गुप्तोतर काल से लेकर कुमारिल भट्ट तक के काल की वर्ण व्यवस्था
गुप्तोतर काल से लेकर कुमारिल भट्ट तक के काल की वर्ण व्यवस्था
- जाति और वर्ण की बाद में विस्तृत आलोचना की गई। उसके अनुसार यदि वर्ण का आधार कर्म हो तो जब कोई व्यक्ति अच्छा कार्य करें तो वह ब्राह्मण हो जाएगा और जब बुरा कार्य करे तो शूद्र हो जाएगा। इस प्रकार किसी व्यक्ति की कोई निश्चित जाति नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार जाति और और वर्ण दोनों के सिद्धान्तों का प्रभाव भारतीय समाज पर दिखता है। प्रारम्भ में वर्ण गुण और कर्म पर आधारित था, लेकिन बाद में भारतीय समाज व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों के कारण कुमारिल के समय तक वर्ण जाति का पर्यायवाची शब्द बन कर रह गया था ।
- 700 ई0 लगभग 'वर्ण' जाति का पर्यायवाची शब्द बन गया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गुण और कर्म के आधार पर वर्ण निर्धारण की प्रक्रिया पूर्ण रूप से खत्म हो गई। ब्राह्मणों ने वर्ण को जाति का पर्यायवाची शब्द मानकर जन्म के आधार पर वर्ण मानने की शुरूआत कर दी । उन्होंने मुसलमानों के आक्रमणों के बाद रक्त शुद्धि पर बहुत अधिक बल दिया और वैवाहिक सम्बन्धों खान-पान और व्यवसाय के चुनाव सम्बन्धी नियमों को अत्यन्त जटिल बना दिया। लेकिन समाज ने गुण और कर्म पर आधारित वर्ण सिद्धान्त का पूर्ण त्याग नहीं किया ।
- हरिश्चन्द्र प्रतिहार जन्म के आधार पर ब्राह्मण था, लेकिन शासक होने के कारण उसका कर्म क्षत्रियों जैसा था । उसने एक क्षत्रिय कन्या से विवाह किया। राजषेखर ब्राह्मण जाति से था, जबकि इसकी पत्नी अवंतिसुन्दरी चाहमान राजकुमारी थी किन्तु उसी के समान विदुषी थी इसलिए उसने उससे विवाह किया। इन दोनों वैवाहिक सम्बन्धों में स्पष्ट रूप से गुण और कर्म को निरर्थक तत्व माना गया है। इस काल में ब्राह्मणों की वेदाध्ययन और यज्ञ कराने में अभिरुचि समाप्त होने लगी थी और कुछ को शस्त्र चलाना रुचिकर प्रतीत हुआ इसलिए वे योद्धा बन गए । कुछ को कृषि कार्य या व्यापार करना अच्छा लगता था, अतः उन्होंने वैश्यावृति अपना ली । कुछ उच्च पदों पर नियुक्त हुए क्योंकि उनमें इन पदों पर कार्य करने के लिए अभीष्ट गुण और योग्यता मौजूद थी ।
जातीय संस्कृति -
- इसका तात्पर्य यह हैं कि कुछ ब्राह्मणों में भी जाति के अनुरूप कार्य करने का सिद्धान्त पूर्णतया सफल नहीं हुआ। गुण और कर्म पर आधारित वर्ण का सिद्धान्त अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ। इस काल में जिन व्यक्तियों ने व्यापार किया उन सभी की गणना वैश्यों में की जाने लगी। राजस्थान में अग्रवाल, माहेश्वरी, जायसवाल, खण्डेलवाल और ओसवाल सभी अपनी उत्पति क्षत्रियों से मानते है। इन पर जैन सम्प्रदाय की शिक्षाओं का कुछ इस प्रकार प्रभाव पड़ा कि उन्होंने क्षात्र धर्म छोड़कर वैश्यारवृति अपन ली। उन्होंने माँस भोजन छोड़ दिया और शाकाहारी हो गए और उनकी गणना वैश्यों में होने पर भी इस काल में वर्ण सिद्धान्त का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।
- शूद्रों का अपना कोई संगठन नहीं था। उनमें अधिकतर पैतृक व्यवसाय करते ही थे । अतः उनके वर्गीकरण में वर्ण सिद्धान्त का प्रभाव पड़ा। शिल्पियों और द्विजों की संस्कृति से हीन सांस्कृतिक स्तर वाले सभी व्यक्तियों को जिनकी पहले अपनी श्रेणियां थी, शूद्र कहा गया। उनकी आर्थिक स्थिति इस काल में पहले की अपेक्षा और भी खराब हो गई थी इसलिए उन्हें उच्च पदों पर भी नियुक्त नहीं किया गया और समाज में उनकी प्रतिष्ठा घट गयी । इस काल में वर्ण का निर्धारण किसी व्यक्ति के नैतिक और बौद्धिक स्तर के आधार पर नहीं होता था। स्मृतियों में भी वर्णों के कर्तव्यों पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया जिससे समाज की यथेष्ठ उन्नति हो सके । जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति के अधिकारों या विशेषाधिकारों का कोई महत्व नहीं था ।
- वर्ण व्यवस्था में आनुवांशिकता और जन्म को अधिक महत्व प्रदान नहीं किया जाता हैं। इसका परिणाम यह होता हैं कि व्यक्ति विशेष अपने विशेषाधिकारों को प्राप्त करने के लिए अत्यधिक प्रयत्नशील रहता है और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए प्रयत्न करता हैं। जाति शब्द का प्रयोग सबसे पहले निरूक्ति से प्राप्त होता है। स्मृतियों में बहुधा वर्ण और जाति अपने मौलिक अर्थों में प्रयुक्त नहीं किए गए हैं। एक शब्द को दूसरे अर्थ में प्रयुक्त कर दिया गया हैं। मनु ने एक प्रसंग में वर्ण को संकर जातियों के अर्थ में बताया है। इसके विपरीत मनु ने अनेक प्रसंगों में 'जाति' शब्द का प्रयोग 'वर्ण' के अर्थ में किया हैं। याज्ञवल्क्य ने एक प्रसंग में 'वर्ण' और ‘जाति’ दोनों शब्दों को भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया हैं। याज्ञवल्क्य ने भी एक दूसरे प्रसंग में 'जाति' शब्द का प्रयोग वर्ण के अर्थ में किया है। कालान्तर में वर्ण और जाति का भेद प्रायः खत्म हो गया ।
वर्ण की संकल्पना में निम्नलिखित विशेषताएं मानी जाने लगी जो इस प्रकार हैं -
(1) जन्म पर आधारित समाज में व्यक्ति की स्थिति।
(2) सामाजिक वर्गों का निश्चित अनुक्रम ।
(3) सजातीय विवाह और धार्मिक कृत्यों की पवित्रता के नियम ।
- समाज में किसी सामाजिक वर्ग की प्रस्थिति के दो पक्ष मौजूद हैं। धार्मिक कृत्यों के आधार पर और आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति के आधार पर । धर्मशास्त्रों में अधिकतर पहले पक्ष का विवेचन पाया जाता हैं। सभी स्मृतिकारों ने इस बात पर बल दिया हैं कि राजा को सब व्यक्तियों को उनके वर्ण के लिए उपरोक्त कर्तव्यों को करने के लिए बाध्य करना चाहिए और जो व्यक्ति ऐसा नहीं करे उसे दण्डित करना चाहिए। वर्णसंकर को रोकना भी सजा का प्रमुख कर्तव्य लिखा हैं। वैदिक काल में ही व्यक्तियों में अपने को श्रेष्ट समझने की भावनाओं का उदय हो गया था। इन्हीं दो भावनाओं ने कालान्तर में अनेक जातियों और उपजातियों के विकास को प्रोत्साहित किया। भौगोलिक कारणों से भी अनेक उपजातियाँ बनीं। सामाजिक कार्यों को सम्पादित करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के गुण, के योग्यता और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती हैं और समाज में व्यक्तियों में भी भिन्न-भिन्न योग्यताएं पाई जाती हैं। इसलिए समाज का यह कर्तव्य हो जाता हैं कि वह ऐसी व्यवस्था करें कि प्रत्येयक व्यक्ति को उसके गुणों और योग्यता के आधार पर कार्य करने का अवसर मिले। प्राचीन भारतीय संस्कृति में समाज में प्रतिष्ठा का मापदण्ड कभी भी किसी व्यक्ति की धन-सम्पति से नहीं लगाया जाता हैं। उच्चतम वर्ण के व्यक्तियों से यह आशा की जाती थी कि वे सांसारिक सुखों को त्यागकर जंगलों या गांवों और नगरों से दूर सादा जीवन व्यतीत करें । जहाँ सांसारिक आवश्यकताएं बहुत सीमित थी।
- वर्गीकरण का मुख्य आधार विश्व में सभी जगह मनोभावों का समान रहना बताया गया हैं। प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था का सिद्धान्त यह था कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार अपना कर्तव्य पूरा करें जिसके द्वारा समाज की सर्वांगीण उन्नति हो सके। एक वर्ण को दूसरे वर्ण से उच्च समझने की भावना उनमे न थी । उदाहरण के रूप में ब्राह्मण का अंग प्रमुख कर्तव्य समाज की बौद्धिक और आध्यात्मिक संस्कृति को आगे सभी दोषों से मुक्त रखना तथा बौद्धिक और आध्यात्मिक संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों को सौंपना था। इसी आधार पर ब्राह्मण को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे जैसे कि समाज में उनकी ऊँची प्रतिष्ठा तथा राजा तक आसानी से पहुंच। उससे स्वार्थ त्याग और समाज सेवा की भावना की उम्मीद सबसे अधिक की जाती थी। इसी प्रकार वर्णों के कर्तव्य थे और उन कर्तव्यों के आधार पर ही उसके अनुरूप उन्हे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त था । वर्ण व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को वे कर्तव्य सौपने थे जो उसके गुणों के अनुरूप थे। उनमें पूर्ण सफलता प्राप्त करके वह अपनी उन्नति तो करता ही साथ ही साथ समाज का भी अधिक-से अधिक कल्याण करता था ।
- वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को धन इकट्ठा करने की अनुमति न थी । क्षत्रिय भी उतने धन का संचय कर सकता था जितना देश और समाज की रक्षा के लिए आवश्यक था। वैश्य को धन-संचय का अधिकार था, किन्तु केवल अपने लिए नहीं बल्कि समाज की और समाज की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए। वह उस धन का उपयोग इस तरह करता था जिससे उसके राज्य के गांव, नगर या जनता को लाभ प्राप्त हो । वर्ण व्यवस्था में एक वर्ण को दूसरे से श्रेष्ठ समझने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि यह कहा गया हैं कि जन्म के समय प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है। उसकी प्रतिष्ठा इस पर निर्भर करती हैं कि वह किस सीमा तक समाज की उन्नति में अपना योगदान देता हैं। कुछ देशों में समाज में प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिष्ठा का आधार उसकी धन-सम्पति और उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाली शक्ति या अधिकार थे। भारत में सम्पति को किसी व्यक्ति की समाज में प्रतिष्ठा से अलग रखने का प्रयत्न किया गया।
- जाति व्यवस्था का सबसे बड़ा अवगुण यह हैं कि इसमें जन्म के सिद्धान्त को आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता हैं। वर्ण-व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्य उसकी सहज मनोवृति और उसके गुणों के आधार पर निश्चित होते थे। इसलिए वर्तमान काल में भी वर्ण व्यवस्था का आधार किसी व्यक्ति का कार्य या उसकी कार्यक्षमता होनी चाहिए न कि उसका जन्म। हर एक व्यक्ति को समाज में अपनी सहज मनोवृति और योग्यता के अनुसार अपना कार्य चुनने की आजादी होनी चाहिए। किसी भी वर्ण के विशेषाधिकार नहीं होने चाहिए क्योंकि प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति समाज में अपनी मनोवृति और योग्यता के अनुसार समाज की उन्नति में योगदान देता हैं। वर्ण-व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्तिगत गुणों या मनोवृति के अनुसार समाज के कार्यों का योग्य व्यक्तियों में विभाजन होना चाहिए, चाहे कोई कार्य बौद्धिक हो या शारीरिक श्रम का, प्रत्येक कार्य को बराबर सम्मान दिया जाना चाहिए।