भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता
(Feature of Indian culture in Hindi)
जीवन की पूर्णता एवं इस जीवन का नश्वरता बोध
- भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक विचित्र पक्ष मानव जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण हैं। एक तरफ जीवन को नश्वर तथा मनुष्य को मरणधर्मा मान जीवनोतर व्यापारों के लिए व्यापक अवकाश प्रदान किया गया हैं। वहीं दूसरी ओर इसके सर्वविध रक्षा के प्रयत्न का उपदेश दिया गया हैं। कठोपनिषद् में यम और नचिकेता के विख्यात संवाद में जीवन और मृत्यु के रहस्यों का अत्यन्त गंभीर विवेचन प्राप्त होता हैं। यह विवेचन भारतीय संस्कृति का अत्यन्त विशिष्ट प्रतिपाद्य हैं अर्थात् मृत्यु सत्य है किन्तु यह समस्त जीवन की समाप्ति नहीं हैं बल्कि इस जीवन से दूसरे जीवन की ओर होने वाली यात्रा मात्र है।
- यह जीवन, अर्थात् शरीर में बंधा हुआ वर्तमान जीवन, जो शरीर के नष्ट होने के साथ समाप्त हो जाने वाला हैं। शरीर की दृष्टि से नश्वर है। इसका उद्देश्य और लक्ष्य कर्म साधना मात्र है, इसलिए इस नश्वर जीवन को अत्यन्त सचेत रूप से कर्मयज्ञ में समिधा (हवन, सामग्री आदि) के रूप में झोंक देने की साधना ही जीवन यज्ञ हैं किन्तु यज्ञ बिना दक्षिणा को पूरा नहीं होता । हैं इसलिए शरीर में बंधे जीवन की आहुति देने के बाद भी तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य को बचाकर जीवन की निरन्तरता में प्रवाहित करना, जीवन यज्ञ की दक्षिणा है। इसके लिए शरीर में बंधा जीवन आवश्यक है, साधन है अर्थात् मनुष्य का मरणधर्मी होना सत्य है, किन्तु मरणधर्मी मनुष्य को भी मानव-कर्तव्यों की पूर्ति के लिए शरीर को साधन के रूप में स्वीकार करना होगा। इसलिए शरीर को भी साधन के रूप में ग्रहण करना पड़ता हैं। अनिवार्य रूप से ग्रहण करना पड़ता है ।
- यद्यपि कि भारत को इस जीवन की नश्वरता का ज्ञान प्रारंभ में ही था किन्तु यही नश्वर जीवन, इस नश्वरता के बोध और भय से मुक्ति का माध्यम भी है। इसलिए आपको पर्याप्त महत्व गया हैं- इस जीवन की सर्वाधिक मूल्यवता है क्योंकि यहीं से यह प्रयास और प्रार्थना की जा सकती है कि-असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योर्तिगमय -अर्थात् मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। इस प्रकार इस जीवन को मृत्यु-दोष से युक्त मानने के बाद भी इसे त्यागने और उपेक्षित करने की वृति का भारतीय संस्कृति धारा में स्पष्टतः विरोध है।
जैसा कि ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँसमाः ।
एवं त्वयि नान्यथतोऽस्ति, न कर्म लिप्यते नरे ।। (ईशा0 2)
- कि “केवल कर्म करते हुए ही एक सौ वर्ष की आयु तक मनुष्य को जीवित रहने की आशा करनी चाहिए।” यह दृष्टि जीवन की पूर्णता के प्रतिपादन का आधार है कर्म। कर्म करना है और कर्म के लिए शरीर साधन आवश्यक है। इस हेतु शरीर की किसी विधि रक्षा करना ही परम धर्म है जैसा कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहा है कि “जीवन जिस प्रकार से सुरक्षित रहे, उस प्रकार का प्रयत्न बिना किसी अवहेलना के करना चाहिए। मरने से जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवित पुरूष पुनः धर्म का आवरण कर सकता हैं। यह जीवन धर्म के आचरण का आधार है। धर्म भी मात्र आध्यात्मिक नहीं हैं इसकी पूर्णता तभी है, जब मानव जीवन के सभी पक्षों, भौतिक, नैतिक, भावात्मक तथा आध्यात्मिक का सम्यक विवेचन एवं उनकी पूर्ति का प्रयास हो ।
- इसके लिए भारत में कर्मवादी दृष्टि अत्यन्त प्रखरता से प्रतिपादित की गयी है। कर्म मीमांसा का एक महत्वपूर्ण निकाय ही विकसित हुआ। गीता में श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि बिना कर्म के किसी भी व्यक्ति का एक क्षण भी स्थित रहना संभव नहीं हैं। देश या भूमि पर विचार करते हुए भी भारतवर्ष को कर्म क्षेत्र के रूप में प्रतिपादित किया गया हैं। यहाँ यह स्पष्ट मान्यता रही है। और है कि इस लोक में विश्राम नहीं हैं। यहाँ तो जीवन भर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म ही संसार चक्र की गति को जारी रखता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर से पूरा प्रयत्न कर इसकी गति को जारी रखना चाहिए।
- कर्म के प्रति यह जोर कर्म-परिणाम की दृष्टि से नैतिकता के आधारभूत सिद्धान्तों की अपेक्षा करता है। भारतीय संस्कृति इस दृष्टि से भी विशिष्ट है कि यहां कर्म या मानवचारण को नियमित करने के लिए नैतिक उपदेशों को अपेक्षा नियामक सिद्धान्तों का प्रवर्तन दुनिया में प्रथम बार किया गया । यद्यपि नैतिक आचरण का वर्णन भी दुनिया की किसी भी अन्य संस्कृति से अधिक विपुल और व्यापक है किन्तु सामान्य नियामक सिद्धान्तों की प्रस्तुति विश्व में प्रथम बार की गयी है । अर्थात् हमें क्या करना चाहिए या मनुष्य के लिए क्या-क्या करणीय है अथवा क्या अकरणीय ? इसकी लम्बी सूची गिनाने की अपेक्षा किस प्रकार कर्म करने चाहिए कि वे नैतिक कर्म हों, यह प्रमुख प्रतिपाद्य हैं। यह इस समस्या से जुड़ा है कि किस प्रकार कर्म से उत्पन्न होने वाले परिणाम बन्धनों से मुक्त रह सके।
- इस पर गहराई से विचार किया जाय, तो यह ध्यान में आयेगा कि प्रकृति नियन्त्रित अथवा ईश्वर नियन्त्रित कर्म सिद्धान्त की अपेक्षा कर्म स्वातन्त्र्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन तथा उसे धर्माचरण का भाग बनाना भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य है। इसको नीति दर्शन की तुला पर मूल्यांकित करते हुए डॉ० एस० राधाकृष्णन कहते हैं कि केवल अवस्था मात्र है। यह नियति नहीं हैं। कर्म की सिद्धि के लिए पांच अवयवों का होना आवश्यक है। ये हैं अधिष्ठान, अथवा आधार, या कोई ऐसा केन्द्र जहाँ से कर्म किया जा सके, कर्ता अर्थात् कर्म करने वाला, करण अर्थात् प्रकृति का साधन, चेष्टा अर्थात् प्रयत्न या पुरूषार्थ और दैव अथवा भाग्य ।
- इस विवेचन से स्पष्ट है कि नियति या भाग्य मनुष्य के कर्म का एक आयाम या अवयव मात्र है, उसके कर्म को नियन्त्रित करने वाली अन्तिम सता नहीं । इसलिए मनुष्य को कर्म करने तथा कर्मों का चयन करने की पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त हैं। इस प्रकार किसी भी प्रकार के भाग्यवाद का यहाँ स्पष्ट निषेध भी परिलक्षित होता हैं।
- कर्म के इस स्वातन्त्र्य और इसके नियामकस्वरूप का वर्णन करते हुए डॉ० राधाकृष्णन् कहते हैं कि जिससे हमारा ईश्वर मनुष्य और प्रकृति के साथ यथार्थ एक्य अभिव्यक्त हो, वही शुद्ध आचरण है और अशुद्ध आचरण है और अशुद्ध आचरण वह है जो यथार्थता के इस अनिवार्य संगठन के प्रतिपादन में असमर्थ हैं। विश्व का एकल आधारभूत सिद्धान्त है । जिससे पूर्णता की प्रगति हो सके, वही पुण्य है और जिसकी इससे संगति न बैठे, वह पाप हैं।
- कर्म के इस सिद्धान्त के प्रति मुक्त एवं बद्धपुरूष तथा ईश्वर सभी उत्तरदायी हैं। मुक्तपुरूष, पूर्णता को प्राप्त पुरूष को भी लोकसंग्रह की भावना से कार्य करना चाहिए और संसार मात्र के कल्याण को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। श्रमण धारा में भी बोधिसत्व का यही आदर्श है कि जब तक पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति कलि के कलुष से दुःखतप्त है, उसे निर्वाण नहीं चाहिए।
- इस नैतिकता के नियामक सिद्धान्त के पीछे ऋतु की अत्यन्त प्राचीन व्यवस्था है। नैतिक पूर्णता एवं कर्म सिद्धान्त के बीच इसी में निहित हैं। जो आदमी जैसा काम करता है और जिस प्रकार का जीवन बिताता है, उसी के अनुसार वह बन जाता है। इसको व्याख्यायित करते हुए कहा गया हैं कि मनुष्य स्वयं इच्छानुसार अपना निर्माण करता है और उसी की इच्छा के अनुसार उसका निश्चय होता है तथा अपने निश्चय के अनुसार कार्य करता हैं और उसके कार्यों के अनुसार उसका प्रारब्ध होता हैं।
- यह संकल्प एवं कर्म की स्वतन्त्रता का वो उच्चतम आदर्श है, जो अन्य किसी ऐतिहासिक संस्कृति में उपलब्ध नहीं होता तथा वर्तमान सांस्कृतिक समूहों में भी कठिनाई से प्राप्त होता हैं।
एकात्मवाद -
- लोकतंत्र का भाव या कर्म की पूरी स्वतन्त्रता के बाद भी अनिवार्य रूप से श्रेष्ठ कर्म का ही चुनाव करके एक ऐसी लोकोत्तर मान्यता पर प्रतिष्ठित है, जिसे एकात्मभाव या सर्वात्मभाव का सिद्धान्त कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति की चिति, उसके द्वारा प्रस्तुत सबमें एक आत्मा के होने की मान्यता है। इसका स्पष्ट रूप उपनिषदों में देखा जा सकता हैं।
- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र में ही कहा गया हैं कि- ईशावास्यामिदं सर्वं यत् किञ्चंजगत्यां जगत्....... इस संसार में जो कुछ हैं वह सब ईश्वर का प्रकाश है अर्थात् सभी सांसारिक पदार्थ एक ही अद्वैत विश्वातीत किन्तु सर्वव्यापी तत्व की अभिव्यक्ति है, वहीं तुरीय तत्व समस्त वह ब्राह्मण्य के साथ एकाकार हो करके, अविद्या और मोह के बल पर सुख की स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता हैं। इस महनीय सिद्धान्त के आधार पर ही भारतीय संस्कृति में मानव मात्र को ज्ञान प्राप्त करने तथा सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति करने का अधिकार दिया गया हैं। यह अद्वैतवाद में अपनी चरम परिणिति प्राप्त करता है जो समस्त विश्व के विभेदों में एक परम सत् और उस परम सत् में अनन्त विश्व का भेद खोजने की दृष्टि हैं।
उतरदायित्व की पवित्रता भारतीय संस्कृति का एक पक्ष
- जिस प्रकार के कर्मवाद की प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति में की गई है और कर्म को मुक्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया हैं। उससे यह संभावना बनती हैं कि व्यक्ति समस्त कर्मों को अपनी व्यक्तिगत मुक्ति के लिए करेगा। किन्तु यह संकट भारतीय जीवन पद्धति में खड़ा नहीं होता है, क्योंकि यहां उन सभी सम्भावनाओं को समाप्त करते हुए दायित्व के भाव की सहज प्रतिष्ठा के लिए आनृण्य 'ऋण मुक्त होना' व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया हैं। यह चिन्तन अपने ढंग का अद्वितीय है और विश्व की किसी अन्य संस्कृति में प्राप्त नहीं होता हैं। आनृण्य व्यवस्था व्यक्ति को माता, पिता के प्रति, गुरू के प्रति, देवताओं के प्रति कृतज्ञता के भाव को उत्पन्न करते हुए उनसे जो कुछ प्राप्त हुआ, उससे उऋण होने की प्रस्तावना प्रस्तुत करती हैं। इस व्यवस्था की विशिष्टता यह है कि जिससे ऋण प्राप्त होता है, उसे नहीं लौटाना है अपितु उसके लिए अन्य को लौटाना है, यह समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हैं। इस व्यवस्था के फलस्वरूप मनुष्य अपने समस्त कर्तव्यों की पूर्ति के लिए उत्तरदायी बनता है और अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति में अक्षम होने पर वह पाप का भाजन तो होता ही है, लोकनिन्दा का भी पात्र बनता हैं ।
- इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को, जो गृहस्थ है अर्थात् जिसका उत्पादन व्यवस्था में सहकार है, जिसने समाज से अपना प्राप्तव्य प्राप्त कर लिया है। उसका समाज के प्रति यह दायित्व है कि वह उसके भरण-पोषण एवं अभ्युन्नति के लिए प्रयास करें। इस प्रयास को यज्ञ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हैं। प्रत्येक गृहस्थ की यह जिम्मेदारी हैं कि वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में तीन महत्वपूर्ण यज्ञों को स्थान दें। ये यज्ञ है, ब्रह्म यज्ञ अर्यात् अध्यापन, इस अनादि विश्व में अनेकों प्रयास से जो ज्ञान का विकास हुआ है और व्यक्ति तक पहुंचा हैं, उसके आगे संक्रान्त करना, विकसित करना और अगली पीढ़ी तक पहुँचाना प्रत्येक का कर्तव्य हैं। जो इस कर्तव्य का पालन नहीं करता है, वह ज्ञान का द्रोही है, ब्रह्म दोषी हैं। इसी प्रकार पितृयज्ञ अर्थात् तर्पण और प्रजापालन अर्थात् अतिथि सेवा, मानव सेवा, यह मानव का परम उत्तरदायित्व है। प्रतिदिन, प्रत्येक व्यक्ति भोजन के पूर्व एक निश्चित समय सीमा तक, भोजन के पूर्व एक निश्चित समय सीमा तक, भोजन के पूर्व घर के बाहर खड़े होकर, किसी अतिथि की प्रतीक्षा अवश्य करें, जिसे भोजन करा कर, वह अपने नृयज्ञ की पूर्ति की दिशा में, एक सार्थक प्रयास को सम्पन्न कर सके।
- मनुष्य को इस प्रकार की उदात्त भावना से प्रेरित करने की व्यवस्था मात्र भारतीय संस्कृति में ही प्राप्त होती हैं । अतिथि का स्वागत परम कर्त्तव्य है, और जो मनुष्य अतिथि का स्वागत नहीं करता हैं, वह घोर एवं गम्भीर पाप का भागी होता हैं। इसका विस्तृत वर्णन करते हुए मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि जो गृहस्थ अतिथि का सत्कार नहीं करता है, वह स्वयं केवल पाप का भक्षण करता है। यह व्यवस्था मानव के भाव पक्ष के उदात्तीकरण का अद्भुत प्रयास हैं। भारतीय वंश परंपरा इस व्यवस्था के माध्यम से यात्रियों एवं भोजनावास इत्यादि की व्यवस्था, न केवल व्यवस्था अपितु सम्मानपूर्वक व्यवस्था का प्रबन्ध करती हैं।
- भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति को देवता, गुरू तथा माता-पिता के ऋण के माध्यम से अन्यों के प्रति उत्तरदायी होने की जो व्यवस्था की गयी हैं, वह उत्तरदायित्व की पवित्र भावभूमि पर मानव कर्म को स्थापित करने का प्रयास हैं। जिसमें कोई छोटा नहीं हैं, जिसमें कोई अनुत्तरदायी नहीं, सभी विशिष्ट मानवीय गरिमा से युक्त हैं, प्रत्येक पीढ़ी पूर्वजों से प्राप्त भौतिक आध्यात्मिक एवं अन्य उपलब्धियों को अपनी उत्तवर्ती पीढ़ी को देने के लिए जिम्मेदार हैं। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण सामाजिक अनुबन्ध और समाज के प्रति व्यक्ति का दायित्व उसका सहज भाव हो जाता है। इसके लिए किसी बाध्यतामूल नीति की आवश्यकता नहीं होती हैं ।
करूणा का आदर्श भारतीय संस्कृति की विशेषता
- भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता हैं करूणा की - भावना । ऐसी भावना जो करूणा को विश्वबन्धुत्व के उत्कर्ष तक ले जाती हैं। मानव पीड़ा के प्रति असीम व निर्मल करूणापूर्वक चिन्ता, सार्वभौम करूणा एवं सद्भावना हमारी अनादि विशिष्टता है। सामान्यजन ने विशिष्ट करूणा, धैर्य एवं कृपा से संयुक्त बद्ध एवं महावीर जैसे युग पुरूषों को भगवान के उच्चासन पर बैठाकर पूजा करते हैं। अनेक स्मारकों एवं प्रतीकों में आज भी वैश्विक करूणा के ये मूर्तिमान स्वरूप पूरे देश में पाये जाते हैं ।
- करूणा की यह भावना मनुष्य के दैनिक जीवन व्यवहार का ही हिस्सा नहीं रही। अपितु उससे आगे बढ़कर के यह कला एवं अन्य भावनात्मक क्रियाओं का स्थायीभाव बन गयी । करूणा को केन्द्रित करके दुनिया में कहीं भी इतनी रचनाओं की, इतने विस्तृत क्षेत्रों में प्राप्ति नहीं होती हैं। जहां मिस्र सभ्यता के कलातथ्य मिस्र के वैभव, राजा के प्रताप एवं ऐश्वर्य का प्रतिबिम्बन करते हैं, वहीं ग्रीक व रोमन सभ्यता के कलावशेष नागरिक जीवन की जटिलता एवं श्रृंगार एवं विलास से युक्त नगर-जीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं ।
- इन दोनों ही सभ्यताओं के विपरीत भारतीय संस्कृति में करूणा की प्रतिष्ठा, शिव, बुद्ध, महावीर, पशुपति, प्रजापति इत्यादि की प्रतिमाओं में अपनी रचनात्मक भावभूमि से सहज ही होती है और सकल विश्व के दुःख से कातर और उसके परिहार के लिए चिन्तित मानव के उदात्त स्वरूप का दर्शन करती हैं। हमारी संस्कृति में दूसरों के लिए अपने जीवन का त्याग करने की जो महनीय प्रवृति पायी जाती हैं, वह किसी भी अन्य संस्कृति के लिए वरेण्य हैं। करूणा ही इसका आधार हैं। करूणा के भाव अनासक्ति का उदय होता है। करूणा ने धर्म एवं कला का ऐसा गठबन्धन किया कलाकृतियों में चाहे वह किसी भी पन्थ से अनुप्राणित कृति हो वही प्रेरणा, वही साधना, वही तन्मयता दिखायी देती है जिसने पृथ्वी पर स्वर्ग निर्माण किया है।
मनुष्य के सर्वविधि उन्नति पर जोर
- करूणा के विस्तार का स्वाभाविक परिणाम था कि मनुष्य की सर्वविध उन्नति के प्रयास हुए। परिणामतः भारतीय संस्कृति का जोर मात्र मनुष्य के आध्यात्मिक और बौद्धिक जगत की सन्तुष्टि तक ही नहीं हैं, बल्कि उसे आगे तर्कशास्त्र, भाषाविज्ञान, आयुर्विज्ञान, ज्योतिषशास्त्र एवं अन्य विज्ञानों के विकास में भी पाया जाता हैं अर्थात् स्थापत्य से लेकर प्राणिविज्ञान तक सभी स्थानों पर करूणा की दृष्टि और दुःखकार प्राणियों के दुःखमोचन का प्रयास सर्वत्र दृष्टिगोचर होता हैं। जैसा कि चर्चा हो चुकी हैं, कि मनुष्य कल्याण, उसकी उन्नति मात्र आध्यात्मिक या उपासना दृष्टि से संभव नहीं हैं। इसके लिए अन्य पक्षों का भी विस्तार एवं विकास आवश्यक हैं ।
- भारतीय संस्कृति में यह विस्तार अत्यन्त प्रबलता एवं प्रखरता से प्राप्त होता हैं। विज्ञान एवं तकनीक क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियां अत्यन्त विस्मयकारी एंव गौरवशाली हैं। भारतीयों ने गणित एवं यन्त्रविद्या की नींव डाली। उन्होंने भूमि का मापन किया, वर्ष के विभाग किये, आकाश का मानचित्र बनाया और सौरमण्डल के परिभ्रमण चक्र का परिशीलन किया और उपग्रहों की गति का अत्यन्त सूक्ष्त सीमा तक मूल्यांकन प्रस्तुत किया। प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में पक्षियों, पशुओं, पेड़ों, पौधों ओर बीजों आदि तक का अध्ययन किया। चिकित्सा विज्ञान में भी ज्योतिष एवं अध्यात्म विद्या के समान भारतीय संस्कृति की प्रमुखता सन्देह से परे है।
- आयुर्वेद एवं शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में भारतीय उपलब्धियां आज भी कई दृष्टियों से दुनिया के आधुनिकतम ज्ञान विज्ञान को चकित कर देने वाली हैं। खगोल विद्या के क्षेत्र में तो मात्र एक उद्धरण ही भारतीय सांस्कृतिक धारा के मनीषा की श्रेष्ठता को सिद्ध की देने के लिए पर्याप्त हैं। कि कोपरनिकस से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व (न्यूनतम) लिखे गये ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा गया हैं कि “सूर्य न तो कभी अस्त होता है न तो कभी उदय, जब लोग सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो रहा है, तब वह केवल एक परिवर्तन में आता हैं। दिन के अन्त में नीचे के हिस्से में रात हो जाती हैं और दूसरी ओर दिन हो जाता हैं, फिर जब लोग सोचते हैं कि सूर्य उदित हो रहा हैं, तब वह केवल रात्रि के अन्त में पहुँच कर केवल एक परिवर्तन में आ रहा होता हैं और नीचे के हिस्से में दिन और दूसरे हिस्से में रात कर देता हैं।"
- भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत की उपलब्धियां अत्यन्त आह्लादकारी हैं। इस प्रकार समाज विज्ञान के समस्त आयामों का सम्यक् विवेचन राजशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं धर्मशास्त्रों में पाया जाता हैं । लोकतंत्र एवं कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भारत में ही विश्व में सबसे पुरानी हैं। इतना ही नहीं सर्वपन्थ-समभाव की अवधारणा को राज्य के नीतिनियामक तत्व के रूप में स्वीकार करने के प्राचीनतम उदाहरण भारत में ही प्राप्त होते हैं।
- यदि राजनीति के क्षेत्र में अंग्रेजों के द्वारा लिखे कल्पित इतिहास से प्रभावित होकर, वेदों एवं उपनिषदों के महान् युग तथा महानतम शिक्षाओं को इस क्षेत्र में कल्पना भी माने तो चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के शासन को तो यथार्थ स्वीकार करना ही पड़ेगा और पश्चिम में लोककल्याणकारी राज्य एवं सेकुलर राज्य की स्थापना से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारत में राज्य के लोककल्याणकारी स्वरूप एवं उसके सर्वपन्थ समभाव की दृष्टि से इनकार नहीं किया जा सकता हैं। चन्द्रगुप्त जिस अर्थशास्त्र को आधारित करके राज्य व्यवस्था का संचालन करता था, उसमें स्पष्टतः स्वीकार किया गया है कि जनता के सुख एवं नैतिक जीवन का दायित्व राज्य पर है। अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि “प्रजा का सुख ही राजा का सुख है तथा प्रजा का हित ही राजा का हित है। राजा का हित अपने आनन्द में नहीं वरन् प्रजा के आनन्द में हैं। " अशोक के शिलालेखों से भी यह बात स्पष्ट रूप से ध्वनित होती हैं। राज्य सभी के प्रति सहिष्णु हो तथा सभी के आचारों, विचारों का आदर करें, सबका सब के प्रति समत्व भाव बनें तथा कानून के समक्ष सबकी समानता हो, इसका भारतीय राज्य व्यवस्था में विशेष आदर रखा जाता था।
भू - सांस्कृतिक राष्ट्रीयता
- भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवधारणा उसकी भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता हैं। इसको भारतीय संस्कृति के अत्यन्त व्यावर्त्तक लक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैं। पश्चिम की राज्य राष्ट्र की अवधारणा के विपरीत भारत में प्राचीनतम काल से ही भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का सिद्धान्त रहा हैं। यही कारण हैं कि अनेक प्रभुसता सम्पन्न राज्यों के होते हुए भी भारत भूमि को एक राष्ट्र के रूप में सर्वत्र स्वीकृति मिली, जो कि एक राष्ट्र एक जन की मान्यता का प्रतिपादन करता हैं। इस विशिष्टता को यूरोपीय इतिहास अथवा यूरोपीय इतिहास की दृष्टि से भारतीय इतिहास का लेखन और मूल्यांकन करने के तर्कों ये समझ पाना संभव नहीं हैं। युद्ध, राजनीति और आर्थिक संघर्ष को भारतीय विकास का स्त्रोत मानकर हम भारत तथा भारतीय इतिहास की राष्ट्रीय दृष्टि से कदापि नहीं समझ सकते हैं।
- स्वयं भारत शब्द भी एक भू सांस्कृतिक अवधारणा को ही प्रस्तुत करता हैं, भारतीय संस्कृति में भूमि को माता माना गया है, एक भूमि पर रहने वाले समस्त जन उसके पुत्र हैं, भारत जो इस देश के पूर्वजों में श्रेष्ठतम हैं, उसके नाम पर इसे भारत कहा गया हैं। माता को ज्येष्ठ पुत्र के नाम से जोड़ कर बुलाने की परंपरा भी इस भूमि पर प्राप्त होती हैं। दूसरा अर्थ यह भी प्राप्त होता हैं कि 'भा' यानि प्रकाश, 'रत' यानि लगा हुआ, अर्थात् प्रकाश की प्राप्ति में लगे हुए लोगों का जो जन भूमि संघात है, वह ही भारत हैं। राष्ट्र शब्द वैदिक काल से ही अपने मूल अर्थ में प्राप्त होता हैं। राष्ट्र एक सुघटित इकाई हैं, राज्य या किसी प्रकार की शासकीय सत्ता से इसका अर्थ सम्बन्ध रंच मात्र का भी नहीं हैं, माता भूमि, भारती वाक्, राष्ट्र इन वैदिक अवधारणाओं का पल्लवन ही भारत हैं। इस भारतवर्ष को एक यज्ञ वेदी के रूप में प्रस्तुत किया गया हैं। जो उत्तर की ओर ऊँची हैं, दक्षिण की ओर ढलुआ है। इसे बाणयुक्त चढ़ा हुआ धनुष कहा गया हैं। हिमालय का विस्तार उस धनुष का आधार दण्ड हैं और दक्षिणपथ खिंची हुई डोरी, जिसके बीच में बाण रखा हुआ हैं। कन्याकुमारी का अन्तरीप उस बाण की नोक हैं। इस भू-सांस्कृतिक अवधारणा का वर्णन सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में प्राप्त होता हैं । वेद जीवन की श्रेष्ठता को राष्ट्रीय सम्पन्नता की मांग में देखते हैं, तो पुराण भारतवर्ष का विहंगम मानचित्र खींचते हैं, पर्वतों एवं नदियों के माध्यम से समूचे भारत का विस्तृत वितान प्रस्तुत करते हैं। जीवन पद्धति की दृष्टि से भी प्रातः उठकर, स्नान करते समय, उपासना के समय, सोते समय, नदियों, नगरों, महापुरूषों के स्मरण का एक ऐसा विधान नियोजित होता है जो किसी अन्य संस्कृति में दुर्लभ हैं। पूरब के व्यक्ति को पश्चिम से, पश्चिम के व्यक्ति को पूरब से, उतर का दक्षिण से, दक्षिण को उतर से प्रतिदिन के व्यवहार में जोड़ने और सुदूर भारत को अपने नित्य के अनुभव का विषय बनाने की जो अनुपम विधि प्रस्तावित की गयी हैं, वह उत्कृष्टतम हैं। यह भारत-भाव ही जीवन विधि हैं, भारत-भाव की प्रतिष्ठा मात्र, भारत के लिए नहीं हैं, वह तो तभी चरितार्थ होता है जब हम अपने दायित्वों को करते हुए, सबमें अपनी चेतना का दर्शन करते हुए, सबकी पीड़ा बांटते हुए, समस्त सृष्टि के कल्याण के लिए आकुलता का जागरण करते हुए, अपनी भारतीयता को प्रमाणित करें ।
पुराण भारतीय संस्कृति के आधारस्तम्भ
- भारतीय संस्कृति में पुराणों का स्थान न केवल प्राचीन काल में ही अत्यंत महत्वपूर्ण रहा हैं, वरन ह आज भी है। क्योंकि इनके ही माध्यम से पुरातन भारतीय मनीषा, कला तथा इतिहास की त्रिवेणी का संरक्षण अत्यन्त ही व्यवस्थित रूप में किया जा सका हैं। पुराण आर्य साहित्य रूपी मन्दिर के उन दैदीप्यमान स्वर्णिम कलशों के समान हैं, जिनका अवलोकन करने मात्र ही से मन्दिर की भव्यता, महानता, सुन्दरता और उपयोगिता का आभास हो जाता हैं । वास्तव में पुराण भारत के त्रिकालज्ञ ऋषियों- महर्षियों और महान विद्वानों, चिन्तकों तथा तत्वज्ञों का वह प्रसाद हैं, जिसमें प्राणीमात्र की सर्वांगीण उन्नति और परम कल्याण की साधना सम्पति अक्षय भण्डार निहित हैं। इस भण्डार के बल पर भारत बौद्धिक दृष्टि से आज भी एक ऐसा सम्पन्न देश हैं, जो प्राणी मात्र के कल्याण के लिए विश्व को बहुत कुछ दे सकता हैं। पुराण मानव सृष्टि की आदि स्थिति के साथ-साथ उसके क्रमिक विकास के अन्तर्गत आधुनिक काल तक का ब्योरा देने के बेजोड़ साधन हैं। विश्व के किसी भी देश या जाति धर्म में ऐसा कोई भी ग्रन्थ नहीं हैं, जिसमें इस प्रकार से अनादि काल से सृष्टि क्रम का इतना पुष्ट विवरण सुलभ हो आज के इतिहासकारों द्वारा जिस युग को प्रागैतिहासिक अथवा अंधयुग कहा जाता है, उसमें भी पुराणों की दिव्य-प्रभा प्रकाश स्तम्भ के रूप में कार्य करती हैं। भारतीय संस्कृति और इतिहास की जो आधारभूत सामग्री पुराणों के माध्यम से हजारों-हजारों वर्ष पूर्व प्रस्तुत की गई हैं, वह आज के भारतीय शिक्षाविदों के लिए भी सुखद विस्मय प्रस्तुत कर देती हैं। वास्तव में पुराण भारतीय संस्कृति की एक अनुपम, अद्भुत, अद्वितीय और अमूल्य निधि है।