संस्कृति के लक्षण (Characteristics of culture in Hindi)
संस्कृति के लक्षण (Characteristics of culture in Hindi)
संस्कृति को विस्तार से जानने के लिए प्रसिद्ध समाजशास्त्री मजूमदार एवं मदान ने अपनी पुस्तक 'सामाजिक मानवशास्त्र परिचय में संस्कृति के कुछ लक्षणों का विवेचन किया हैं जो इनके अनुसार नृतत्ववेत्ताओं द्वारा किए गए तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर स्थापित संस्कृति के लक्षणों के बारे में कुछ सामान्यीकरण है, ये निम्नलिखित प्रकार से हैं-
(1) संस्कृति की स्वाभाविक विशिष्टता एवं प्रज्ञप्ति-
- मानवशास्त्री क्रोबर ने संस्कृति के दो पक्षों पर ध्यान केन्द्रित किया हैं- (1) ईथोस और ईडोस । इन्होंने माना हैं कि संस्कृति का निर्माण इन दोनों पक्षों से मिलकर होता है। संस्कृति के घटकों से प्रकट होने वाला इसका औपचारिक व्यक्त रूप ईडोस (प्रज्ञप्ति) हैं तथा संस्कृति का दूसरा पक्ष जो उसके गुणों, प्रेरक मान्यताओं और इसकी स्वाभाविक अभिरुचियों को निर्धारित करता है ईथोस (स्वाभाविक विशिष्टता) कहलाता हैं।
- वांटसन का मानना हैं कि प्रत्येक संस्कृति को दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है- इनमें ईथोस कहा जाने वाला प्रथम पक्ष वह है जिसकी रचना एक संस्कृति की सम्पूर्ण भावात्मक साग्रहता से होती हैं । ईडोस कहे जाने वाले दूसरे पक्ष में एक संस्कृति में प्रचलित संज्ञानात्मक प्रक्रिया से उत्पन्न साग्रहता को लिया जा सकता है । अर्थात् संस्कृति के दो पक्ष है- एक बाह्म अथवा औपचारिक पक्ष जिसे स्पष्टतया देखा जा सकता है। संस्कृति का दूसरा पक्ष आन्तरिक गुणों वाला हैं जिसमें अभिरुचियां, मान्यताएं आदि आती हैं। इसे इस रूप में और अधिक स्पष्ट किया जा सकता हैं कि संस्कृति का ईथोस पक्ष अमूर्त है और ईडोस पक्ष मूर्त हैं।
(2) संस्कृति के व्यक्त एवं अव्यक्त तत्त्व-
- क्लूखौन ने संस्कृति के तत्वों को दो रूपों में विभाजित किया है। (1) व्यक्त तत्व (2) अव्यक्त तत्व । मानव इन्द्रियों द्वारा हम संस्कृति के व्यक्त रूप को देख सकते हैं। कुछ ऐसे अव्यक्त तत्व भी हैं जिनको किसी विशेष प्रशिक्षण के पश्चात् ही अवलोकित किया जा सकता हैं क्योंकि ये तत्व मानव-संस्कार में निहित अभिप्रेरकों एवं मनोवेगों के रूप में होते हैं जिनसे व्यक्ति स्वयं भी प्रायः परिचित नहीं होते। क्लिीसिंग ने भी संस्कृति के इन दोनों पक्षों पर प्रकाश डाला हैं। 1. व्यक्त तत्वों को लिया जा सकता है जिन्हें देखा, छुआ व सुना जा सकता है, ये तत्व होते हैं जिनमें मानव निर्मित भौतिक वस्तुए आती हैं। 2. अव्यक्त तत्वों में विश्वास, मूल्य, न्याय, प्रेरणा, समन्वय आदि को लिया जा सकता हैं, जो अमूर्त होते हैं।
(3) संस्कृति-निर्धारणवाद -
- कार्ल मार्क्स के दृष्टिकोण के अनुसार सांस्कृति विचारधाराएं, सामाजिक एवं राजनैतिक संरचनाएं सभी आर्थिक संगठन के आधार पर निर्मित होती हैं । इसके विपरीत संस्कृति निर्धारणवादियों के मतानुसार न केवल आर्थिक अपितु समाज भी संस्कृति द्वारा ही निर्धारित होता हैं । टायलर के मतानुसार संस्कृति मनुष्य को समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है किन्तु संस्कृति निर्धारणवादियों का मानना हैं कि संस्कृति की अभिवृद्धि एवं क्रियाशीलता संस्कृति के नियमों द्वारा ही संचालित होती हैं। संस्कृति की व्याख्या तो मानव शारीरिकी, मानव मनोविज्ञान और मानव-समाज भी नहीं कर सकते। संस्कृति निर्धारण समाज के सभी पक्षों- धर्म, राजनीति, अर्थ-व्यवस्था आदि को परिवर्तित एवं निर्धारित करने के लिए संस्कृति को ही प्रमुखता देते हैं । संस्कृति निर्धारणवादियों में लेसली व्हाइट का नाम सर्वप्रमुख हैं । किन्तु संस्कृति-निर्धारणवादी संस्कृति को ही सब कुछ मानने लगे हैं जबकि स्थिति इस प्रकार की नहीं हैं। मानव संस्कृति का केवल वाहक एवं दास ही नहीं है, वह उसका निर्माता भी हैं।
(4) संस्कृति बनाम व्यक्ति-
- लिण्टन के अनुसार परम्परावादी व्यक्तियों के लिए संस्कृति निर्देशक की भूमिका अदा करती हैं। संस्कृति ही उनके लिए व्यवहार के प्रतिमान तय करती है तथा उनके व्यक्तिगत एवं सामाजिक अस्तित्व के लिए आवश्यक रचनातन्त्र प्रदान करती हैं। संस्कृति मनुष्य को मुक्ति प्रदान करने वाली हैं क्योंकि उसके बिना मनुष्य का जिन्दा रहना मुश्किल है। वह उसे जैविक निर्धारणवाद से मुक्त करती है लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य भी संस्कृति के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण करें, इसका मूल्य चुकाए । यदि कोई मनुष्य समाज से लाभ प्राप्त करना चाहता है तो उसे समाज द्वारा स्वीकृत जीवन पद्धति का अनुसरण करना पड़ता हैं और प्रायः प्रत्येक मनुष्य ऐसा ही करता है। इस प्रकार संस्कृति मनुष्य की निर्देशिका है। वह उसे मुक्त करती है साथ ही अपने अधीन भी रखती हैं। मनुष्यों से यह अपेक्षा की जाती हैं कि वह समाज को जड़ न होने दें और ऐसा करने के तरीके भी स्वयं संस्कृति ही बताती है, उसी की सीमा में रहकर उनका प्रयोग करना होता हैं।
- टायनबी ने इस प्रकार के लोगों को 'सृजनशील अल्पसंख्यक' कहा हैं। ये लोग अपने नवीन विचारों का परीक्षण संस्कृति के अन्तर्गत ही करते हैं । ये संस्कृति को नष्ट नहीं करना चाहते वरन् रचनात्मक शक्ति द्वारा उसे बदलना चाहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि कोई व्यक्ति आगे आए व इन साधनों का प्रयोग करें।
(5) संस्कृति एवं सभ्यता
- महान विद्वान् मॉर्गन का कहना हैं कि मानव समाज तीन अवस्थाओं में उद्विकसित हुआ है- (1) असभ्यावस्था (2) बर्बरावस्था (3) सभ्यावस्था । सभ्यता समाज के उद्विकास की ही एक अवस्था हैं जिसमें धातु-कर्म, विज्ञान, लेखन आदि का विकास हुआ, बाद में सभ्यता एक विशेष प्रकार की संस्कृति का बोध कराने लगी। कुछ अमरीकन समाजशास्त्री, जैसे- मैकाइवर तथा जर्मन आदर्शवादी संस्कृति और सभ्यता के बीच एक विशेष प्रकार का अन्तर करते हैं। ये विद्वान् संस्कृति को मनुष्य की नैतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक उपलब्धि मानते हैं। इनके मत में संस्कृति प्राथमिक और आधारभूत वस्तु हैं, हमारे अन्तर में विद्यमान हैं और जो कुछ हम हैं वही संस्कृति हैं। यह प्रगति और अवनति दोनों का कारण हो सकती हैं । इसकी तुलना में सभ्यता गौण है। यह हमसे बाहर स्थित हैं। प्रौद्योगिकी, भौतिक-संस्कृति और सामाजिक संस्थाओं से इसका निर्माण होता हैं। यही सांस्कृतिक जीवन के साधनों या उपकरणों की समग्रता हैं, जो कुछ हमारा है वही यह सभ्यता है - यह संचयीमान है, अपने आप न तो इसकी प्रगति होती है न अवनति ।
5 संस्कृति और संस्कृति संकुल
- संस्कृति हमारी सम्पर्ण जीवन पद्धति से सम्बन्धित है तथा यह कई तत्वों से मिलकर निर्मित होती है; जैसे- पूजा, आराधना, कर्मकाण्ड, पत्थर के उपकरण बनाना आदि। इसी प्रकार का प्रत्येक तत्व संस्कृति विशेषक या संस्कृति तत्व कहा जाता हैं। इस प्रकार का प्रत्येक तत्व संस्कृति विशेषक या संस्कृति तत्व कहा जाता हैं। इस प्रकार के कुछ तत्व जब अर्थपूर्ण ढंग से जुड़े हुए होते हैं तथा सम्पूर्ण संस्कृति का एक भाग हाते हैं जो संस्कृति-संकुल कहलाते हैं । इस प्रकार संस्कृति संकुल विभिन्न-विशेषकों का अर्थपूर्ण संयोग हैं जो सम्पूर्ण संस्कृति का ही एक भाग होता हैं.