मानव संस्कृति के निर्माता के रूप में
मानव संस्कृति के निर्माता के रूप में
निम्नलिखित शारीरिक विशेषताओं के कारण मानव संस्कृति का निर्माता कहा जाता है-
1. सीधे खडें होने की क्षमता-
- मनुष्य में सीधे खड़े होने की क्षमता पाई जाती है- पशु अपने में चारों पैरों से चलते हैं लेकिन मनुष्य दो पैरों से चलता है और दो हाथों को अन्य उपयोगी कार्यो में लगाता है। यह उसकी अनोखी विशेषता है।
2. स्वतन्त्रतापूर्वक घुमाये जा सकने वाले हाथ-
- मानव के हाथों की बनावट इस प्रकार की है कि प्रत्येक दिशा में इन्हें सुगमता से घुमाया जा सकता है तथा इनकी सहायता से वह वस्तुओं को भली- भांती पकड़ सकता है। हाथ के अंगूठे की विशेष बनावट भी इसमें सहायक होती है जिसके कारण व्यक्ति अनेक आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है बड़े-बड़े यन्त्र, कल कारखाने,भवन-निर्माण व कलाकृति आदि का निर्माण तथा लेखन क्षमता आदि इन्हीं के कारण सम्भव हो सकी हैं। यदि यह क्षमता व्यक्ति में न होती, तो वह कोई भी रचनात्मक कार्य करने में अक्षम रहता।
3. तीक्ष्ण व केन्द्रित की जा सकने वाली दृष्टि
- मानव के पास तीक्ष्ण व केन्द्रित की जा सकने वाली दृष्टि हैं जिसके कारण वह घटनाओं को देख सकता है, निष्कर्ष निकाल सकता हैं, नवीन खोज कर सकता है तथा किसी वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता हैं।
4. मेधावी मस्तिष्क-
- मानव की सर्वाधिक योग्यता मेधावी मस्तिष्क का होना हैं। मानव में विचार करने की शक्ति होती हैं, जिसके कारण वह किसी कार्य की योजना बना सकता हैं, आविष्कार कर सकता हैं, कार्य-कारण सम्बन्धों को जान सकता हैं। इस प्रकार मेधावी मस्तिष्क मानव की सर्वाधिक उपलब्धि हैं। लिण्टन तथा डार्विन जैसे विद्वानों का मानना था कि मानव तथा उच्चकोटि के स्तनधारी जानवरों में मानसिक क्षमताओं की दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं हैं लेकिन अनेक विद्वान इसे तर्कसंगत नहीं मानते हैं। वास्तविकता तो यह हैं कि मानव का मस्तिष्क पशुओं की तुलना में अधिक विकसित हैं, जिसके कारण वह तर्क कर सकता है, विचार कर सकता है तथा संस्कृति का विकास कर सकता हैं।
5. प्रतीकों के निर्माण की क्षमता -
- मनुष्य में यह क्षमता हैं कि भाषा के माध्यम से वह विचारों का आदान प्रदान कर सकता हैं और उसके लिए मानव ने प्रतीकों को जन्म दिया है अर्थात् अर्थपूर्ण प्रतीकों के माध्यम से अपने विचारों को एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति तक पहुँचा सकता हैं। भाषा व्यक्ति के पास ही है, पशु समाज के पास ऐसी भाषा नहीं होती कि मानव के समान वे विचार अभिव्यक्त कर सकते हों- वास्तविकता तो यही हैं कि भाषा का अन्तर मनुष्य को पशुसे अलग करता है। पशुओं के पास चूँकि भाषा नहीं है, इसी से उनके पास संस्कृति नहीं हैं संस्कृति का संशोधन, संवर्धन, परिमार्जन, हस्तान्तरण आदि भाषा के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है । अर्थात् भाषा या प्रतीक मानव को संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं ।