बाणभट्ट की रचनाएँ, बाणभट्ट का कृतित्व
(Banbhatt Ki Rachnayen)
बाणभट्ट की रचनाएँ (बाणभट्ट का कृतित्व)
➽ बाणभट्ट की तीन कृतियां प्रसिद्ध हैं- हर्षचरित, कादम्बरी और चण्डीशतक । प्रथम दो गद्यकाव्य है और तीसरी कृति पद्यकाव्य है। इनके अतिरिक्त भी बाण के नाम से कुछ अन्य ग्रंथ कहे जाते हैं। यहाँ हम क्रमश: बाणभट्ट की कृतियों का परिचय संक्षेपतः प्रस्तुत कर रहे हैं ।
कादम्बरी-
- बाणभट्ट द्वारा विचरित यह गद्यकाव्य 'कथा' की कोटि में परिगणित है। इसके संबंध में विस्तृत विवरण आगे प्रस्तुत किया जायेगा
चण्डीशतक-
- 102 श्लोकों में निबद्ध भगवती चण्डी की स्तुति बाण विरचित है। देवी महिषासुर का वध करती है- यही इस स्तोत्रकाव्य का कथानक है। अमरूशतक के टीकाकार अर्जुनवर्मदेव चण्डीशतक से श्लोक उद्धृत किया गया है । चण्डीशतक पर चार टीकाओं का उल्लेख मिलता है । यह गंगारथ मार्कण्डेयपुराण के दुर्गासप्तशतीय (देवीमाहात्म्य) से प्रभावित है इन तीनों प्रसिद्ध रचनाओं के अतिरिक्त बाण के नाम से अन्य भी कई रचनायें जुड़ी हैं। उनका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है
मुकुटताडिक-
- चण्डपालकृत नलचम्पू की व्याख्या से ज्ञात होता है कि बाण ने 'मुकुटताडितक' नामक नाटक की रचना की थी। चण्डपाल ने इसका एक पद्य भी उल्लिखित किया है। भोजकृत श्रृंगारप्रकाश में इसका उल्लेख है।
शारदचन्द्रिका -
- शारदातनयकृत भावप्रकाशन से ज्ञात होता है कि बाण ने 'शारदचन्द्रिका' की रचना की थी।
पार्वतीपरिणय-
- कुछ विद्वान् गोत्र और नाम साम्य के आधार पर इसे बाणभट्ट की रचना मानते हैं। वस्तुतः यह ग्रंथ पन्द्रहवी शताब्दी ई. के वत्सगोत्रीय वामनभट्टबाण की रचना है। इनके अतिरिक्त ‘पद्यकादम्बरी', शिवस्तुति', 'सर्वचरितनाटक' रचानाओं को भी बाण के नाम से जोड़ा जाता है।
हर्षचरित का विस्तृत वर्णन - (हर्षचरित उच्छवास) Harsh Charitra Details
➽ विदित ही है कि महाकवि बाणभट्ट ने अपने जीवन के अनेक वर्ष सम्राट हर्षवर्धन के समृद्ध आश्रय में व्यतीत किये थे। इसलिए स्वाभाविक है कि हर्ष जैसे महान् सम्राट का गुणकीर्तन उसके आश्रित प्रतिभाशाली विद्वान कवि के द्वारा किया जाय । हर्षचरित, ऐतिहासिक अंशों की अलंकृत पृष्ठभूमि पर आधारित एक उच्चकोटि की गद्यकाव्य रचना है जिसे समीक्षकों ने: आख्यायिका' की कोटि में रखा है। इसमें महाकवि बाण और सम्राट हर्ष के जीवन में कुछ गद्यशैली में काव्यात्मक प्रस्तुति है।
➽ हर्षचरित आठ उच्छवासों में विभक्त है। इनके प्रारम्भिक तीन उच्छवासों में कवि वंशानुकीर्तन पूवर्क अपना परिचय तथा शेष पाँच उच्छवासों में अपने आश्रयदाता सम्राट हर्षवर्धन के जीवन का कुछ अंश प्रस्तुत किया है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि हर्षचरित एक अपूर्ण रचना है। किन्तु यदि हम हर्षचरित में बाण के कथनों का अनुशीलन करें तो ज्ञात होगा कि यह एक पूर्ण रचना है।
हर्षचरित प्रथम उच्छवास
➽ भगवान शिव और भगवती उमा की स्तुति करने के पश्चात कुकवि निन्दा और सुकवि प्रशंसा करके बाण ने पौराणिक शैली में अपने वंश के उद्भव की मनोरम कथा प्रस्तुत की है। ब्रह्मा की सभा में दुर्वासा से अभिशप्त होकर सरस्वती, सावित्री के साथ नियतकाल के लिए निर्वासित होकर मर्त्यलोक में अवतरित होती है। और शोणन्द के पश्चिमी तट पर एक मनोरम वन प्रान्त में निवास करने लगती है। वहां दैव योग से महर्षि च्वयन और सुकन्याय के पुत्र कुमार दधीच से सरस्वती का सुदंर प्रीतिमय मिलन हुआ। उससे सारस्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्रोत्पति के साथ ही शाप समाप्त हो जाने के कारण सरस्वती, सावित्री के साथ ब्रह्मा लोक चली गयी। उदास दधीच ने पुत्र के पालन का भार भार्गव वंशोत्पन्न ब्राह्मण को सौंपा ।
➽ अक्षमाला ने समान वात्सल्य से दोनो का पालन-पोषण किया। सारस्वत ने वत्स को सभी विद्यायें प्रदान की तथा उसके लिए प्रीतिकूट नामक निवास बना दिया। स्वयं तपस्या के लिए पिता के पास चला गया। वत्स के में कुल में बहुत समय पश्चात कुबेर पैदा हुए। उन जिनमें से पाशुपत से अर्थपति नामक पुत्र हुआ । अर्थपति के ग्यारह पुत्र हए जिनमें से चित्रभानु का विवाह राजदेवी से हुआ। इसी दम्पती के पुत्र बाण हुए। राजदेवी का निधन होने के पश्चात् बालक बाण का पालन पिता चित्रभानु ने किया बाण जब चौदह वर्ष के हुए तो पिता भी दिवंगत हो गये किन्तु इसके पूर्व ही बाण के सारे संस्कार यथाविधि संपन्न हो चुके थे। पितृवियोग का शोक कम होने पर बाण अपने मित्रों के साथ देशाटन करने निकले और कुछ समय पश्चात् अपने गांव लौटे। बान्धवों ने बाण का अभिनन्दन किया।
हर्षचरित द्वितीय उच्छवास -
➽ सम्राट हर्ष के भाई कृष्ण के बुलावे पर बाण हर्षसे मिलने गये । हर्षके मन में बाण के प्रति जो कुविचार थे, वे दूर हो गये तथा वे सम्राट के प्रेम-भजन उनके आश्रम में रहने लगे।
हर्षचरित तृतीय उच्छवास -
➽ पर्याप्त काल हर्ष की सन्निधि में व्यतीत कर बाण प्रीतिकूल में अपने बंधु बान्धवों के बीच उन लोगों के कहने पर उन्होंने महाराज हर्ष का चरित्र सुनाना आरंभ किया। प्रारंभ में उन्होंने हर्ष के पूर्वज श्रीकण्ठ जनपदान्तर्गत स्थणीश्वर प्रदेशके राजा पुष्यभूति का वर्णन किया ।
हर्षचरित चतुर्थ उच्छवास
➽ पुष्यभूति से प्रवर्तित राजवंशमें हूणहरिणकेसरी राजाधिराज प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुए। आदित्यपूजक उस राजा की पत्नी का नाम यशोमती था। इस दम्पती को राजवर्धन, हर्षवर्धन और राज्यश्री नामक तीन संतान हुई यशोमती के भाई का पुत्र भण्डिय इन दोनों राजकुमारों के अनुचर के रूप में साथ रहने लगा। दो मालव कुमार-कुमारगुप्त और इनके सहचर हो गये। राजश्रीदास का विवाह मौखरिवंश के ग्रहवर्मा के साथ हुआ।
हर्षचरित पंचम उच्छवास-
➽ राजा प्रभाकरवर्धन ने कुमार राज्यवर्धन को हुणों को परास्त करने के लिए उत्तरी सीमा पर भेजा। हर्षवर्धन भी कुछ दूर तक उनका अनुगमन करते रहे किन्तु बाद में आखेट के लिए रूक गये। एक रात उन्होंने दुःस्वप्न देखा और अगले दिन उन्हें पिता की गंभीर रूग्णावस्था का संदेश मिला। वे तुरंत लौटे और पिता की दशा देखकर संतप्त हो गये। राजा ने किसी तरह आलिंगन पूर्वक हर्ष को भोजन के लिए राजी किया। राजा की हालत बिगड़ने लगी। चिकित्सा कर रहे वैद्य ने निराश होकर अग्नि में प्रवेश कर लिया। रानी यशोमती ने भी, हर्ष के लाख मनाने के बावजूद राजा की मृत्यु के पूर्व ही अग्निप्रवेश कर लिया। कुछ देर ही राजा का भी प्राणान्त हो गया। हर्ष षोक सन्तप्त हो गये और बड़े भाई के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
हर्षचरित षष्ठ उच्छवास-
➽ राज्यवर्धन लौटे और दोनों अत्यंत शोक पूर्वक देर तक रोते रहे। राज्यवर्धन को राज्य से विमुख जानकर हर्ष ने अतिशय विनय कुमार से किया। तभी राज्यश्री का परिचारक आकर रोने लगा कि मालवराज ने ग्रहवर्मा की हत्या करके राज्यश्री को कारागार में डाल दिया है। हर्ष को राज्यभार सौंप कर राज्यवर्धन, भण्डि और दश हजार घुड़सवारों के साथ मालवराज को विनष्ट करने हेतु चल पड़ा। कुछ ही दिनों बाद कुन्तल ने आकर बताया कि ने राज्यवर्धन ने मालवराज को परास्त कर दिया था किन्तु गौडाधिप ने धोखे से राज्यवर्धन कार डाला। यह सुनकर हर्ष क्रोध से तमतमा उठा । हर्षने सिंहनाद नाम सेनापति से प्रेरित होकर प्रतिज्ञा की गौडाधिप समेत सभी शत्रुओं का विनाश कर एकच्छत्र राज्य स्थापित करूगाँ । इस अवसर पर गजाधिप स्कन्दगुप्त ने अनेक राजाओं की विपत्तियों का वर्णन किया।
हर्षचरित सप्तम उच्छवास -
➽ महाराज हर्षवर्धन ने शुभ मुहूर्त में दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। एक पड़ाव पर प्राग्ज्योतिशेश्वर कुमार का दूत आकर उन्हें 'आभोग' नाम छत्र भेंट कर गया और राजा ने कुमार के अनुरोध पर उसे अपना मित्र बना लिया। कुछ समया बाद भण्डि (हर्ष के मामा का पुत्र) आया और उसने रोते हुए बताया कि राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद गुप्त ने कुशस्थल पर ने अधिकार कर लिया और राज्यश्री कारागार से निकलकर विन्ध्य के वनों में चली गयी है। उसने उसे खोजने के लिए कुछ आदमी लगाये किन्तु सफलता न मिली । तब सोना समेत भण्डि के गौड़ देश का आदेश देकर हर्ष स्वयं राज्यश्री को खोजने चल पड़ा।
हर्षचरित अष्टम उच्छवास
➽ वन में कई घूमने के पश्चात् एक शबर युवक की सहायता से हर्ष गिरिनदी के तट पर रहने वाले भिक्षु दिवाकर मिश्र के आश्रम में पहुँचे। दिवाकर मित्र के साथी एक भिक्षु द्वारा तत्काल लाये गये वृत्तान्त को सुनकर वे सभी उस स्थान पर पहुँचे जहाँ एक स्त्री साहस पूर्वक अग्नि प्रवेश करने जा रही थी। हर्ष अपनी बहन राज्यश्री को पहचान गये और उसे पकड़कर बचा लिया। भाई-बहन का यह मिलन अद्भुत कारूणिक था राज्यश्री ने काशाय ग्रहण करने की आज्ञा हर्ष से मांगी किन्तु हर्ष ने उसे तब तक के लिए मना कर दिया जब तक वह दुःखी प्रजा को शत्रुओं का दमन करके सुखी न कर दे। दिवाकर मित्र ने इसका अनुमोदन किया। ने रात वहीं आश्रम में व्यतीत की। भाई-बहन दोनों अगले दिन प्रातः काल अपने शिविर को चले गये। हर्ष का इतना ही चरित सुनाते-सुनाते दिवसावसान हो गया।