वर्ण शब्द का अर्थ तथा उत्त्पति (Meaning and Origin of the word Varna)
वर्ण शब्द का अर्थ तथा उत्त्पति
- वर्ण शब्द का शाब्दिक अर्थ रंग से हैं । वर्ण का अर्थ चरित्र, स्वभाव और गुण भी हो गया । आर्य ‘वर्ण से सच्चरित्र’ अच्छे स्वभाव और अच्छे गुणों वाले व्यक्ति का बोध होने लगा। वहीं ‘दास वर्ण’ से दुश्चरित्र, बुरे स्वभाव और दुर्गुणों वाले लोगों का बोध होने लगा.
- ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार देवताओं ने आदि पुरुष के चार भाग किए जिसमें ब्राह्मण उसका मुख था और राजन्य उसके बाहु थे । उसकी जंघा वैश्य थे तथा शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुए।
यथा- ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्------ • शूद्रोऽजायत् ॥
- अर्थात् उस विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्र की उत्पत्ति बताई गयी है इसका लाक्षणिक अर्थ यह लगाया गया हैं कि आदि पुरुष ने मनुष्य मात्र को शिक्षा प्रदान कराने के लिए ब्राह्मणों की सृष्टि की, अपनी पूरी शक्ति से मनुष्य मात्र की रक्षा करने के लिए क्षत्रियों की सृष्टि हुई । सम्भवतः जंघा शरीर के निचले भाग की प्रतीक है अतः जिसमें भोजन पचता था। इसका यह अर्थ लगाया गया कि मनुष्यों को भोजन देने के लिए वैश्यों की उत्पत्ति हुई शूद्र के आदि पुरुष को सृष्टि या समस्त सामाजिक संगठन का प्रतीक माना गया हैं।
- ऋग्वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीन वर्गों का भी उल्लेख है जबकि पहले पांच वर्णों के विद्यमान होने का संकेत मिलता हैं। ऋग्वेद के अन्तिम मण्डल में समाज के ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य, और शूद्र चारों वर्णों का उल्लेख हैं। ब्रह्म शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में पुरोहित या गुणवान व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं। इस काल में आर्यों को अनार्यों से संघर्ष करने के लिए योद्धाओं का अलग वर्ग बन गया जिसमें अधिकतर जन जातियों के नेता सम्मिलित हुए । यह वर्ण 'राजन्य' कहलाया। आर्यों के समाज के शेष व्यक्ति जिन्हें राजन्य वर्ग के संरक्षण की आवश्यकता थी उन्हें 'विश' कहा गया । ये व्यक्ति साधारणतया कृषि कार्य पशुपालन, उद्योग और व्यापार आदि में लगे रहते थे, जबकि अनार्य लोग आर्यों की सेवा करते या शिल्पों में लगे रहते। उन्हें साधारणतया 'शूद्र' या 'दास' कहा जाता था ।
- ऋग्वेद के नौवें मण्डल से यह स्पष्ट होता हैं के इस समय तक व्यवसाय चुनने में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं थोपा गया था। इस समय आर्य लोहे का प्रयोग करते थे और नगरों का विकास होने लगा था। इस काल में आर्य जौ के अतिरिक्त चावल का उपयोग भोजन के रूप में करने लगे । इस काल में वर्णव्यवस्था पूर्णरूप से स्थापित हो गई थी। पश्चिमी देशों के साथ सम्पर्क कम हो गया और भारत के आदि निवासियों की संस्कृति के कुछ तत्त्व आर्यों ने अपनी संस्कृति में मिला लिए । इस काल की प्रमुख भाषा संस्कृत थी । रोमिला थापर के अनुसार सम्भवतः आर्यों ने हल का प्रयोग मुण्डा भाषा बोलने वाली जातियों के सम्पर्क में आने पर किया, क्योंकि संस्कृत में हल के लिए अधिकतर 'लॉडल' शब्द प्रयुक्त किया हैं और चावल का प्रयोग भी द्रविड़ लोगों के सम्पर्क में आने के बाद किया गया, क्योंकि 'व्रीहि' शब्द द्रविड़ भाषा का हैं।
- उत्तरवैदिक काल में धार्मिक कृत्यों में भी अनेक अनार्य तत्वों को सम्मिलित किया गया । उत्तर वैदिक काल में आकर यज्ञों की क्रिया में बहुत जटिलता आ गई इसलिए ब्राह्मणों का समाज में महत्व बढ़ गया। इस काल में ब्राह्मणों का संघटन ज्ञान पर आधारित था, जन्म पर नहीं | 'ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों की उत्पति का जो विवरण मिलता हैं उससे यही पता चलता हैं कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों में इस काल में कोई सहज भेद नहीं था। उसी ब्राह्मण में लिखा कि दीक्षा प्राप्त करके राजा ब्राह्मणत्व में प्रविष्ट होता हैं। इसी प्रकार के विचार 'शतपथ ब्राह्मण' ये भी प्राप्त किए गए हैं।
- उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि उतर वैदिक काल में भी ब्राह्मण थे जिन्हें वेदों का ज्ञान था और जिनमें ऋत्विज् कार्य करने की क्षमता थी। इस काल तक ब्राह्मणों का संगठन कठोर नहीं था। पुरोहित जनता के किसी भी वर्ग से विवाह कर सकते थे यहाँ तक कि वे शूद्रों से भी पत्नियां ग्रहण करते थे । लेकिन शूद्रों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध हेय दृष्टि से देखा जाता था । ब्राह्मण की विभिन्न शाखाएं उन विद्वानों के आधार पर संगठित थीं जिन पर उनका विश्वास था जैसे कि यजुर्वेदी, माध्यंदिन, मैत्रायणी, ऋग्वेदी, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशीइत्यादि । इस विभाजन से यह स्पष्ट हैं कि ब्राह्मण संगठन का आधार ज्ञान था, न कि जन्म ।
- इस काल में क्षत्रियों का भी अपना एक अलग वर्ग था। उसमें अधिकतर कुलीन वर्ग के प्रतिनिध तथा प्राचीन जातियों के प्रमुख नेता सम्मिलित थे। उनका संगठन कठोर नहीं था। वैश्य उस विशाल जन समुदाय का प्रतिनिधित्व करते थे, जिससे ब्राह्मणों और क्षत्रियों का चयन होता था। उनके घटक अंगों की संख्या इतनी ज्यादा थी तथा उनका प्रकृति में इतना वैविध्य था कि उनके लिए संगठित स्वरूप का निर्वाह करना मुश्किल था । रोमिला था के अनुसार ऋग्वेदिक काल में क्षत्रियों और वैश्यों में इतना अन्तर न था जितना बाद में हो गया। इसी कारण उतरवैदिक काल के साहित्य में यह कहा गया है कि क्षत्रिय वैश्य की सम्पति का उपभोग कर सकता हैं। वैश्य क्षत्रिय को इस वजह से धन देता था क्योंकि वह उसके प्राणों की रक्षा करता था, दूसरी तरफ ब्राह्मणों को यज्ञों में दक्षिणा के रूप में वैश्य धन दिया करते थे।
- शूद्र शब्द के सीमित अर्थ के अन्तर्गत वे सभी व्यक्ति आते थे जो आर्यों से भिन्न थे। उनकी संस्कृति से भिन्न थी । उन्हें भी इस काल में वैदिक साहित्य पढ़ने और पवित्र अग्नि के पास जाने का अधिकार प्राप्त था। वे भी अपने शवों का दाह संस्कार किया करते थे ।
- इस काल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों में उच्चता के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। इसका प्रमाण उतर वैदिक काल के साहित्य से स्पष्ट हो जाता है, 'वाजसनेयी संहिता' में क्षत्रियों का निर्देश ब्राह्मणों से पूर्व किया गया । 'काठक संहिता' के अनुसार क्षत्रिय ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हैं। 'शतपथ ब्राह्मणों के अनुसार ब्राह्मण राजा का अनुगमन करता हैं।
- उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हैं कि इस काल में यज्ञों का महत्व अत्यधिक होने के कारण ब्राह्मणों का अभिमान चरम सीमा पर पहुँच गया था। इस काल के अन्त तक ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों ने जन्म के आधार पर अपना लिया अण पना वर्गके अन्तर्गत अधिकतर दास या दस्यु ही आते थे । उनकी स्थिति समाज में इन तीन वर्णों से नीची थी। वैदिक काल की समाप्ति से पहले शिल्प और कलाओं के आधार पर अनेक उपजातियों का अभ्युदय हुआ । उतरवैदिक काल के अन्त तक जन्म के आधार पर समाज चार वर्णों में स्पष्ट रूप से बंट गया था और उनके विशेषाधिकारों और उनकी निर्योग्यताओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया था।