीस की संख्या में तरह-तरह के लोग थे। इनमें से एक विषवैद्य 'मयूरक' भी था । मित्रों के नाम और उनके गुण वैशिष्ट्य का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि ये नाम उनके गुणों के आधार पर रख दिये गये थे (यथा - विषवैद्य मयूरक, पुस्तक वाचक सुदृष्टि, स्वर्णकार चर्मकर लोग साला आदि) । किन्तु जिस मयूर के साथ बाण के मैत्री सम्बन्ध की चर्चा मिलती है, वे हर्ष के सभाकवि के रूप में जाने जाते हैं कुछ लोग मयूर को बाण का श्वसुर और कुछ कहते हैं प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित 'प्रभावकचरित' में बाण और मयूर का श्लोकबद्ध आख्यान मिलता है। तद्द्रुसार मयूर ने विद्वान् कवि युवक बाण के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया था। एक बार बाण अपनी रूठी हुई पत्नी को मना रहे थे चूँकि बाण पद्य-कवि नहीं थे अतः एक श्लोक की तीन पंक्तियाँ ही बराबर दुहरा रहे थे, चौथी पंक्ति नहीं बन पा रही थी। बाहर उनसे मिलने के लिए आये हुए मयूर खड़े थे। उनसे नहीं रहा गया और उन्होंने श्लोक के भावानुरूप चौथी पंक्ति बनाकर ऊँचे स्वर में कह दी। इस पर पिता का स्वर पहचाने बिना बाण की पत्नी ने चौथी पंक्ति बनाने वाले उस व्यक्ति को मान-रस-भंग करने के अपराध के लिये कुष्ठ होने का शाप दे दिया । बाद में अपने पिता को तत्काल कुष्ठ हुआ देखकर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। फिर मयूर ने 'सूर्यशतक' की रचना करके भगवान सूर्य की आराधना की और उनके प्रभाव से कुष्ठ रोग से मुक्त हो गये । मयूर की काव्यात्मक स्तुति का अद्भुत प्रभाव देखकर बाणभट्ट ने भी अपना प्रभाव प्रकट करने के लिए अपने हाथ-पैर काट डाले और देवी चण्डिका की स्तुति की। भगवती की अनुकम्पा से बाण पुनः पूर्ववत् कमनीय भक्तों वाले हो गये। बाणभट्ट द्वारा विरचित 'चण्डीशतक' प्राप्त होता है। 'प्रबन्धचिन्तामणि' में भी इसी प्रकार का बाण मयूर विषयक आख्यान मिलता है। अन्यत्र भी इस विषय में संकेत प्राप्त होते हैं। आचार्य मम्मट ने भी काव्यप्रकाशमें मयूर के सम्बन्ध में संकेत किया है
2 बाणभट्ट का स्थितिकाल समकाल
➽ संस्कृत साहित्य के जिन कवियों के स्थितिकाल का निर्धारण अत्यन्त दुष्कर है, महाकवि बाणभट्ट उनमें से नहीं है। अन्तः साक्ष्यों के आधार पर बाणभट्ट के स्थितिकाल का निर्धारण सरलता से हो जाता है। सम्राट हर्षवर्धन के साथ बाणभट्ट का संबंध ऐतिहासिक प्रमाणों से पुष्ट है। बाण, हर्ष की सभा के सम्मानित सदस्य थे। हर्षवर्धन का शासनकाल 606 ई० से 647 ई. तक था।
➽ बाणभट्ट का समय सातवीं शताब्दी ई० निश्चित ही है। चीनी यात्री ह्वेनसांग 629 ई० से 645 ई० तक भरत में रहा और उसने अपने यात्रा - विवरण में हर्षवर्धन और उनकी राज्यव्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। बाण ने भी हर्ष के जीवनवृत्त का कुछ अंश साहित्यिक रीति से हर्षचरित में सन्निविष्ट किया है। दोनों वर्णनों की तात्विक तुलना करने पर सिद्ध होता है कि दोनों द्वारा वर्णित हर्ष एक ही हैं। बाणभट्ट के समय सम्बन्ध में बर्हिः साक्ष्यों पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा।
➽ क्षेमेन्द्र (11वीं शताब्दी ई०) ने अपने रचनाओं में अनेकश: बाण का उल्लेख किया है। भोजराज अपने सरस्वती कण्ठाभरण में बाण की रचनाओं से उदाहरण देते हैं भोजराज भी 11वीं शताब्दी ई० के पूर्वार्द्ध में शासन करते थे ऐसा प्रमाणों से पता चलता है सोड्ढल ने उदयसुन्दरीकथा में कई श्लोकों में बाण की प्रशंसा की है। सोड्ढल का समय प्रायः 1000 ई० है आचार्य धनंजय (10 वीं शताब्दी ई० का उत्तरार्ध) ने कादम्बरी और बाण का उल्लेख कई बार किया है।
➽ धनपाल ने भी 'तिलकमंजरी' वाणभट्ट और उनकी कृतियों-हर्षचरित तथा कादम्बरी की प्रशंसा की है। धनपालका का समय भी 10वीं शताब्दी का उतरार्ध है। त्रिविक्रम भट्ट ने ‘नलचम्पू' का रचनाकाल 10वीं शताब्दी ई० का पूर्वाद्ध है। आन्दवर्धन-कृत ‘ध्वन्यालोक’ में बाण और कादम्बरी का उल्लेख हुआ है। उसमें 'हर्षचरित' के भी उद्धरण प्राप्त होते हैं। आनन्दवर्धन कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मा के समकालिक थे जिनका शासनकाल 855 ई॰से 884 ई॰ तक था ।
➽ अभिनन्द का समय नवीं शताब्दी ई० का पूर्वार्द्ध है। अभिनन्द ने 'कादम्बरीकथासार' की रचना की है जिसमें कादम्बरी-कथा संक्षेपतः श्लोकबद्ध निबद्ध है। आचार्य वामन ने अपनी काव्यलंकारसूत्रवृति' में कादम्बरी से उद्धरण दिये हैं । वामन का स्थितिकाल 800 ई. के आसपास माना जाता है। प्रकाशवर्ष ने अपने रसार्णवालंकार में बाण का उल्लेख किया है। प्रकाशवर्षका समय सातवीं शताब्दी ई. का उत्तरार्ध है।
➽ उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर हमें यह ज्ञात होता है कि बाणभट्ट का उल्लेख तथा उनकी कृतियों से उद्धरणों का प्रयोग सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही किया जाने लगा था अतः बाणभट्ट के स्थितिकाल की पूर्व सीमा सातवीं शताब्दी ई० के पश्चात् कथमपि नहीं रखी जा सकती । सम्प्रति अन्तः साक्ष्यों का अवलोकन कर उन पर भी विचार कर लेना समीचीन होगा। बाणभट्ट की कृतियों में अनेक लेखकों और ग्रंथों का उल्लेख प्राप्त होता है। कादम्बरी और हर्षचरित में रामायण और महाभारत (वाल्मीकि और व्यास) का उल्लेख हुआ है। ये दोनों आर्ष महाकाव्य निश्चित रूप से ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व विरचित हो चुके थे ।
➽ हर्षचरित में महाकवि (नाटककार) भास का उल्लेख हुआ है। भास का समय ई० पूर्व चतुर्थ पंचम शताब्दी माना जाता है। कादम्बरी में 'अर्थशास्त्र' के प्रणेता कौटिल्य का नामोल्लेख किया गया है । अर्थशास्त्र की रचना ई० पू० 321 से 300 के मध्य की गयी होगी। हर्षचरित में महाकवि कालिदास की सूक्तियों की प्रसंशा बाण ने मुक्तकण्ठ से की है। अधिकांश विद्वान कालिदास का समय ई॰ पू॰ प्रथम शताब्दी मानते हैं। कुछ विद्वान कालिदास को गुप्तकाल ( 350 ई. से 450 ई. के मध्य) में मानते हैं। बाणभट्ट ने गुणाढ्यकृत 'बृहत्कथा' का प्रशंसार्य हर्षचरित में की है। 'बृहत्कथा' अब उपलब्ध नहीं है किन्तु बाणभट्ट ने अवश्य ही इसका अवलोकन किया होगा ।
➽ 'बृहत्कथा' की रचना पैशाची
प्राकृत में की गयी थी । 'बृहत्कथा' पर आधारित
कथासरित्सागर' (सोमदेव) और 'बृहत्कथामऋजरी' (क्षेमेन्द्र) दो
ग्रंथ में पद्दात्मक रूप में उपलब्ध होते हैं। उनसे तुलना करने पर प्रतीत होता है
कि बाणभट्ट की 'कादम्बरीकथा’ अवश्य ही
बृहत्कथा की वस्तु और रचनाशिल्प से प्रभावित है। बृहत्कथा का रचना काल प्रथम
शताब्दी ई० अनुमानित है । हर्षचरित में ही बाण ने सेतुबन्धु' के रचयिता
प्रवरसेन का उल्लेख किया है। यह प्रवरसेन वाकाटक वंश के राजा प्रवरसेन द्वितीय हैं, जिनका समय पांचवी
शताब्दी ई० है।
➽ उपर्युक्त प्रमाणों की समीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि बाण ने अपनी रचानाओं में जिन कृतियों और कृतिकारों का उल्लेख किया वे ई० पूर्व से लेकर पांचवी ई० तक के हैं। इससे भी सातवीं शताब्दी ई०, बाण का स्थिति काल पुष्ट होता है। सबसे पुष्ट प्रमाण तो सम्राट हर्ष की समकालिक होना ही है।