महाकवि दण्डी -जीवन एवं कृतित्व, दण्डी का जीवन परिचय,
Dandi ka jeevan parichay
महाकवि दण्डी -जीवन एवं कृतित्व
- जिस प्रकार रूद्रट, आनन्दवर्धनाचार्य और मम्मट जैसे लब्ध प्रतिष्ठ सुप्रसिद्ध साहित्याचार्यो ने भामह का नाम और उसका मत गौरव के साथ उल्लेख किया है, तादृश उल्लेख यद्यपि दण्डी के विषय में दृष्टिगत नहीं होता है, पर उसका यही कारण नहीं कि दण्डी के ग्रंथ का महत्व भामह के समकक्ष नहीं, यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाय तो भामह का न्यायदोष प्रकरण यदि दण्डी से अधिक महत्वपूर्ण है, तो दण्डी की अलंकार, रीति और गुणों के विवेचन की मौलिकता भामह की अपेक्षा कही अधिक परिष्कृत और उपयोगी है। सुप्रसिद्ध प्राचीन साहित्याचार्यों द्वारा भामह के समान दण्डी का उल्लेख न किये जाने का एकमात्र कारण संभवतः यही है कि दण्डी दाक्षिणात्य थे और भामह काश्मीरी । साहित्य के प्राचीन प्रसिद्ध लेखक प्रायः काश्मीरी ही अधिक हुए हैं। इसी से उनके द्वारा भामह को इतना गौरव प्राप्त हो सका है और उस गौरव का मम्मट एवं रूय्यक के समय तक उसी प्रकार प्रभाव रहा है । किन्तु आचार्य मम्मट के काव्यप्रकाश की व्यापक और अत्यंत विद्वत्तापूर्ण विवेचना के प्रकाश ने केवल भामह के ग्रंथ को ही नहीं, अपितु प्रायः सभी पूर्वा पर ग्रंथों को निस्तेज कर दिया, फिर ऐसी अवस्था में दण्डी के ग्रंथ का-जो स्वयं ही निर्विकास था, अपनी पूर्वावस्था में रहना स्वाभाविक ही था। दण्डी ही ऐसा प्रधान साहित्याचार्य है जिनमें अपने पूर्ववर्तियों से सबसे अधिक अलंकारों के उपभेदों का एवं गुण और रीति का विस्तृत निरूपण किया है। किन्तु उसके निरूपित अंलकारों के उपभेदों का अधिकांश में उसके परवर्ती आचार्यों के अनुसरण नहीं किया है।
दण्डी का जीवन परिचय Dandi ka jeevan parichay
‘अवन्ति- सुंदरी के आधार पर दण्डी का
थोड़ा चरित्र प्राप्त होता है कविवर भारवि के तीन लड़के हुए, जिनमें मनोरथ मध्यम पुत्र था । मनोरथ
के भी चारों वेदों की भांति चार पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें वीरदत्त सबसे छोटा होने पर भी एक सुयोग्य दार्शनिक था 'वीरदत्त' की स्त्री का नाम गौरी था। इन्हीं से कविवर दण्डी का जन्म हुआ था।
बचपन में ही इनके माता-पिता मर गये थे वे कांची में निराश्रय ही रहते थे। एक बार
कांची में विप्लव उपस्थित हुआ तब ये कांची छोड़कर जंगलों में इधर-उधर भटकते फिरते
थे। अनन्तर शहर में शांति होने पर ये फिर पल्लव-नरेश की सभा में आ गए और वहीं रहने
लगे। भारवि और दण्डी के समभावित संबंध के विषय में अब संदेह होने लगा है। जिस
श्लोक के आधार पर भारवि के साथ दण्डी के प्रपितामह दामोदर की एकता मानी जाती थी उस
श्लोक में नये पाठ भेद मिलने से इस मत का बदलना पड़ा है। नया पाठ नीचे दिया जाता
है-
स मेधावी कविर्विद्वान भारवि प्रभवं गिराम् ।
अनुरूध्याकरोन्मंत्री नरेन्द्रे विष्णुवर्धने ।।
- पहला पाठ प्रथमान्त 'भारवि' था, जब उसके स्थान पर द्वितीयान्त 'भारवि' मिला है, जिससे यह अर्थ निकलता है कि भारवि की सहायता से दामोदर की मित्रता विष्णुवर्धन के साथ हो सकी। अतः दामोदर दण्डी के प्रपितामह थे, भारवि नहीं। इस नये पाठभेद से दोनों के समय-निरूपण के विषय में किसी तरह का परिवर्तन आवश्यक नहीं है। इस वर्णन से दण्डी के अंधकारमय जीवन पर प्रकाश की एक गाढ़ी किरण पड़ती है भारवि का संबंध उत्तरी भारत से न होकर दक्षिण भारत में था ।
हिन्दुओं की पवित्र नगरी कांची (आधुनिक कांजीवरम्) दण्डी की जन्मभूमि थी इनका जन्म अत्यंत शिक्षित ब्राह्मण कुल में हुआ था। भारवि की चौथी पीढ़ी में इनका जन्म होना ऊपर के वर्णन से बिल्कुल निश्चित है। कांची के पल्लव-नरेशों की छाया में इन्होंने अपने दिन सुखपूर्वक बिताए थे। इस वर्णन से दक्षिण भारत की एक किंवदन्ती की भी यथेष्ट पुष्टि होती है। एम० रंगाचार्य ने एक किंवदन्ती का उल्लेख किया है कि पल्लव राजा के पुत्र को शिक्षा देने के लिये ही दण्डी ने काव्यादर्श' की रचना की थी । काव्यदर्शन के प्राचीन टीकाकार तरूणवाचस्पति की सम्मति में दण्डी ने निम्नलिखित प्रहेलिका में कांची तथा वहां के शासक पल्लव-नरेशों की ओर इगित किया है -
नासिक्यमध्या परितष्चतुर्वर्णविभूषिता । अस्ति ।
काचित् पुरी यस्यामष्टवर्णाहया नृपा ॥
- अतः एव दण्डी को कांची के पल्लव-नरेश के आश्रय में मानना इतिहास तथा किंवदंती दोनों से सिद्ध होता है। दण्डी ने अपने काव्यादर्शमें दक्षिण प्रान्त के मलयानिल (21174 और 31136), काची (अस्पष्ट 3।114) कावेरी (31166) और चोल (अस्पष्ट 31166) स्थानों का वर्णन किया है। ऐसे ही आधारों पर दण्डी को दाक्षिणात्य कल्पना किया जाता है। संभव है यह कल्पना ठीक हो, जब कि दण्डी का वर्णन शैली भी वैदर्भी रीति प्रधान है जो काश्मीर प्रांत के साहित्यकों से प्रायः भिन्न प्रतीत होती है।
“ जाते जागति बाल्मीकौ कविरित्यभिधाऽभवत्।
कवी इति ततो व्यासे कवयस्त्वयि
दण्डिनि।।”
साहित्य के उपलब्ध प्राचीन लक्षण-ग्रंथों में भामह के बाद दण्डी का काव्यदर्श ही मिलता है। काव्यदर्श में तीन परिच्छेद हैं-
(1) प्रथम परिच्छेद में काव्य- परिभाषा, काव्य-भेद, महाकाव्य लक्षण, गद्य के प्रभेद, कथा, आख्यायिका, मिश्र-काव्य, भाषा-प्रभेद, वैदर्भ आदि मार्ग, अनुप्रास, गुण और काव्य हेतु का विवेचन है।
(2) द्वितीय परिच्छेद में 35 अर्थालंकार (संसृष्टि सहित) निरूपण किये गये हैं ।
(3) तृतीय परिच्छेद में यमक, गोमूत्रादि चित्रबंध काव्य, प्रहेलिका और दश दोषों का निरूपण है।