कादम्बरी के पात्रों का परिचय (Character Of Kadambri in Details)
कादम्बरी के पात्रों का परिचय (Character Of Kadambri in Details)
शूद्रक
- संस्कृत वाड्.मय में 'शूद्रक' एक बहुचर्चित नाम हैं। पुराणों से लेकर लौकिक संस्कृत में काव्यों से इसे अनेकत्र राजा के रूप में चित्रित किया गया है। इसे 'मृच्छकटिक' नामक रूपक का कर्त्ता भी कहा गया है। इसके नाम से अन्य रचनायें भी प्राप्त होती है।
- कादम्बरी- कथा का आरम्भ ही शूद्रक के उल्लेख (आसीत्.. .. राजा शूद्रकों नाम) से होता है। वह विदिशा का शासक और चन्द्रापीड का अवतार है। उसकी सभा शुकनास जैसे विशुद्ध आचरण वाले विद्वान ब्राह्मण मन्त्रियों से सुशोभित थी । वह अमित पराक्रमशाली और अप्रतिहत शक्तिसम्पन्न था। सभी राजा सिर झुका कर उसकी आज्ञा का पालन करते थे । जितेन्द्रिय था और सदाचार, धार्मिक तथा यज्ञों का अनुष्ठाता था। शास्त्रज्ञ और साथ ही काव्यज्ञ भी था। प्रजापालक और विद्वानों का समादरकर्ता था । वह गुणग्राही था । वैशम्पायन शुकशावक द्वारा उच्चारित आर्या- “स्तनयुगमश्रुस्नातं समीपतरवर्ती हृदयशोकाग्नेः। चरति विमुक्ताहारं व्रतमिव भवतो रिपुस्त्रीणाम् ।” सुनकर आश्चर्य चकित हो जाता है। प्रशंसा करता हुआ अपने मन्त्री कुमारपालित से कहता है-“श्रुता भवद्भिरस्य विहंगमस्य स्पष्टता वर्णोच्चारणे से स्वरे च मधुरता ।”
तारापीड
- तारापीड उज्जयिनी के सम्राट हैं। वे चन्द्रापीड के पुत्रवत्सल पिता और महारानी विलासवती के प्रणयी पति हैं। वे धर्म के अवतार और पमरेश्वर के प्रतिनिधि हैं। वे कामदेव के समान शोभासम्पन्न हैं वे एक योग्य शासक के सभी गुणों से सम्पन्न हैं तथा कौटुम्बिक सम्बन्धों के प्रति भी अत्यन्त संवेदनशीलता हैं। विलासवती के साथ वे भी सन्तान सुख न पाने से दुःखी है तथा पत्नी का प्रसादन करते है। वे उसे कर्म और भाग्य का भरोसा दिलाकर आश्वस्त करते हैं तथा देव, गुरु और अतिथि के समाराधन सपर्या का सुझाव देते हैं । वे पुण्य और पाप को अच्छी तरह समझते हैं तथा अनजान में भी अपने द्वारा अपराध न होने देने के लिए सचेष्ट रहते हैं । तारापीड दैव के विधान से उद्विग्न नहीं होते। उनमें गाम्भीर्य, दृढ़ता और मृदुता, हृदय की विशालता और उदारता ये सब कुछ हैं आदर्शसम्राट के सभी गुणों उनमें मूर्तिमान है। वे अपने कर्तव्य का निर्वाह बड़ी कुशलता से करते हैं। उनका चरित्र अत्यन्त पवित्र और अनुकरणीय है।
चन्द्रापीड (कादम्बरी कथा का नायक)
- चन्द्रापीड कादम्बरी कथा का नायक है। वह धीरोदात्त नायक है। लक्षण ग्रन्थों में इस कोटि में रखे गये नायक के जो गुण- महासत्त्व, अत्यन्त गम्भीर प्रकृति, क्षमावान्, आत्मश्लाघा से रहित, अचलबुद्धि, विनम्र, दृढ़संकल्पवान् कहे गये हैं, वे सभी चन्द्रापीड में पाये जाते हैं। चन्द्रापीड चन्द्रदेव का अवतार है। उसने उच्च राजर्षिकुल में जन्म लिया है। वह मनोहर कलेवर, काला बुद्धिमान, स्नेही और पराक्रमी है। स्वाभाविक जिज्ञासा से भरा हुआ है। किन्नर युगल का पीछा करते हुए अच्छोद सरोवर तक पहुँच जाता है और फिर वहां शिवाराधन में तल्लीन वीणा वादिनी एकाकिनी कन्या को देखकर कुतूहल भरी जिज्ञासा होती है । बाल्यावस्था में उसने आचार्यों के चरणों में बैठकर अनेक शास्त्रों और विद्याओं का अध्ययन किया था। उसने व्याकरण, मीमांसा, तर्कशास्त्र, राजनीति, मल्लविद्या, नृतयशास्त्र चित्रकर्म, आयुर्वेद, धनुर्वेद, वस्तुविद्या, नाटक, कथा, आख्यायिका, काव्य आदि में अध्ययन एवं अभ्यास द्वारा कुशलता अर्जित की थी। वह अत्यनत धैर्यवान् है- 'अहो बालस्यापि सतः कठोरस्येव ते मह्दधैर्यम् ।” उसमें गुरुजनों के प्रति असाधरण श्रद्धा एवं भक्ति है। शुकनास का उपदेश पाकर वह अपने को धन्य मानता है । -“उपशान्त वचसि शुकनासे चन्द्रापीडस्ताभिरूपदेशवाग्भिः प्रक्षालित इव, उन्मीति इव, स्वच्छीकृत इव, निर्मष्ट इव, अभिषिक्त इव, अलंकृत इव, पवित्रीकृत इव, उद्भासित इव, प्रीतहृदयो मुहूर्त स्थित्वा स्वभवनमाजगाम ।” वह अपने गुरुजन का सम्मान करता है। माता-पिता की पाद वन्दना करता हैं मन्त्री शुकनास का अभिवादन करता है और उनके समक्ष भूमि पर बैठता है। शिष्टाचार का वह जंगम स्वरूप ही है। अपने परिजनों का भी यथोचित आदर करता है। इन्द्रायुध अश्व को देखकर उसके विस्मय की सीमा नहीं रहती। वह मन ही मन कहता है- “महात्मन्! आप चाहे जो भी हों, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मेरे आरोहण की धृष्टता को क्षमा कीजिए। अज्ञात देवता भी अनुचित अनादर के भाजन हो जाते हैं।”
- वह दूसरों की इच्छाओं का सदैव ध्यान रखता है। महाश्वेता के आग्रह पर वह हेमकूट जाने के लिए तैयार हो जाता है। उधर से लौटकर आने पर पिता के बुलाने पर शीघ्रतापूर्वक उज्जयिनी के लिए प्रस्थान कर देता है। चन्द्रापीड परिहास कुशल भी है। कादम्बरी में उसके हास्य-व्यंग्य के अनेक प्रशंसा प्राप्त होते हैं। चन्द्रापीड एक आदर्श मित्र और सखा है। 'सुहृद्' शब्द की अन्वर्थकता उससे ही है। वह मैत्री के पवित्र सम्बन्ध का प्रयत्नपूर्वक निर्वाह करता है। महाश्वेता के साथ उसकी मैत्री अत्यन्त पवित्र है। महाश्वेता द्वारा यह बताने पर कि वैशम्पायन को उसने शुक होने का शाप दे दिया , वह महाश्वेता को कुछ नहीं कहता। उज्जयिनी में यह संवाद पाते ही कि वैशम्पायन सेना के साथ नहीं है, पीछे छूट गया है; वह तुरन्त ही वैशम्पायन के ढूँढ निकालने के लिए चल पड़ता है। वैशम्पायन उसका बालसखा हैं महाश्वेता द्वारा शापग्रस्त होकर उसकी मृत्यु का संवाद सुनते ही उसका हृदय विदीर्ण हो गया और वह भी निष्प्राण हो गया सच्ची मित्रता का यह अनुपम निदर्शन है।
- चन्द्रपीड यथार्थतः प्रेमी है । वह कादम्बरी को हेमकूट में देखकर उसके प्रति आकृष्ट होता है। उसकी अनुरागमयी स्मृति अपने हृदय में सदैव बनाये रखता है। अभी वह हेमकूट से महाश्वेता के आश्रम में आया ही था कि कादम्बरी की अस्वस्थता का हाल जानकर पुनः अविलम्ब पत्रलेखा के साथ कादम्बरी को देखने जाता है और पत्रलेखा को कादम्बरी के पास ही छोड़ कर वापस होता है। कुलूतेश्वर की राजकन्या पत्रलेखा (नवयुवती सुन्दरी) विलासवती के द्वारा, चन्द्रापीड नवयुवक राजकुमार की ताम्बूलकरंकवाहिनी बनायी गयी । वह चन्द्रापीड की अतिविश्वासपात्र हो गयी किन्तु कादम्बरी में कहीं भी चन्द्रापीड का उसके प्रति आकर्षण संकेतित नहीं है। इस पर कुछ समीक्षकों ने चन्द्रापीड को निष्ठुर और हृदयहीन कहा है। किन्तु चन्द्रापीड पर ऐसा आक्षेप करना उचित नहीं है वह एक आदर्श भारतीय युवक है और धर्माविरुद्ध काम की मर्यादा का पालन करने वाला है। इस प्रकार, चन्द्रापीड को बाणभट्ट ने इस महनीय कालजयी कथा के आदर्श नायक के रूप में प्रस्तुत किया है।
शुकनास
- सदाचारी ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न शुकनास, उज्जयिनी के सम्राट तारापीड का मन्त्री है । वह शास्त्रों का मर्मज्ञ वेत्ता है और नीतिशास्त्र के सम्यक् प्रयोग में अत्यन्त निपुण है। वह राजा का अत्यन्त विश्वास पात्र और सम्मान भाजन है। वह प्रजा के कल्याण के लिए सतत निरत रहता है विपत्काल में भी उसकी प्रज्ञा तनिक भी मलिन नहीं होती और स्थिर चिन्तन में समर्थ रहती है। वह धैर्य का धाम, मर्यादा का स्थान, सत्य का दृढ़ सेतु, गुणों का गुरु और आचारों का आचार्य हैं चन्द्रापीड के यौवराज्याभिषेक के अवसर पर चन्द्रपीड को उसके द्वारा प्रदत्त उपदेश संस्कृत साहित्य की अनुपम अमूल्य निधि होने के साथ ही एक शासक के लिए उसके धर्म-कर्म की आदर्श आचार संहिता है। शुकनास परिस्थितियों का ठीक-ठीक आकलन करता है और कालोचित निर्णय लेता है। वह राजा को सदैव सत्यपरामर्शदेता है। शुकनास के विचार अत्यन्त पवित्र और दृष्टि सर्वथा निर्मल है। उसके लिए अपने पराये में कोई भेद नहीं है। शुकनास एक योग्य शासक का सुयोग्य मन्त्री है।
वैशम्पायन
- वैशम्पायन पुण्डरीक का अवतार है जो महाश्वेता के शाप से शुक की योनि में उत्पन्न होता है जिसे उसकी माता लक्ष्मी, चाण्डालकन्या के रूप में स्वर्णपिंजर में लेकर शूद्रक की सेवा में उपस्थित होती है। वैशाम्पायन, पूर्व जन्म में महामुनि श्वेतकेतु का पुत्र होने के कारण सदाचार सम्पन्न संस्कारवान् और शास्त्रज्ञ है। शुकनासपुत्र वैशम्पायन के रूप में वह चन्द्रापीड का बाल सखा है और उसने उनके साथ ही विद्याध्ययन किया है। वह सदैव चन्द्रापीड का अनुगामी रहता है।
पुण्डरीक:
- महामुनि श्वेतकेतु और लक्ष्मी का पुत्र मुनिकुमार पुण्डरीक है। मुनिवृत्ति के प्रतिकूल कामुकता इसके अन्दर भरी हुई है। यही कारण है कि महाश्वेता को देखते ही वह उस पर आसक्त हो जाता है और अपनी सुध-बुध खो बैठता है। उसका मित्र कपिञ्जल उसे लाख समझाता है किन्तु उसका कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ता, पलटे वह उसी पर खीझने लगता हैं पुण्डरीक की सुन्दरता अवर्णनीय है।
विलासवती
- उज्जयिनी - नरेश तारापीड की महारानी विलासवती है। वह निःसन्तानता की असह्य पीड़ा से अत्यन्त दुःखित होती है। अपने पति महाराज तारापीड के समझाने पर गुरुजनसेवा और देवाराधन में तत्पर होती है । फलतः उसे चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त होता है। उसका नाम चन्द्रापीड रखा जाता है । पुत्र के प्रति जो स्वाभाविक वत्सलता माँ में होती है, विलासवती में उससे कहीं अधिक है क्योंकि अनेक व्रतानुष्ठानादि पुण्य उपायों से पुत्र प्राप्ति हुई है। चन्द्रापीड विलासवती का एकमात्र पुत्र है। आचार्य कुल में चन्द्रापीड के भेजे जोने का वह भरसक प्रयत्न करती हैं। इस विषय में वह अपने पति को कठोर हृदय कहती है। विलासवती पति परायण का आदर्श भारतीय स्त्री है । लज्जा उसका सहज अलंकरण है। वह एक आज्ञाकारिणी भार्या है, पुत्रवत्सला माता है तथा उदार गृहिणी है।
महाश्वेता
- चन्द्रापीड ने अच्छोद सरोवर पर शिवायतन में वीणावादनपूर्वक भगवान् शिव की आ करती हुई जिस अनिन्द्य सुन्दरी कन्या को देखा था, उसका नाम 'महाश्वेता' है । महाश्वेता कठोर व्रत और तपश्चर्या का मनो जीवित विग्रह है। उसका चरित एवं चरित्र सर्वथा निर्मल है यथार्थनामा गौरवर्णा महाश्वेता के शरीर से चतुर्दिक प्रभामण्डल का विस्तार हो रहा है मानो सुदीर्घकाल से राशीभूत तपःप्रभा ही विकीर्ण हो रही है । समीपवर्ती वनप्रान्त को वह अपनी कान्ति से धवल बना रही है। वन्य पशु पक्षी भी उसके सान्निध्य से वीणा की स्वरलहरी का आनन्द ले रहे हैं। चन्द्रापीड महाश्वेता के दिव्य सौन्दर्य को देखकर विस्मित हो उठा।
- जिस तरह महाश्वेता का शरीर श्वेताभ है उसी तरह सका अन्तःकरण भी नितान्त निष्कलुषहै । वह निर्मत्सर, निरहंकार और विनय की पराकोटि में स्थित है। वह सदाचार की प्रतिमूर्ति है। चन्द्रापीड को देखते ही बोल पड़ती है-“अतिथि का स्वागत है। महाभाग इस स्थान पर कैसे आ पहुँचे? तो आइए अतिथि सत्कार स्वीकार कीजिए ।” विनम्र और निश्छल व्यवहार से उसके हृदय की उदारता झलकती हैं अपरिचित पुरुष- अतिथि से भी वह इस प्रकार निवेदन करती है जैसे वह उससे चिरपरिचित हो । महानुभाव चन्द्रापीड के द्वारा उसके विषय में पूछने पर वह रोने लगती है। उसका सन्ताप उसके कोमल हृदय को पिघला देता है। वह निःसंकोच अपना सारा वृत्तान्त चन्द्रापीड से कह डालती है।
पुण्डरीक नामक मुनिकुमार के दर्शनमात्र से ही वह उसे अपना हृदय दे देती हैं स्तम्भित सी, लिखित सी, उत्कीर्ण सी ऐसी अनिर्वचनीय दशा में पहुँची हुई वह बहुत देर तक अपलक पुण्डरीक को निहारती रहती है -
‘तत्कालाविर्भूतेनावष्टम्भकेन अकथितषिक्षितेनानायेयेन, स्वसंवेद्येन, केवलं न विभाव्यते किं तद्रूपसम्पदा, किं मनसा, किं मनसिजेन, किमभिनवयौवनेन, किमनुरागेणैवोपदिष्यमानं, किमन्येनैव वा केनापि प्रकारेण, अहं न जानामि, कथं कथमिति तमतिचिरं व्यलोकयम् ।'
- पुण्डरीक भी काम के वशीभूत हो जाता है। महाश्वेता अपनी माँ के बुलाने पर किसी-किसी तरह अच्छोद सरोवर में स्नान करके उसके साथ वापस घर जाती है। कपिंजल, महाश्वेता के घर जाकर पुण्डरीक की विषमावस्था का वर्णन करता है । महाश्वेता पुण्डरीक से मिलने जाती है किन्तु उसके पहुँचने से पूर्व ही पुण्डरीक का प्राणान्त हो जाता है। महाश्वेता विलाप करने लगती है। दिव्य पुरुष के आश्वासन पर विश्वास करके वह पुण्डरीक से पुनः मिलने की आशा बाँधे तपश्चर्या करने लगती है। भारतीय नारी के निरवद्य प्रतिमान के रूप में महाश्वेता हमारे समक्ष आती है। उसमें निश्चिल और निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा दिखायी पड़ती है। एक बार पुण्डरीक को अपने हृदय में बैठा लेने पर फिर उससे मिलने की आशा में निरवधि प्रतीक्षा के कठिन व्रत का पालन करती है। दिव्य पुरुष के वचन ओर आकाशवाणी पर उसे पूर्ण विश्वास हैं चन्द्रापीड के के साथ उसका सहज मैत्री भाव उसके हृदय की उदारता है। एकान्त शिवाराधन, ईश्वर के प्रति उसकी असीम श्रद्धा का परिचायक है। कादम्बरी उसकी अत्यन्त प्रिय सखी है। चन्द्रपीड, को साथ लेकर वह उसका हाल जानने उसके घर जाती है और चन्द्रापीड-कादम्बरी के मध्य प्रणय सेतु का कार्य करती है।
- पुण्डरीक के प्रति उसकी इतनी दृढ़ प्रीति है कि उसके अतिरिक्त वह किसी का नाम भी इस विषय में लेना पसन्द नहीं करती। वैशम्पायन उसे देखते ही उस पर आसक्त जाता है और बार-बार प्रणय याचन करता है । इस पर क्रुद्ध होकर वह उसे शुक योनि में जन्म लेने, का शाप दे देती है। बाद में यह जानकर कि यह चन्द्रापीड का मित्र था पश्चाताप भी करती है। ये सारी चारित्रिक विशेषतायें महाश्वेता को अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त कराती हैं। महाश्वेता गम्भीर भाव और सरल वचन वाली है। वह उदारता, शुचिता त्याग, तपस्या ओर प्रीति की एकत्र भास्वर राशि है.
कादम्बरी कौन है
कादम्बरी हेमकूट पर निवास करने वालो गन्धर्वराज चित्ररथ की पुत्री (कन्या) यह बाणविरचित 'कादम्बरी' कथा-ग्रन्थ की नायिका है। बाण ने अपनी नायिका के नाम पर ही इस कथाग्रन्थ का यथार्थ नामकरण कादम्बरी किया है-
- 'कादम्बरीरसभरेण समस्त एव मत्तो न किंचिदपि चेतयते जनोऽयम् ।' वस्तुतः नायिका कादम्बरी में जो रूपसौन्दर्य की मादकता और प्रीतिमाधुर्य का जो उल्लास है वह हूबहू कादम्बरी कथा में भी है। एक महाकवि की उदात्त कल्पना है और दूसरी उसकी आलंकारिक अभिव्यक्ति कादम्बरी कन्या मुग्धा, परकीया कोटि की नायिका हैं कथा में महाश्वेता-वृत्तान्त के पश्चात् कादम्बरी की कथा आती है। वह सहानुभूति और त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तु की जाती है। वह महाश्वेता की अतिप्रिय सखी है। उसने प्रतिज्ञा कर ली है कि जब तक महाश्वेता का मिलन 'पुण्डरीक' से नहीं हो जाता, वह अपना विवाह नहीं करेगी। महाश्वेता ने उसे समझाया भी किन्तु वह इस विषय में अविचलित रहती है।
- नारी- सौन्दर्य का एक दिव्य परिवेश कादम्बरी से निसर्गतः सम्पृक्त है। उसमें प्रीति की अनुपम विच्छित्ति हैं, भावों की प्रौढि है, जीवन का आदर्श है, लौकिक व्यवहारों के प्रति नैष्ठिक चेतना है, मैत्रीनिर्वाह के लिए असीम धैर्य है, स्नेह की सरल तरलता है, तपश्चर्या की दृढ़ता है व मानवीय संवेदनाओं की मनोरम मूर्ति है। कादम्बरी का अनुभव प्रथम दर्शन में ही चन्द्रापीड को प्रभावित कर उस पर अमिट छाप छोड़ देता है।
- चन्द्रापीड को देखकर कादम्बरी के मन में कामवेदना का संचार हो जाता है। जब वह ताम्बूल देने के लिए चन्द्रापीड की आगे अपना हाथ बढ़ाती है, तो साध्वसभाव के कारण उसके अंगों में कम्पन उत्पन्न हो जाता है। उसकी आँखों में आकुलता व्याप्त हो जाती है और सारा शरीर पसीने से नहा उठता है। उसे पता भी नहीं चलता कि उसके हाथ से रत्न वलय गिर गया है।
- यद्यपि कादम्बरी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक पुण्डरीक से महाश्वेता का मिलन नहीं हो जाता, वह अपना विवाह कथमपि नहीं करेगी किन्तु चन्द्रापीड को देखते ही वह कामदेव के बाणी से बिंध जाती है । चन्द्रापीड प्रथम दर्शन में ही उसके हृदयराज्य का अधिपति बन जाता है । महाश्वेता के पूछने पर कि चन्द्रापीड कहाँ ठहरेंगे? कादम्बरी कहती है कि जबसे इनके दर्शन हुए है तभी से परिजन और भवन की क्या बात, तो मेरे तन-मन के भी स्वामी हो गये है। आपको अथवा इनको जहाँ भी अच्छा लगे, वहीं रहें। कादम्बरी मर्यादा का पालन करना अच्छी तरह जानती है। विनम्रता और लज्जा, उसका सहज गुण है। यद्यपि वह चन्द्रापीड की ओर आकृष्ट है फिर भी अपने इस आचरण से उसे क्षोभ है
‘अगणितसर्वषया तरलहृदयां दर्शयन्त्याद्य मया किं कृतमिदं मोहान्धया ? तथा हि, ष्टपूर्वोऽयमिति साहसिकता मया न संचितम् लघुहृदयां मां कलयिष्यतीति निशंकया नाकलितम् । कास्य चित्तवृत्तिरिति मया न परीक्षितम् । दर्शनानुकूलाहमस्य नेति वा तरलया न कृतो विचारक्रमः।
- गुरुजन के प्रति आदर एवं श्रद्धा तथा प्रियजन के प्रति स्नेह और सहानुभूति कादम्बर के चरित्र की विशेषता हैं वह अपनी सखी (अथवा सुहृद्) के दुःख और सुख से सुखी होती है। महाश्वेता के प्रति उसके हृदय में अगाध सम्मान और प्रीति है। बाण ने कादम्बरी को एक आदर्शसखी तथा प्रेमिका के रूप में चित्रित किया है।
पत्रलेखा
- पत्रलेखा ‘कादम्बरी' की एक महत्वपूर्ण स्त्रीपात्र है। यह चन्द्रापीड की ताम्बूल करंकवाहिनी नियुक्त है यह कुलूतेश्वर की पुत्री है जो महाराज उज्जयिनी नरेश के द्वारा कुलूत की राजधानी जीतकर इसे भी बन्दिनी बनाकर अन्तःपुर में रखा गया था। एक अनाथ राजदुहिता होने के कारण पत्रलेखा के प्रति महारानी विलासवती की अत्यन्त स्नेह हो गया और वे उसे अपनी कन्या के समान मान देने लगीं थी, जब चन्द्रापीड अध्ययन समाप्त कर राज भवन लौट और युवराज पद पर अभिषिक्त हुए, उसी बीच महारानी ने अपने प्रिय पुत्र की सेवा में अपनी दुहिता तुल्य पत्रलेखा को कंचुकी की साथ भेजा। चूँकि चन्द्रापीड पत्रलेखा के कुलशील से परिचित न था अतः महारानी ने पत्रलेखा के विषय में सविस्तार सन्देश चन्द्रापीड को दिया था। पत्रलेखा राजकन्या होते हुए भी दुर्भाग्य से दासी बनी। वह अनिन्द्य सुन्दरी थी और चन्द्रापीड की रात दिन की संगिनी थी। वह चन्द्रापीड की प्रिय विश्वासप्रात्र थी किन्तु बाण ने कहीं भी इन दोनों के बीच काम विकास का संकेत भी नहीं किया है। कुछ समीक्षकों ने महाकवि बाण की अन्धदृष्टि की कटु आलोचना की है किन्तु बाण मर्यादित प्रेम का चित्रण करने वाले कवि है। उन्होंने परिचारिका के रूप में पत्रलेखा के उदात्त चरित्र का सुन्दर चित्रण किया है ।