भगवत् गीता के अनुसार वर्ण व्यवस्था को समझने का रहस्य
भगवत् गीता के अनुसार वर्ण व्यवस्था को समझने का रहस्य
- भगवान् बताते हैं कि हमारे यहाँ जो चार वर्णों की व्यवस्था समाज में मानी गयी हैं, वह व्यवस्था भी प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रज और तम के कारण ही मानी गयी हैं। चारों वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का निर्धारण होना भी प्रकृति के (त्रय) गुणों के आधार पर ही माना गया हैं।
- भगवान् के अनुसार चारों वर्णों के मनुष्यों को अपने-अपने वर्ण के अनुसार जो भी कर्म मिले हैं, उन्हें उन कर्मों को बिना आसक्ति, बिना किसी कामना से और बिना किसी फल की इच्छा के अनुरूप व ईश्वर का कर्म मानकर ईश्वर के लिए करते रहना चाहिए। ऐसा करना उनकी पूजा अर्चना जैसा ही हैं, जिसे वे विराट् (बड़े) भगवान के लिए ही करते हैं। भगवान कहते हैं कि यदि क्षत्रिय वर्ण के आदमी को शत्रु से लड़ते हुए हत्या की बुराई भी अपने कर्म में दिखलाई पड़े तब भी अपने स्वधर्म के अनुसार स्वकर्म को अपनाना चाहिए और फलाकांक्षा के बिना अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए। क्योंकि स्वभाव से प्राप्त अपना कर्म यदि दोष (बुराई) वाला भी हैं तो भी वह दूसरों के धर्म को अपनाने से अच्छा ही हैं। अपना नियत कर्म करने वाले को कभी पाप नहीं लगता हैं क्योंकि सभी कामों में कोई न कोई बुराई (कम या अधिक) वैसे ही होती हैं, जैसे आग के साथ धुआं होता है।
- भगवान कहते हैं कि समाज सभी प्रकार के लोगों से निर्मित है। इसलिए सभी लोगों के कल्याण (भलाई) के लिए अर्थात् समाज का काम चलाने के लिए विद्वान और ज्ञानवान के अतिरिक्त सभी तलवार चलाने वाले क्षत्रिय भी चाहिए । बर्तन बनाने वाले कारीगर के साथ लोहार तथा बढ़ई भी चाहिए । बर्तन बनाने वाले कुम्हार और कपड़ा बनाने वाले जुलाहे भी चाहिए । यहां तक कि मछुहारे, बहेलिये भी चाहिए। समाज का काम चलाने के लिए उपर्युक्त सभी चाहिए। हाँ, शर्त केवल एक ही हैं कि ये सभी अपना काम स्वार्थ की बुद्धि से न करके अहंकार छोड़कर समाज की भलाई के लिए अर्थात् विश्व की भलाई के लिए करें। संक्षेप में भगवान् ने बताया कि चाहे कोई भी वजह हो, जब एक बार कोई भी काम हमने अपना काम मान लिया तो फिर चाहे उसमें कोई भी कठिनाई क्यों न आये और चाहे वह किसी भी कारण से नापसन्द हो जाये, तब भी अन्य किसी बात की परवाह किये बिना उस काम को अवश्य ही करते रहना चाहिए, क्योंकि कोई भी काम अच्छा या बुरा नही होता हैं और न ही किसी काम को करने से कोई आदमी छोटा या बड़ा होता हैं। काम के बारे में उनका यह कहना हैं कि आदमी अपना वह काम किस भावना से और किस बुद्धि से करता हैं।
- जिसका मन शान्त हैं, जिसने सबको अपने-जैसा मान लिया है, जिसने सब प्राणियों में रहने वाले उस परमात्मा को जान लिया हैं, फिर वह मनुष्य चाहे जिस देश का हो, जिस जाति का हो, जिस वर्ण का हो कोई भी काम करता हो, गोरा हो या काला हो, किसी भी प्रकार से पूजा-पाठ करने वाला हो, हिन्दू हो, बौद्ध हो, जैन हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो या दूसरे किसी भी धर्म का हो अर्थात् उसकी व्यक्तिगत या देहगत पहचान कुछ भी हो, अपने कर्म को करते रहने वाला वह मनुष्य अन्त में मोक्ष को ही प्राप्त करता है ।