दण्डी के प्रमुख ग्रंथ Dandi Ke Pramukh Granth
दण्डी के प्रमुख ग्रंथ (Dandi Ke Pramukh Granth)
प्रमुख राजशेखर ने इस प्रख्यात पद्य में दण्डी के तीन प्रबन्धों के अस्तित्व का स्पष्ट निर्देश किया है -
त्रयोअग्नयस्त्रयों देवास्त्रयों वेदास्त्रयों गुणाः ।
त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः ॥ (शारंगधरपद्धति )
- दण्डी की इस विश्रुत प्रबंधत्रयी में काव्यादर्श निःसंदेह अन्यतम रचना है इसमें कोई मत नहीं हो सकते। आज कोई भी विज्ञ आलोचक 'छन्दोविचित' तथा कलापरिच्छेद को जो काव्यदर्श के आरंभ तथा अंत के आंरभ तथा अंत में निर्दिष्ट किये गये है, स्वतंत्र ग्रन्थ मानने के पक्ष में नहीं है । तो छंदशास्त्र का ही अभिधान है और दण्डी ने भी स्वयं इसे काव्य में प्रवेश पाने के लिए विद्या के रूप में निर्दिष्ट किया है (सा विद्या नौर्विविक्षूणाम्-काव्यादर्श) दण्डी की ही दृष्टि में यह विद्या है, रचना नहीं। इसी प्रकार 'कलापरिच्छेद' भी काव्यादर्श का ही कोई अनुपलब्ध अंश है जिसे दण्डी ने अवश्य लिखा था, परन्तु आज उपलब्ध नहीं है।
- दण्डी का द्वितीय ग्रंथ कौन है ? दण्डी के नाम से दशकुमार-चरित' नामक रोमाचंक आख्यानों तथा कौतूहल से परिपूर्ण ग्रंथ पर्याप्तरूपेण प्रख्यात है। दशकुमारचरित के विभिन्न पाठ संस्करणों की परीक्षा करने से स्पष्ट होता है कि इस ग्रंथ के तीन खण्ड है- भूमिका, मूल ग्रंथ पूरक भाग, जिनमें क्रमश: 5, 8 तथा 9 उच्छवास है। ये तीनों भागों आपस में मेल नहीं खाते। भूमिका भाग (5 उच्छवास) पूर्वपीठिका के नाम से प्रख्यात है तथा पूरक भाग है। मूलग्रंथ और पूर्वपीठिका के कथानकों में अवान्तर चरित के अन्वर्थक नाम से प्रख्यात है। मूलग्रंथ और पूर्वपीठिका के कथानकों में अवान्तर घटना-वैषम्य है। मूलग्रंथ के आठ उच्छवासों में केवल आठ ही कुमारों के विचित्र चरित्र का उपन्यास है, परन्तु नाम की सार्थकता सिद्ध करने के विचार से पूर्वपीठिका में अन्य दो कुमारों का चरित जोड़ दिया गया है और अधूरे ग्रंथ को पूर्णता की कोटि पर पहुंचाने के लिए अंत में उत्तरपीठिका में भी जोड़ दी गई है । इस प्रकार आरंभ में पूर्वपीठिका से और अंत में उत्तरपीठिका से संपुटित समग्र ग्रंथ ही आज 'दशकुमार-चरित' के नाम से प्रख्यात है।
- इधर दण्डी के नाम में प्रकाशित 'अवन्तिसुंदरी-कथा' तथा दशकुमारचरित के तुलनात्मक अनुशीलन से प्रतीत होता है कि अवन्तिसुन्दरी कथा ही दण्डी की मौलिक रचना है। हस्तलेखों की पुष्पिका का प्रामाण्य तो है ही अप्पयदीक्षित ( प्रसिद्ध वेदान्ती से भिन्न व्यक्ति ) ने अपने ‘नामसंग्रहमाला’ नामक ग्रंथ में 'इत्यवन्तिसुन्दरीये दण्डिप्रयोगात्' लिखकर दण्डी को इस ग्रंथ का प्रामाणिक रचयिता सिद्ध किया है। इस कथा में 'दशकुमारचरित' की पूर्वपीठिका में वर्णित वृत है। अतः अनुमान लगाना सहज है कि 'अवन्तिसुदंरी' ही दण्डी की विश्रुत कथा है, जिसका सारांश किसी व्यक्ति ने दशकुमारचरित की पूर्वपीठिका के रूप में उपनिबद्ध किया । यह तथ्य ध्यातव्य है कि दशकुमारचरित का नाम न तो अलंकार के किसी ग्रंथ में और न किसी व्याख्या ग्रंथ में ही निर्दिष्ट किया गया है। इसकी सर्वाधिक प्राचीन टीका 'पदचन्द्रिका' कवीन्द्राचार्य सरस्वती की रचना है (पुष्पिका से प्रमाणित ) । फलतः दशकुमारचरित की रचना का काल 17वीं शती से कुछ प्राचीन अवन्तिसुंदरी बड़ी उदातशैली में विरचित कथा है। वर्ण्य विषय के अनुसार शैली में भी अंतर पाये पाते है।
- गाढबंध के लिए जहां समास की बहुलता है, वहां उपदेश के स्थलों पर असमस्त पदों का प्राचुर्य है। इसमें कादम्बरी की कथा का वर्णन है जिससे दण्डी बाण भट्ट के अनन्तर उत्पन्न हुए थे यह तथ्य निश्चयेन प्रतीत होता है। शैली के ऊपर भी बाणभट्ट का प्रभाव पूर्णतः लक्षित होता है। मेरी दृष्टि में इसी गद्यकथा को लक्षित कर ‘दण्डिनः पदलालित्यम् वाला आभाणक विदग्ध-गोष्ठी में प्रचलित हुआ था। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। लक्ष्मी का यह वर्णन ललितपदों का विन्यास प्रस्तुत करता है-रज्जुरियम् उद्वन्धनाय सत्यवादितायः विषमियं जीवितहरणाय माहात्म्यस्य शरत्रमियं विषसनाय सत्पुरुषवृत्तानाम् अग्निरिय धर्मस्य, सलिलमियं निमज्जनाय सौजन्यस्य, धूलिरियं घूसरीकरणाय चारित्रस्य (पृ० 47 ) इसके आरम्भ में प्राचीन कविविषयक स्तुति- पद्यों के अनन्तर दण्डी तथा उनके पूर्व- पुरुषों का ऐतिहासिक वृत्त वर्णित है जो आरम्भ में दिया गया है और जिससे दण्डी के अविर्भाव का काल सप्तम शती का अन्तिम अथवा अष्टम शती का प्रथम चरण सिद्ध होता है। अवन्तिसुन्दरी कथा ही निश्चयेन दण्डी का प्रख्यात गद्यकाव्य है। यह अधूरा ही उपलब्ध है। यदि यह पूर्णरूपेण उपलब्ध हो जाय, तो दशकुमारचित के साथ इसके सम्बन्ध की पूर्ण समीक्षा हो सके।
- दण्डी के तृतीय प्रबन्ध की सूचना हमें भोजराज के श्रृंगारप्रकाश से प्राप्त होती है। भोज ने इसे दो बार अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ में निर्दिष्ट किया ह- 'दण्डिनो धनंयस्य वा द्विसन्धाने (सप्तम प्रकाश) तथा ‘रामायण-महाभारतयोर्दण्डिद्विसन्धानमिव' (अष्टम प्रकाश ) । दण्डी का यह द्विसन्धान काव्य श्लेष के द्वारा रामायण एवं महाभारत के दोनों कथानकों को समान पद्यों में वर्णन करता है, यह महाकाव्य आज उपलब्ध नहीं है परन्तु भोज के द्वारा निर्दिष्ट होने से इसकी सत्ता एकादश शती में अनुमानतः सिद्ध होती है। इस प्रकार दण्डी की प्रबन्धत्रयी है-काव्यादर्श, अवन्तिसुन्दरी तथा द्विसन्धानकाव्य |