गौरवशाली भारतीय संस्कृति, संस्कृति की अवधारणा, भारतीय संस्कृति के मानदण्ड
गौरवशाली भारतीय संस्कृति (Glorious Indian Culture)
- भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति हैं। इसके साथ की अन्य संस्कृतियां या सभ्यताएं चाहे वह यूनानी सभ्यता हो या मिस्त्री सभ्यता, आज अपने मूल स्वरूप में प्राप्त नहीं होती हैं। उनके स्वरूप का आकलन पुरातात्विक अवशेषों या लिखित अभिलेखों से ही हो पाता हैं। किन्तु भारतीय संस्कृति में एक अविच्छिन्नता हैं, इसका कारण पना और यथार्थ का लगभग संरूप आदर्श प्रस्तुत कर, समाज का व्यवस्थापन तथा उसको उदात्त लक्ष्य की ओर प्रेरित करना । भारतीयता की शाश्वत विकास यात्रा का रहस्य, मानव के आचार व्यवहार का यथासंभव सीमा तक सुव्यवस्थापन, तर्क एवं श्रद्धा का समन्वय कर, सन्तुलित और सोद्देश्य जीवन प्रणाली की स्थापना में हैं। भारतीय एक सनातन यात्रा हैं, एक अमृत पंथ हैं, जो अनादि से अनन्त तक विस्तृत हैं। भारत की आत्मा या भारतीयता को मात्र इतिहास के दिशा सन्दर्भ में नहीं समझा जा सकता हैं क्योंकि भारतीय संस्कृति का इतिहास घटनाओं और तथ्यों का पुंज मात्र नहीं हैं । प्रत्येक घटना, प्रत्येक काल का इतिहास एक मूल्यदृष्टि का सृजन करता हैं जो देशानुकूल, कालानुकूल, व्यावहारिक परिवर्तनों के साथ ही सत्य के खोज एवं उसकी प्राप्ति के आग्रह से युक्त हो सर्वतो भावेन लोक मंगल के लिए प्रयासरत समष्टि जीवन का मूल्याधिष्ठित स्वरूप प्रस्तुत करता हैं। भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को इन सन्दर्भों में ही समझा जा सकता है।
1 संस्कृति का अवधारणा Concept of culture in Hindi
- संस्कृति अपने कलेवर में जीवनविधा तथा विचारविधा के समस्त आयामों जैसे व्यक्ति से व्यक्ति का सम्बन्ध, धर्म, कला, साहित्य, विश्राम एवं मनोरंजन की विधि, समाज का व्यवस्थापन, जीवनमूल्य, इत्यादि से व्यक्त होने वाली समष्टिगत प्रकृति को समाविष्ट करती हैं। अतः इसकी कोई सरल परिभाषा संभव नहीं हैं। किन्तु यह एक अवधारणात्मक तथ्य हैं जो ऐतिहासिक विकास में किसी भूमि पर बसने वाले जन समूह की विशिष्टता को व्यावर्तित कर, उसे अन्य भूमि से पृथक करती हैं । इसलिए उसको किसी भूमि पर लम्बे समय से निवास कर रहे जन समूह से के स्थिति के रूप में समझा जा सकता है अर्थात् समष्टिगत अनुभव को जो ऐतिहासिक विशिष्टता से युक्त होता हैं, संस्कृति कहा जा सकता हैं। इस स्पष्टीकरण की भी अपनी सीमा है।
- व्यक्ति से अतिरिक्त समाज का अस्तित्व नहीं होता है, अतः व्यक्तियों से समाज पृथक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती हैं। इस समस्या का पश्चिम की तर्कणा पद्धति से कोई उत्तर नहीं प्राप्त हो सकता। शायद यही कारण रहा होगा कि भारतीय वांड.मय में समाज की उत्पति को तर्क से सिद्ध करने की चिन्ता न करके यह मान लिया गया कि यह विश्व तथा समाज अनादि और इसी सामाजिक एवं सांकेतिक विश्व में मनुष्य अपने मौलिक संस्कार अर्जित करते हैं और उसे चिरकाल से एक सनातन आदर्श व्यवस्था का लौकिक अनुकरण समझा जाता हैं । अर्थात् संस्कृति किसी समाज के मानस पर पड़ने वाले प्रभावों की ऐसी प्रवृति का द्योतक है, जो विशेषतः उसकी अपनी होती है और पुनः उसके समस्त इतिहास में उसके भावों, उद्वेगों, विचार, वाणी एवं कर्म का संयुक्त तथा संचित प्रभाव होता हैं। संस्कृति विशिष्ट आत्मचेतना है, जिसको सामाजिक अनुभव का विश्लेषण कर, संकल्पनाओं, प्रतीकों और मूल्यों, दृष्टिकोणों तथा मनोवृतियों के रूप में ढाला जाता हैं।
- इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि संस्कृति समष्टिगत समान अनुभव से उत्पन्न होती है। एक ही जलवायु में पले, एक ही प्रकार के पर्वतों, नदियों, झरनों तथा सागर को देखने वाले एक ही प्रकार के सामाजिक, आर्थिक अनुभव एवं सुख-दुःख को भोगने वाले, एक ही प्रकार की ऐतिहासिक परंपरा का वहने करने वाले, समान पूर्वजों की सन्तान समझने वाले ऐसे, समूह एक संस्कृति वाला कहते हैं जो इन सबके साथ समान रूप से मानापमान का अनुभव करें।
भारतीय संस्कृति (Indian culture in Hindi )
- यह स्पष्ट हो चुका हैं कि संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं जिसमें कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है और जीवन लक्ष्य को निर्धारित करता है । अतः भारतीय संस्कृति के स्वरूप को समझने के लिए उसकी विशिष्ट संकल्पना, प्रतीक, तथा मूल्यों एवं मनोवृतियों को विश्लेषित कर समझना आवश्यक हैं।
- भारतीय संस्कृति शब्द से एक विशिष्ट भू-सांस्कृतिक क्षेत्र का बोध होता है अर्थात् भारत नामक वह भू-भाग है जो इतिहास के प्रारंभ के साथ, पूर्वोक्त विशिष्टताओं से युक्त है। भारत भूमि पर रहने वाले जन समूह ने इतिहास के प्रारंभ से वर्तमान तक बहुत कुछ समान अनुभव अर्जित किये हैं । इन अनुभवों से जिन संस्कारों का निर्माण हुआ है, जो वैचारिक दृष्टिकोण विकसित हुआ हैं, उन सबका द्योतन संस्कृत में होता है। इस संस्कृति की अभिव्यक्ति धर्म, वांगमय, विज्ञान, तकनीक, कला, राज व्यवस्था सभी में स्पष्ट रूप से होती है। लौकिक एवं पारलौकिक स्तर पर व्यक्ति एवं समष्टि के स्तर पर इस विशिष्टता का पूरी स्पष्टता के साथ अनुभव किया जा सकता हैं ।
- श्री0 अरविन्द ने संस्कृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए कहा है कि ज्ञान, विज्ञान, कला, चिन्तन और नैतिकता, दर्शन, धर्म ये मनुष्य के वास्तविक व्यापार हैं और उसी से संस्कृति रूप ग्रहण करती है। इसे भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में देखना होगा। भारतीय संस्कृति का वैशिष्टय उसकी परिष्कारवादी विधि में हैं। यह एक ऐसी सामूहिक जीवन-प्रणाली हैं, जो प्रकृति प्रदत पदार्थों के निरन्तर संस्कारपूर्वक उसे सर्वश्रेष्ठ रूप में प्राप्त करने का प्रयास करती हैं । इस सर्वश्रेष्ठता की पूर्णता एक ऐसे अखण्ड बोध की प्राप्ति हैं जिसमें जगत की समस्त वस्तुएं अंगांगी भावपूर्वक एक ही सता के विविध अवयवों के रूप में प्रतिस्थापित हो जाती हैं।
- परिणामतः मनुष्य और उसके समस्त व्यापार एक दूसरे के पूर्वक बन कर, अपनी सार्थकता प्राप्त करते हैं। भौतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक, समस्त आयाम एक दूसरे के अविरोधपूर्वक सामजस्य की प्राप्ति के लिए अपने व्यापारों को संस्कारित करने का जो प्रयास करते हैं, उसी का नाम भारतीय संस्कृति हैं। यह काल की एक ऐसी सनातन यात्रा है जिसमें इतिहास की दयता उसके मूल्यबोध में समाहित है जिसमें घटना की अपेक्षा घटना से उत्पन्न मूल्यबोध अधिक महत्वपूर्ण है अर्थात् घटना प्रधान काल के इतिहास के स्थान पर घटना से प्राप्त होने वाली शिक्षा या उपदेश अधिक महत्वपूर्ण हैं ।
- प्रथमतः यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति अत्यन्त आशावादी जीवन पद्धति है। इसमें जीवन का उद्देश्य ही आनन्द की प्राप्ति है। तैतरीयोपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है कि 'कोई क्यों जीवित रहता, कोई क्यों सांस भी लेता यदि आनन्द न होता' अर्थात् जीवन पर्व हैं, उसको अनुष्ठित करने के लिए, ठीक से जीवन जीने के लिए, जो दत्त जीवन हैं, जिसमें मनुष्य एवं पशु के बीच कोई अन्तर नहीं हैं अर्थात् मौलिक आवश्यकताओं की दृष्टि से पशु एवं मनुष्य दोनों समान है, जिसमें सभी भोजन करते हैं, सोते हैं, भय होता है और यौन सुख की अभिलाषा होती हैं। इस समानता को छोड़कर मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने के लिए संस्कारों की आवश्यकता होती हैं। यही संस्कार की प्रणाली धर्म के नाम से ही जानी पहचानी जाती है। संस्कारित होना तथा संस्कारित करने की परंपरा को आगे बढ़ाना, सब तक पहुँचाना ही संस्कृति हैं।
- इस व्यापक दृष्टिकोण पर विचार किया जाय तो भारतीय संस्कृति जीवन के समस्त आयामों में विस्तार प्राप्त करने वाली प्रणाली या जीवन विधि हैं। यह किसी निश्चित विशिष्टता से युक्त होने तथा धरती की शेष संस्कृतियों से अलग होने के कारण महत्वपूर्ण नहीं हैं। अपितु इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस संस्कृति में युगानुकूल देशानुकूल परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए अपनी नित्य जीवन दृष्टि या मूल्य प्रणाली को संरक्षित करने की क्षमता हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति विश्ववारा संस्कृति हैं । काल के थपेड़ों के साथ इसमें क्षरण तो संभव हैं किन्तु यह मर नहीं सकती । यह अमर संस्कृति है क्योंकि यहां जीवन की अखण्डता और सम्पूर्णता पर बार-बार बल दिया गया है, यहां मान्यता है कि न तो राज्य अपेक्षित है न ही मोक्ष अभीष्ट है, अपेक्षा है, कामना है, तो मात्र इतनी कि कोई दुःखतप्त न रहे अर्थात् दुःखी लोगों के कल्याण के लिए सब कुछ, यहां तक कि अपना जीवन भी समर्पित करने की कामना ही, प्रति क्षण संस्कार के परिष्कार का आदर्श हैं । इसको अत्यन्त संतुलित शब्दों में स्तुत करते प्रसिद्ध साहित्यकार एवं संस्कृतिविद् प्रो0 राधाकमल मुखर्जी कहते हैं कि- “व्यक्ति का लक्ष्य है प्रवीणता की प्राप्ति तथा समाज का लक्ष्य है संस्कृति की उपलब्धि, दोनों लक्ष्य एक ही है, पूर्ण संतुलित एवं व्यावहारिक हैं।” यहां प्रवीणता जीवन में सद्गुणों का विकास ही हैं।
भारतीय संस्कृति के मानदण्ड Norms of Indian culture in Hindi
- विशाल एवं उदात्त जीवन पद्धति होने के नाते भारतीय संस्कृति को एक विशेष प्रकार की अमर्तता प्राप्त हो जाती है। जगत् में मनुष्य का कोई व्यापार या व्यवहार नितान्त एकाकी एवं अन्य से नितान्त अलग क्रिया नहीं है। किन्तु इस मान्यता के कारण अनेक दृष्टियां या मत संभव हैं, यद्यपि कि यह भी भारतीय संस्कृति की का एक वैशिष्ट ही है कि इसमें मनुष्य को अपने दृष्टि के निर्माण का व्यापक स्वातन्त्र्य प्राप्त है। किन्तु सामान्य बोध की दृष्टि से भारतीय संस्कृति के कुछ अवधारणात्मक संप्रत्ययों को अवश्य गिनाया जा सकता है जो समग्र भारतीय संस्कृति के मानदण्ड के रूप में समझे जाये और भारतीय दृष्टि से सुसंगत मानव व्यवहार में इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सके।
इस दृष्टि से कुछ प्रमुख अवधारणायें निम्नवत् हैं-
1. जीवन की पूर्णता एवं इस जीवन की नश्वरता का बोध ।
2. कर्म के प्रति जोर तथा नैतिक सिद्धान्तों की सर्वव्यापकता ।
3. मानव मात्र की एकात्मकता में विश्वास ।
4. उतरदायित्व की पवित्रता ।
5. करूणा का आदर्श ।
6. मनुष्य की सर्वविध उन्नति पर जोर ।
7. भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता ।
इन पर अलग-अलग विचार किया जाए ये विशिष्टतायें सार्वभौम एवं मानव मात्र के लिए अपेक्षित है, वरेण्य हैं, ऐसा प्रतिपादित किया जा सकता है यद्यपि कि ऐसा प्रतिपादन सर्वथा संभव हैं और अपेक्षित भी । किन्तु भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य प्रतिपादक मानदण्ड के रूप में इसे इसलिए प्रस्तुत करना आवश्यक हैं कि भारतीय संस्कृति ही एक मात्र ऐसी संस्कृति हैं, जिसमें ये सभी एक साथ तथा अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक परंपरा में प्राप्त होते हैं।