दण्डी द्वारा रचित ग्रन्थ : लक्षणग्रन्थ काव्यादर्श का परिचय
दण्डी द्वारा रचित ग्रन्थ : लक्षणग्रन्थ काव्यादर्श का परिचय
- यह आचार्य दण्डी के समस्त ग्रन्थों में श्रेष्ठ और संस्कृत काव्यशास्त्र के मान्य प्राचीन ग्रन्थों में अन्यतम है । परम्परा और ग्रन्थ की पुष्पिकायें इसके प्रसिद्ध नाम 'काव्यादर्श' को ही प्रख्यापित करती हैं। इसका यह नाम सम्भवतः इस ग्रन्थ के प्रथम परिच्छेद के पंचम श्लोक के आधार पर पड़ा हो सकता है, जिसमें लेखक ने काव्य को प्राचीन राजाओं के यशोबिम्ब के लिये 'आदर्श' बताया है। प्रस्तुत ग्रन्थ भी तो काव्य के लिये आदर्श ही है, क्योंकि काव्य अपने समस्त रूपकों के साथ बिम्बित हो रहा है।
- इस प्रसिद्ध नाम के साथ इसका एक और अप्रसिद्ध नाम 'काव्यलक्षण भी है। इसके बौद्ध व्याख्याकार ‘रत्नश्रीज्ञान’ इसे इसी नाम से अभिहित करते है। अनन्तलाल ठाकुर और उपेन्द्र झा के सम्पादकत्व में इसका संस्करण भी 'काव्यलक्षण' नाम से निकला था। ग्रन्थ के इस नाम का आधार भी प्रथम परिच्छेद के द्वितीय श्लोक का ‘क्रियते काव्यलक्षणम्' अंश है । इसके 'काव्यलक्षणम्' शब्द को ग्रन्थ का नाम भी माना जा सकता है और काव्य को लक्षित-निरूपित करने वाला सामान्य काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ भी । आचार्य कुन्तक ने अपने 'वक्रोक्तिजीवित (3/33) में दण्डी को 'लक्षणकार' कहा है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः अतीत में, कभी कुछ प्रदेशों में, यह 'काव्यलक्षण' के नाम से भी प्रसिद्ध रहा हो, किन्तु आज तो यह 'काव्यादर्श के नाम से ही सर्वत्र प्रसिद्ध है।
- वर्तमान में उपलब्ध ‘काव्यदर्श' अधूरा प्रतीत होता है, क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ (3/171) की ही ‘तस्याः कलापरिच्छेदे रूपममाविर्भविष्यति' इस पंक्ति से लगता है कि इस ग्रन्थ में ‘कलापरिच्छेद' के नाम से एक परिच्छेद और था, जिसमें उसके नाम के अनुसार ही सम्भवतः कलाओं (काव्य से सम्बद्ध नाट्य तथा तत्सदृश अन्य कलाओं) का विवेचन किया गया होगा। यह परिच्छेद 'काव्यादर्श' के किसी भी संस्करण में उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अतीत में इसके अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। 'मालतीमाधव' के व्याख्याकार जगद्धर ने 'काव्यादर्श' से छह पद्य / पद्यांश अपनी व्याख्या में उद्धृत किए हैं, किन्तु उनमें से केवल तीन ही वर्तमान 'काव्यादर्श' में अविकल उपलब्ध होते हैं। दो का किसी तरह कहीं न कहीं समावेश किया जा सकता है किन्तु नाट्य के प्रकरण' नामक भेद से सम्बद्ध एक उद्धरण का समावेश वर्तमान 'काव्यदर्श' के किसी भी परिच्छेद में नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उसमें नाट्य की चर्चा कहीं नहीं है लगता है यह उद्धरण अधुना अनुपलब्ध कलापरिच्छेद का रहा होगा। इसी प्रकार वात्सायन के ‘कामसूत्र' के व्याख्याकार यशोधर ने अपनी 'जयमश्ला' नामक व्याख्या में दुर्वाचक और काव्यमस्यपूरण इन दो कलाओं से सम्बन्धित जो दो श्लोक 'काव्यदर्श' का नाम लेकर उद्धृत किए हैं, वे वर्तमान 'काव्यदर्श' में उपलब्ध नहीं होते है। ये भी 'कलापरिच्छेद' के ही होंगे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। प्रतीत होता है कि उक्त दोनों व्याख्याकारों के समय ( 1200 1300ई०) 'काव्यदर्श' का उक्त परिच्छेद वर्तमान था तथा बाद में किन्हीं कारणों से नष्ट हो गया ।
- इस तथ्य की पुष्टि ‘काव्यदर्श' के टीकाकार 'रत्नश्रीज्ञान' के 'चतुर्थः कलापरिच्छेदोऽस्य दण्नेिऽस्ति, स त्विह न प्रवर्तते ।" इस तथा दूसरे टीकाकार तरुणवाचस्पति के ‘चतुषष्टिकलासंग्रहात्मकः काव्यदर्शस्य कश्चिदन्योऽपि परिचछेऽस्तीत्याहुः इस कथन से भी होती है । इससे यह भी प्रतीत होता है कि इन व्याख्याकारों के समय 'कलापरिच्छेद' का अस्तित्व कहीं न कहीं अवश्य था, किन्तु ये लोग जहाँ रहते थे, वहाँ उसका प्रचलन नहीं था (स त्विह न प्रवर्तते) । इसीलिये उसकी व्याख्या भी नहीं की गई। कलापरिच्छेद के प्रचलन के न होने का कारण यही हो सकता है कि उसमें जिन कलाओं का विवेचन किया गया था, वे उस युग की दृष्टि में काव्य से सम्बद्ध नहीं रह गई होंगी, इसलिये काव्यशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिए उनका कोई उपयोग नहीं रह गया था। परवर्ती काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में कलाओं के विवेचन का न होना इस तथ्य का पुष्ट प्रमाण है कि काव्यशास्त्र के आचार्यों की दृष्टि में काव्यशास्त्र का काव्येतर कलाओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया था।
- वर्तमान में प्रकाशित 'काव्यदर्श' के संस्करणों में तीन परिच्छेद उपलब्ध होते हैं, जिनमें कारिका (लक्षण श्लोक) और उदाहरण दोनों को मिलाकर कुल 660 श्लोक हैं। कहा जाता है कि ब्रह्मवादि मुद्रणालय, मद्रास से प्रकाशित इसके संस्करण में चार परिच्छेद हैं, न कि वर्तमान संस्करणों के मान तीन। इसमें तृतीय परिच्छेद की समाप्ति यमक-प्रहेलिक निरूपण के साथ हो जाती है। चतुर्थ परिच्छेद में केवल दोषों का विवेचन है। इधर डॉ० जयशंकर त्रिपाठी ने अपने शोधग्रन्थ ‘आचार्य दण्डी और संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास - दर्शन में विभिन्न तर्को के आधार पर काव्यदर्श' के तृतीय परिच्छेद को अप्रामाणिक ठहरा कर केवल दो परिच्छेदों को मान्यता प्रदान की है। डॉ॰ धर्मेन्द्र कुमार गुप्त ने अपने धारदार एवं युक्तियुक्त तर्कों से डॉ॰ त्रिपाठी की असंगत और अपारम्परिक मान्यता को निराधार सिद्ध कर इस क्षेत्र में पैर पसार रही बे सिर पैर की आलोचना का जो समुचित उत्तर दिया है ( दृ० काव्यादर्श, धर्मेन्द्र कुमार गुप्त भूमिका, पृ० 17-21), उसके लिए वे कोटिशः साधुवाद के पात्र हैं। वास्तव में 'काव्यादर्श' के तीसरे परिच्छेद को अप्रामाणिक ठहराने से पहले डॉ. त्रिपाठी को 'काव्यदर्श' का वह स्थल बताना चाहिए था, जहाँ दण्डी की प्रथम परिच्छेद के श्लोक 61 में यमक के सम्बन्ध में की गई-
'तनु नैकान्तमधुरमतः पश्चाद्विधास्येत।'
- यह घोषणा कार्यान्वित की गई हो। दण्डी ने 'यमक' सदृश नैकान्तमधुर, सुकर दुष्कर अलंकारों, चित्रकाव्य के विविध भेदों तथा दोषों के निरूपण के लिए तीसरे परिच्छेद की रचना की थी, यह निश्चय है। बिना तीसरे परिच्छेद के वर्तमान - 'काव्यदर्श' विकलांग-सा हो जायेगा, इसलिये उसके पृथक्करण के लिए कोई भी प्रयास करना उचित नहीं होगा।
- ‘काव्यदर्श' के 'पूर्वशास्त्राणि संहत्य' (1/2 ), 'निबबन्धुः क्रियाविधिम्' (1/9),
- तैः शरीरच्च काव्यानामलंकाराश्च दर्शिताः (1/10) तथा किन्तु बीज विकल्पनां पूर्वाचार्येः प्रदर्शितम्’ 2/2 इन श्लोकांशों से सूचित होता है कि दण्डी के पहले काव्यशास्त्र के कई आचार्य हो चुके थे, जिन्होंने इस शास्त्र के नामकरण के साथ-साथ काव्य के शरीर, उसके शोभाधायक धर्म (गुण और अलंकार), , विकल्पों (अलंकारों) के बीज तथा काव्य के लिए परिहार्य विविध दोषों के सम्बन्ध में अपनी-अपनी दृष्टि और सामर्थ्य के अनुसार विवेचन किया था। आचार्य ने दण्डी ने उनके ग्रन्थों का सूक्ष्म आलोचना करने तथा पूर्ववर्ती एवं समकालीन काव्यग्रन्थों का गहराई से अध्ययन के उपरान्त (प्रयोगानुपलक्ष्य च 1/2) उस समय तक स्थापित हो चुके काव्य के सिद्धान्तों का जो परिसंस्कार किया (तदेव परिसंस्कर्तुमयमस्मत् परिश्रमः 2/2 ), उसी का मूर्त रूप यह ‘काव्यादर्श' है। कहना न होता कि दण्डी ने इसमें अपने समय तक के काव्यसिद्धान्तों को संशोधित (परिवर्तित एवं परिवर्धित) करके के साथ-साथ, अपने भी कतिपय सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया होगा। 'काव्यादर्श में निरूपित काव्ससिद्धान्तों को परिच्छेदानुसार इस प्रकार देखा जा सकता है।
- प्रथम परिच्छेद के द्वितीय श्लोक में सबसे पहले 'काव्यलक्षण' करने की प्रतिज्ञा करने की अनन्तर वाणी की प्रशंसा, काव्यवणी की प्रशंसा, भाषा के सुप्रयोग और दुष्प्रयोग की फलश्रुति, काव्यदोषों की अनुपेक्षणीयता, काव्यगत गुण-दोषों के ज्ञान के लिए काव्यशास्त्र की आवश्यकता, सूरियों के द्वारा काव्यशास्त्र के निबन्धन के साथ-साथ काव्य शरीर और अलंकारों के निर्धारण की सूचना, काव्य (शरीर) की परिभाषा, छन्द के अनुसार काव्य का विभाजन और छन्दोविचिति में उसके विस्तृत विवेचन का संकेत, महाकाव्यका लक्षण, परम्परा की पृष्ठभूमि में कथा और आख्यायिका के लक्षण के उपरान्त दोनों को एक ही गद्यजाति की मान्यता, मिश्रकाव्य नाटकों के अन्यत्र विवेचन का संकेत, चम्पू की परिभाषा, भाषा के आधार पर काव्य के चार भेद, संस्कृत और भेदों सहित प्राकृत का उल्लेख, सेतुबन्ध की रचना के माध्यम से महाराष्ट्री की प्रशंसा, अन्य प्राकृतों का संकेत, भाषामूल काव्यों की अलग-अलग विशेषतायें, ‘बृहत्कथा' के पैशाची में लिखे जाने का संकेत, दृश्यादि के आधार पर काव्य के प्रकारत्रयत्व का प्रतिपादन सूक्ष्म भेदों वाले वाणी के अनेक मागों की सूचना के बाद स्पष्ट अन्तर वाले वैदर्भ और गौडीय मार्ग के वर्णन की प्रतिज्ञा । दश गुणां के उद्देश्य-कथन के साथ उनके वैदर्भ मार्ग के प्राण और गौड मार्ग में विपर्ययत्व का प्रतिपादन, प्रत्येक गुण के लक्षणोदाहरण पूर्वक प्रतिपादन के साथ तत्तद् गुण के प्रति दोनों मार्गों के विशिष्ट दृष्टिकोण का निर्देश, गुण-निरूपण के मध्य ही प्रसंश अग्राम्यत्व, अनेयत्व अनुप्रास, यमक तथा गौणवृत्ति के प्रति आचार्य की दृष्टि की सूचना, इक्षु और गुड आदि के दृष्टान्त से प्रति कवि में स्थित मार्गभेद के प्रतिपादन में अपनी असमर्थता का प्रतिपादन करने के बाद अन्त में बताया गया है कि काव्य के यद्यपि प्रतिभा, श्रुत और अभियोग (अभयास) ये तीन कारण होते हैं, किन्तु अभयास पूर्वक वाग्देवी की उपासना करने वाले कवि को प्रतिभा के न रहने पर भी विदग्ध-गोष्टी में विहार कराने योग्य काव्यनिर्माण की न सामर्थ्य की प्राप्ति हो जाती है।
- द्वितीय परिच्छेद में अलंकारों का निरूपण है। इसमें सबसे पहले अलंकार की परिभाषा के साथ यह बताया गया है कि अलंकारों की कल्पना आज भी हो रही हैं, इसलिये उसक पूर्ण रूप से निरूपण नहीं किया जा सकता। इसके बाद यह बताया गया है कि प्रत्येक अलंकार के मूलभूत तत्त्व का प्रदर्शन पूर्वाचार्य कर चुके हैं, दण्डी को अब उसका परिसंस्कार करना है। इसके पश्चात अलंकार के दोनों भेदों-मार्गविभाजक अलंकार गुण और साधारण अलंकार उपमादि-को पहली बार बताने के पश्चात साधारण अलंकारों के निरूपण का उपक्रम किया गया है। इसी क्रम में सबसे पहले स्वभावाख्यान (स्वभावोक्ति), उपमा, रूपक, दीपक आवृत्ति, आक्षेप, अर्थात्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा हेतु सूक्ष्म लव, क्रम, प्रेयस् रसवत्, ऊर्जास्विन्, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, अपहुरति, श्लेष, तुल्ययोगिता, विरोध, अप्रस्तुत-स्तोत्र (अप्रस्तुतप्रशंसा), वजस्तुति, निदर्शना, सहोक्ति, परिवृत्ति, आशीः, संसृष्टि और भाविक-इन 35 अर्थालंकारों का पूर्वसूरियों के नाम पर परिगणन किया गया है और उसके पश्चात् उपर्युक्त क्रम से ही प्रत्येक अलंकार का लक्षण, भेदोपभेद और उदाहरण के साथ विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। उसने अपने युग में स्वतन्त्र अलंकार के रूप में मान्य अनन्वय और ससन्देह को उपमा के भेदों, उपमारूपक को रूपक के भेदों में तथा उत्प्रेक्षावयव को उत्प्रेक्षा के भेदों में समाविष्ट कर दिया है। इसके अतिरिक्त उसने उपमेयोपमा नामक एक और अलंकार का ‘उपमा' के अन्योन्योपमा नामक भेद के रूप में निरूपण किया है। इस प्रकार देखा जाए तो उसने कुल 40 अर्थालंकारों का निरूपण किया है।
दण्डी के अर्थालंकार
- दण्डी के अर्थालंकारों के इस विवेचन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कुल विवेचित 35 स्वतन्त्र अलंकारों में 27 के भेदों की संख्या 190 है। केवल उपमा के ही 32 भेद है। उपमा के इन भेदों में से कोई ऐसे हैं, जो आगे चलकर स्वतन्त्र अलंकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। 10 या उससे अधिक भेद वाले अलंकार ये है-आक्षेप (24), रूपक (20), हेतु (16), दीपक (12), और व्यतिरेक ( 10 ) । अन्य विकल्पित अलंकार ये हैं- श्लेष (9), अर्थान्तरन्यास (8), रसवन् (8), विरोध (6), विशेषोक्ति (5), स्वभावोक्ति, समासोक्ति और श्लेश (प्रत्येक4), आवृत्ति और अपह्नुति (प्रत्येक के तीन भेद), विभावना, अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा, सूक्ष्म, श्लेश, प्रेयम, उदात्त, तुल्ययोगिता व्याजस्तुति सहोक्ति, संसृष्टि और निदर्शन (प्रत्येक के दो भेद)। जिनके एक से अधिक भेद नहीं हैं, ऐसे अलंकार ये है- यथासंख्या, ऊर्जास्वी, पर्यायोक्त, समाहित, अप्रस्तुत प्रशंसा, परिवृत्ति आशी: और भाविक ।
- दण्डी ने यमक का निरूपण बड़े मनोयोग से किया प्रतीत होता है यद्यपि 'यमक' उनके लिए आदि सात ‘नैकान्तमधुर' है, किन्तु जिस विशाल फलक पर उसका निरूपण हुआ है वह इस तथ्य को झुठलाता प्रतीत होता है। दण्डी ने उसके कुल 315 भेद माने हैं। सदृष्ट और समुद्रक भेद इसके अतिरिक्त है। आचार्य ने इसके लगभग 50 भेदों के उदाहरण के लिए स्वरचित पद्यों का प्रयोग किया है। विद्वानों की दृष्टि में 'दण्डी' का यमक निरूपण संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में परिपूर्ण तथा विशद निरूपण का अद्वितीय निदर्शन है।
- यमक के पश्चात अन्य शब्दालंकारों में गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, सर्वतोभद्र, स्वरनियम स्थाननियम, वर्णनियम तथा प्रहेलिका का निरूपण है। इनमें स्वरनियम, स्थाननियम तथा वर्णनियम में से प्रत्येक के चार-चार भेद तथा प्रहेलिका के 16 भेद है। यमक को छोड़कर शेष सभी अलंकार की दृष्टि में चित्र हैं। तृतीय परिच्छेद के अन्तिम विवेचनीय विषय के रूप में दण्डी ने दोषों को लिया है। ये दोष संख्या में दस हैं, जैसे-अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपक्रम, शब्दहीन, मतिभ्रष्ट, भिन्नवृत्त, देशकाल, कलालोकन्यायागम विरोध भामह के द्वारा विवेचित ‘प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तहानि' रूप दोष का उन्होंने 'विचार कर्मशप्रायस्तेनालीढेन किं फलम’ कहकर काव्य में विचार करने का विरोध किया है। दसों दोषों का यह विवेचन अत्यन्त प्रशस्त शैली में लभगण साठ श्लोकों में सम्पन्न हुआ है।
- इस प्रकार 'काव्यादर्श के वर्ण्यविषय का परिचय देने के पश्चात् अब हम उसकी उन विशेषताओं के सरलता से रेखांकित कर सकते हैं, जिन्हें उनकी संस्कृत काव्यशास्त्र के लिए योगदान माना जा सकता है-काव्यशास्त्र की आदिम कालीन मान्यता के अनुसार काव्य के केवल शरीर पक्ष पर ध्यान देते हुए भी दण्डी, ने काव्य की जो शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली' के रूप में परिभाषा दी उसके 'इष्टार्थ' में वह 'आत्मतत्त्व' भी विद्यमान है, जो बाद में 'रस' के रूप में काव्यात्मा माना गया। इसकी इसी विशेषता के कारण पण्डितराज जगन्नाथ जैसे रसवादी कवि और आचार्य ने इसके प्रभाव में अपनी काव्य- परिभाषा दी।
- काव्यशरीर के अलंकरण के लिए जिस 'अलंकार' तत्त्व की उद्भावना की गई, उसमें उन्होंने प्रसिद्ध ‘अलंकार' के साथ ही 'गुण' को भी सम्मिलित करके दोनों को समान महत्व दिया । यद्यपि इससे दोनों की स्पष्ट न हो सकने वाली भिन्नता परवर्ती वामनाचार्य के द्वारा ही स्पष्ट की जा सकी, तथापि दोनों को समान स्तर प्रदान करने का श्रेय तो दण्डी को मिलना ही चाहिए। दण्डी पहला काव्याचार्य है, जिसने प्रतीक विभिन्न काव्यमार्ग को पहचान तथा स्पष्ट अन्तरों वाले दो वैदर्भी और गौडीय मार्गों और उनके नियामक तत्त्वों के रूप में दस गुणों का संयुक्तिक और सबल प्रतिपादित किया यद्यपि उसके इस प्रतिपादन में कुछ त्रुटियाँ हैं, तथापि उसके ही सैद्धान्तिक आधार पर आगे बढ़कर वामन ने रीति के नाम पर मार्गों की संख्या, मध्यवर्ती रीति पांचाली की मान्यता के साथ, तीन की तथा रीति का स्तर इस सीमा तक विकसित किया कि उसे काव्य की 'आत्मा' माने जाने का सौभाग्य मिला। उसके इस सौभाग्य में दण्डी का ही योगदान है।
- दण्डी ने महाकाव्य की जो परिभाषा दी वह काव्यशास्त्र के प्रारम्भिक आचार्यों में सर्वश्रेष्ठ तथा उसी में कुछ परिवर्तन-परिवर्धन कर विश्वनाथ ने उसे लगभग पूर्ण और युगानुकूल बनाया। कथा और आख्यायिका को एक ही गद्यजाति मानकर, दोनों में एकता प्रतिपादन कर दण्डी ने परम्परा से टक्कर लेने के साथ ही अपने स्वतन्त्र दृष्टिकोण का परिचय दिया है, यद्यपि सभी गद्यजातियों को एक मानने का उनका सिद्धान्त गले नहीं उतरता । दण्डी ने अपने गुण - विवेचन की कमी को दोष-विवेचन में दूर कर दिया है। उन्होंने दस दोषों का निरूपण बड़ी ही वैज्ञानिक दृष्टि से किया है । यद्यपि दण्डी ने गुण के समान दोष की भी कोई सामान्य परिभाषा नहीं दी, तथापि उनके दोषों के विश्लेषण से पता चलता है कि वे दोष को भावात्मक तत्त्व मानते हैं। दण्डी के उदाहरण प्रायः स्वरचित है और उनमें निबद्ध विषय-वस्तु जीवन के सभी क्षेत्रों से ली गई हैं। उनमें कुछेक स्थलों को छोड़कर, अपने लक्षण से सर्वथा संगति मिलती है।
- दण्डी आचायर्य के साथ-साथ प्रतिभाशाली कवि भी है । अत्यन्त दुरूह शास्त्रीय विषय को अत्यन्त सरस और ललित भाषा में प्रस्तुत करने में उनकी कोई तुलना नहीं । दण्डी की इन विशेषताओं के प्रकाश में संस्कृत काव्यशास्त्र में उनके योगदान का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। यदि किसी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ की लोकप्रियता के मूल में उसका वह महत्व होता जो उसने अपने क्षेत्र में अपने विशिष्ट योगदान के द्वारा उपार्जित किया होता है, तो 'काव्यादर्श' संस्कृत काव्यशास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ प्रमाणित होता है, क्योंकि जो लोकप्रियता, विशेषकर भारत के संस्कृतेतर तथा देशान्तरीय क्षेत्रो में, इसको मिली किसी अन्य ग्रन्थ को नहीं मिल सकी । इसकी इस लोकप्रियता का आकलन दो प्रकार से किया जा सकता है- 1. अपने समकालीन और परवर्ती काव्यशास्त्रीय साहित्य पर इसके प्रभाव की दृष्टि से और 2. उसके सिद्धान्तों को समझाने के लिए उसके ऊपर की गई व्याख्याओं की दृष्टि से पहले साहित्य शास्त्र पर इसके प्रभाव को लेते हैं।
- संस्कृत साहित्य के परवर्ती आचार्यों पर 'काव्यादर्श' का व्यापक प्रभाव पड़ा है, विशेषकर मध्यकालीन उत्तर भारतीय आचार्यों पर । भोज के दोनों ग्रन्थों- सरस्वतीकण्ठाभरण और श्रृंगारप्रकाश-में इसके व्यापक प्रभाव का कई रूपों में साक्षात्कार किया जा सकता है । कई स्थलों पर तो भोज ने बिना किसी परिवर्तन के ही काव्यादर्श के श्लोकों-कारिका और उदाहरण दोनों को उद्धृत किया है और कहीं-कहीं कुछ परिवर्तन के साथ। 'अग्निपुराण' के काव्यशास्त्रीय भाग की भी वही स्थिति हैं वामन की रीति और उसके आधारस्तम्भ के विवेचन में 'काव्यदर्श का ही प्रभाव काम कर रहा है, इसे सभी स्वीकार करते हैं। उत्तरकाल में अलंकारों की संख्या में जो भूयसी वृद्धि हुई, उसके भी मूल में दण्डी के अलंकार भेद ही है। कुछ अलंकार-भेद तो ज्यों के त्यों स्वतन्त्र अलंकार के रूप में गृहीत हो गए है। दण्डी की न केवल काव्यपरिभाषा ने अपितु उनके स्वरचित लालित्य उदाहरणों ने भी काव्यशास्त्र के अन्तिम दिग्गज आचार्य जगन्नाथ पण्डित तक को प्रभावित किया है । 'कामसूत्र' के व्याख्याकार और 'मालतीमाधव' के व्याख्याकार जगद्धर ने कुछ विषयों की पुष्टि के लिए 'काव्यादर्श' को उद्धत किया है, यह देखा जा चुका है। इसकी तुलना में अधिकांश कश्मीरी आचार्य और उनसे प्रभावित उत्तर भारतीय विश्वनाथ आदि-दण्डी के प्रति अवश्य ही उदासीन रहे हैं। उनकी तुलना में उन्होंने उनके प्रतिद्वन्द्वी भामह की अधिक मान-सम्मान दिया हैं। इसका एक कारण भामह का कश्मीरी होना भी हो सकता है। किन्तु संस्कृत साहित्यशास्त्र के बाहर, अन्य भाषायी काव्यशास्त्रों पर जब दण्डी के प्रभाव को देखते है तो संस्कृत का बड़े से बड़ा काव्यशास्त्री भी सामने तुच्छ सा दिखाई देने लगता है। इतिहास बताता है कि तमिल, कन्नड़ और सिंहली भाषा के काव्यशास्त्र पर काव्यादर्श का व्यापक प्रभाव पड़ा है। अपनी रचना के डेढ़ दो शतक पश्चात् ही यह ग्रन्थ कन्नड़ भाषा के 'कविराजमार्ग' सिघली भाषा के 'विसवसलंकार' (स्वभाषालंकार) पर विभिन्न रूपों में अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहा है। इसी प्रकार ग्यारहवीं शती के मध्यभाग में बुद्धमित्र की तमिल रचना 'वीरचोरियम्' के अलंकार प्रकरण पर तथा लगभग 1140 में लिखित अज्ञात लेखक की तमिल रचना 'दण्डियलंकारम्' (दण्ड्यलंकारम्) हिन्दी के प्रसिद्ध रीतिकालिका कवि केशवदास की कविप्रिया' (1601) पर इसका व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है।
- भारत के पड़ोसी देशों, जहाँ संस्कृत ही नहीं भारत की किसी भी भाषा का कोई काव्यशास्त्री नहीं पहुँचा सका, में भी दण्डी का व्यापक प्रभाव पड़ने की सूचना हैं सिंघली भाषा में रचित ‘सियवलसलकर’ लंका में वहाँ के राजा शीलवर्ण मेघसेन के द्वारा लिखा गया। ‘काव्यादर्श' का प्राचीन तथा विश्रृत बौद्ध व्याख्याकार रत्नश्रोज्ञान लंका का ही निवासी थ| (अन्य किसी भी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ का व्याख्यकार कोई बौद्ध भी हुआ है, ऐसा सुना नहीं गया) 12वीं शतीं के एक अन्य सिंघली लेखक संघरिक्खत का पालि भाषा में लिखित अलंकार गन्थ स्रबोधालंकार ‘काव्यादर्श’ पर आधारित है। इसके कई पद्य 'काव्यादर्श' के पद्यों के अनुवादमात्र है । तिब्बत भी दण्डी के प्रभाव से अछूता नहीं रहा । वहीं की भोंट भाषा में 'काव्यादर्श' का एक अनुवाद किया गया था, जिसका सम्पादन डॉ० अनुकूल चन्द्र बनर्जी ने किया है। इसके अतिरिक्त तेरहवीं शताब्दी में तिब्बती भाषा में लिखित 'काव्यदर्श' की एक टीका मिलती है ।