महाकवि दण्डी का समय एवं स्थिति - काल
- नवम शताब्दी के ग्रंथों में दण्डी का नामोल्लेख पाये जाने से निश्चित है कि उनका समय उक्त शताब्दी से पीछे कदापि नहीं हो सकता। सिंघली भाषा के अंलकार - ग्रंथ 'सिय-बस-लकर' (स्वभाषालंकार) की रचना काव्यादर्शन के आधार पर की गई है। इसका रचयिता राजा, सेन प्रथम महावंश के अनुसार 846-66 ई० तक राज्य करता था। इससे भी पहले के कन्नड़ भाषा के अलंकारग्रंथ ' कविराजमार्ग' में काव्यादर्श की यथेष्ट छाया देखी गई है। इसके उदाहरण या तो काव्यादर्श से पूर्णतः लिये गये या कहीं कहीं कुछ परिवर्तित रूप में रखे गये है । हेतु - अतिशयोक्ति आदि अलंकारों के लक्षण तो दण्डी से अक्षरशः मिलते हैं। इसके लेखक ‘अमोघवर्ष' का समय 815 ई के आसपास माना जाता है। अतएव काव्यादर्श की रचना नवीं शताब्दी के अनन्तर कदापि स्वीकृत नहीं की जा सकती है। यह तो दण्डी के काल की अंतिम सीमा है। अब पूर्व की सीमा की ओर ध्यान देना चाहिए। यह निर्विवाद है कि काव्यादर्श के समग्र पद्य दण्डी की ही मौलिक रचना नहीं है, उनमें प्राचीनों के भी पद्य सन्निविष्ट है। लक्ष्म लक्ष्मी तनोतीति प्रतीति-सुभग वच में दण्डी के इति शब्द के स्पष्ट प्रयोग से यहां जाना जाता है कि कालिदास के प्रसिद्ध पद्यांश 'मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मी तनोति' से उद्धरण दिया गया है। अतः इनके कालिदास के अनन्तर होने में तो संदेश का ध्यान नहीं है, परन्तु अन्य भाव साम्य से ये बाणभट्ट के भी अनन्तर प्रतीत होते हैं।
अरत्नालोकसंहार्यमवार्य सूर्यरश्मिभिः।
दृष्टिरोधंकरं यूना यौवनप्रभवं तमः।।
- काव्यादर्श इस पद्य में कादम्बरी में चन्द्रापीड को शुकनास द्वारा दिए गए उपदेश की स्पष्ट छाया दीख पड़ती है। दण्डी को बाणभट्ट (7 वीं सदी पूर्वार्द्ध) के अनन्तर मानने में कोई विप्रतिपति नहीं जान पड़ती है। प्रो. पाठक की सम्मति में काव्यादर्श में निर्वत्य, विकार्य, तथा प्राप्य हेतु का विभाग वाक्यपदीय के कर्ता भर्तृहरि (650 ई०) के अनुसार किया गया है। काव्यादर्श के उल्लिखित राजवर्मा (रातवर्मा ) को यदि हम नरसिंहवर्मा द्वितीय ( जिसका विरूद अथवा ( उपनाम राजवर्मा था ।) मान ले तो किसी प्रकार की अनुपपति उपस्थित नहीं होती। प्रो. आर. नरसिंहचार्य तथा डाक्टर बेलबल्कर ने भी इन दोनों की एकता मानकार दण्डी का समय सातवीं सदी का उतरार्द्ध बतलाया है। शैव-धर्म उत्तेजक पल्लवराज नरसिंह वर्मा का समय 690-715 ई० माना जाता है । अतः इनके सभा कवि दण्डी का भी समय बाण के पश्चात् सप्तम शती के अंत तथा अष्टम के आरंभ में मानना उचित प्रतीत होता है। दण्डी का समय भी अत्यंत संदिग्ध है ।
दण्डी की अन्तिम सीमा के लिये अन्य ग्रंथों में निम्नलिखित आधार प्राप्त होते हैं-
(1) श्री अभिनवगुप्ताचार्य ने, जिनका समय लगभग दशम शताब्दी है धन्यालोक की व्याख्या लोचन में लिखा है - - यथाहदण्डी
( 2 ) प्रतिहारेन्दुराज ने, जिसका समय लगभग ईसवी सन् 925 है, उद्भटाचार्य के काव्यलंकारसारसंग्रह की लघुवृति पृष्ठ 28 में लिखा है- अतएव दण्डिना लिम्तीव इत्यादि ।
(3) कनारी भाषा में ‘कविराजमार्ग' नामक एक ग्रंथ राष्ट्रकूट के राजकुमार अमोघवर्ष प्रणीत है । उसके संपादक श्री पाठक के कथानानुसार उस ग्रंथ के साधारणोपमा, अंसभवोपमा, संभवोपमा, विशेषोक्ति, और अतिशयोक्ति की परिभाषाएं दण्डी के काव्यादर्श से सर्वथा अनुवादित हैं। और अन्य भागों पर भी काव्यादर्श का पर्याप्त प्रभाव है। उस ग्रंथ का निर्माणकाल शक 736-797 (815-874ई० ) है।
(4) सिंहली भाषा में एक 'सियाकसलकार (स्वभाषालंकार) नामक ग्रंथ है। वह दण्डी के काव्यदर्श पर ही अवलम्बित हैं। उसमें काव्यदर्श का स्पष्ट नामोल्लेख भी है। महावंश के अनुसार इसका लेखक प्रथम राजा सेन का राज्यकाल सेन 846-866 है।
(5) वामन के काव्यलंकार सूत्र से दण्डी के काव्यादर्श को तुलनात्मक विवेचना द्वारा विदित होता है कि वामन से दण्डी प्राचीन हैं। दण्डी ने रीति-सिद्धांत का जो महत्वपूर्ण विवेचन किया था, उसे वामन ने अंतिम सीमा तक पहुँचा दिया है। दण्डी, वैदर्भी और गौड़ी दो ही मार्ग बतलाता है- तत्र वैदर्भ गौडीयौ (1140) किन्तु वामन उनमें एक पांचाली और बढ़कर तीन बतलाता है । वामन इनकों ‘मार्ग न कह कर ‘रीति' कहता हुआ (यद्यपि उसने मार्ग का प्रयोग भी किया है (3। 1।12) इतना महत्व देता है कि रीतिरात्माकाव्यस्य इससे ज्ञात होता है कि वामन को पांचाली रीति से और उसके पारिभाषिक शब्द रीति से दंडी सर्वथा अपरिचित था और भी ऐसे कारण हैं, जिनके द्वारा दण्डी का वामन से प्रथम होना प्रतीत होता वामन का समय आठवीं शताब्दी ईसवी का उत्तरार्द्ध है। जैसे कि आगे स्पष्ट किया जायेगा। इन आधारों पर दण्डी की
अंतिम सीमा सन 800 ईसवी के लगभग हो सकती है। किन्तु एक और भी प्रमाण मिलता है। जिसके द्वारा यह सीमा भी पूर्व काल तक चली जाती है। शारंगधर पद्धति में (संख्या 180) विज्जिका नाम्री एक स्त्री लेखिका का-
'नीलोत्पलदलश्यामां विज्जिकां मामजानता ।
वृथैव दण्डिनाप्रोक्त सर्वशुक्ला सरस्वती ||
- यह पद्य है काव्यादर्श में दण्डी ने मंगलाचरण प्रथम पद्य में सर्व-शुक्लसरस्वती लिखा है। इस पर विज्जका का यह व्यंग्यपरक उपहास है विज्जका के अनेक पद आचार्य मम्मट आदि के ग्रन्थों में उदाहरण रूप में मिलते है इसके पद्य विजया; विज्जा के नाम से भी उद्धृत किये गये हैं। इसके विषय में कल्हण की सूक्ति मुक्तावली ( संख्या 184 ) में राजशेखर के नाम से -
'सरस्वतीव कार्णाटी विजया जयत्यसौ ।
या विदर्भगिरां वासः कालिदासनन्तरम् ॥
- यह पद्य हैं। इसके द्वारा यह दक्षिण प्रान्त की विदित होती है। संभवतः विख्यात कार्णाटी वही भारिका विजिया है; जो चंद्रादित्य की महारानी थी चंद्रादित्य द्वितीय पुलकेशिन का पुत्र था । इसका समय सन् 660 ई0 है। यदि विजिया का पिज्जिक से एकीकरण भ्रमात्मक न हो जैसा कि संभव भी नही है क्योंकि जिसने स्वयं अपनी विद्वत्ता के गर्व पर दण्डी पर व्यंग्योक्ति की है औ जिसके विषय में राजशेखर जैसे विद्वान् द्वारा ऐसा महत्वपूर्ण उल्लेख हो तो दण्डी की अंतिम सीमा विज्जका के पूर्व लगभग सन् 600 ई0 है। इसके सिवा ईसवी सन् की छठी शताब्दी के सुबन्धु प्रणीत वासवदत्ता में -'यश्र छन्दोविचिति रिव कुसुमविचित्राभिः छन्दो विचितिरिव - मालिनासनाथा । 'छन्दो विचिमिव भ्राजमानतनुमध्याम्' इस प्रकार तीन स्थलापर छन्दों विचिति शब्द का प्रयोग मिलता है। कुछ विद्वानों का मत है कि दण्डी -'छन्दो विचित्यां सकलस्तत्प्रपई को विरचित । इस वाक्य में दण्डी ने अपने 'छन्दों विरचित' नामक अपने छंद-ग्रंथ का नामोल्लेख किया है। उसी के विषय में उपर्युक्त वाक्य सुबन्ध के हैं। यदि वह कल्पना ठीक हो तो इसके द्वारा भी दण्डी का सुबन्धु के पूर्ववर्ती अर्थात ईसवी की छठी शताब्दी में होना सिद्ध होता है। दण्डी का समय बहुत से ऐतिहासिक विद्वान छठी शताब्दी में ही बतलाते है। जैसे मि० मैक्समूलर, मि. वेबर प्रोफेसर मेकडोनल और कर्नल जेकौबी आदि ।
- किन्तु दण्डी की पूर्व सीमा के लिये जो अन्य आधार उपलब्ध होते हैं वे अधिक प्रबल हैं, और उनके द्वारा ऊपर की मान्यता पर आघात पहुंचता है। श्री महेशचंद्र न्यायरत्न मि. पीटरसन और जोकोवी का मत है कि दण्डी के 21197 में बाण की कादम्बरी (बोम्बे संस्कृत सीरीज संस्करण के पृ. 102 पंक्ति 16) का प्रतिबिम्ब हैं वाण का समय तो महाराज श्री हर्षवर्द्धन के समकालीन 606-647 ई० है।
‘किरातार्जुनीयपचदशसर्गादिकोंकारो दुर्विनीतनामधेयः।'
इस वाक्य द्वारा विदित होता है। अतएव भारवि का समय लगभग छठी शताब्दी के अंतिम चरण से शताब्दी के प्रथम चरण तक माना जा सकता है। और अवन्तिसुन्दरीकथा के-
'मनोरथाव्हयस्तेषां मध्यमों वंशवर्द्धनः ।
ततस्तनूजाश्चत्वार स्त्रटुर्वेदा इवा भवन्' ||
श्री वीरदत्त इत्येषां मध्यमों वंशवर्द्धनः ।
यवीयानस्य च श्लाघ्या गौरी नामा भवत्प्रिया ॥
ततः कथंचित्सा गौरी द्विजाधिपशिरोमणे: ।
कुमार दण्डिना मानं व्यक्तशक्तिमजीजनत् ॥
- इन पद्यों से विदित होता है, कि भारवि का मध्यम पुत्र मनोरथ के चार पुत्रों में सबसे छोटा वीरदत्त था। वीरदत्त की पत्नी का नाम गौरी था इन्ही वीरदत्त और गौरी देवी से दण्डी का जन्म हुआ है। इनकी जन्मभूमि कांची (आधुनिक कांजीवर) थी। इसके द्वारा दण्डी का दाक्षिणात्य होना भी सिद्ध है, जैसे कि अबतक विद्वानों की कल्पना है। यदि प्रत्येक पीढ़ी के लिये 20 वर्ष भी मान लिये जाय तो भी दण्डी का समय इस आधार पर सप्तम शताब्दी का अंतिम चरण हो सकता है। इसके द्वारा भामह और दण्डी के पूर्वापर के संबंध में जो पहिले विवेचन किया गया है। उसकी पुष्टि भी होती है कि भामह का समय महाकवि बाण के पूर्ववर्ती संभवतः छठी शताब्दी है। और दण्डी का समय सप्तम शताब्दी का अंतिम चरण ही माना जा सकता है।