पंचमहायज्ञ क्या हैं , गृहस्थ के पंचमहायज्ञ का विवरण
Panch Maha Yagya Details in Hindi
पंचमहायज्ञ क्या हैं,गृहस्थ के पंचमहायज्ञ का विवरण
कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य। जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे, उन्हें नित्य कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पंच महायज्ञ आदि । महायज्ञ करने से आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी 'पंचसूना’ दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा हैं कि -
'सर्वगृहस्थै: पंचमहायज्ञ अहरहः कर्तव्याः । '
अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पंचमहायज्ञ करने चाहिए। इससे यह स्पष्ट हैं कि पंचमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता हैं। हम लोगों की जीवनयात्रा में सहज ही हजारों जन्तुओं की प्रतिदिन हिंसा होती हैं; जैसे- चलने फिरने में, भोजन के प्रत्येक ग्रास में तथा श्वास-प्रश्वास में जीव की हिंसा अवश्य होती हैं। प्राणधारी मनुष्य के लिये इन पापों से बचना कदापि संभव नहीं हैं। अतः इन पापों से के लिये ही महामहिमशाली महर्षियों ने 'पंचमहायज्ञ' का विधान बताया हैं। भगवान मनु कहते मुक्त होने
पंचसूना गृहस्थ चुल्ली पेषण्युपस्करः ।
कण्डनी चोदकुम्भस्य बाध्यते यास्तु बाहयन् ॥
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थे महर्षिभिः ।
पंच क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गुहमेधिनाम् ।।
शास्त्रकारों ने प्राणीवध जनित उन पापों को साधारणतया पाँच भागों में विभक्त किया है और उनसे मुक्त होने का विधान भी बताया है -
पंचसूना गृहस्थस्य पंचयज्ञात् प्रणश्यति ।
कण्डनी पेषणी चुल्ली चोदकम्भी च मार्जनी ॥
‘प्रत्येक गृहस्थ के यहां चूल्हा, चक्की, बुहारी (झाडू), ऊखल और जलपान- ये पाँच प्रकार के
पंचमहायज्ञ-
पंचमहायज्ञ का वर्णन प्रायः सभी ऋषि-मुनियों ने अपने-अपने धर्मग्रन्थों में किया है, जिनमें से कुछ ऋषियों के वचनों को यहाँ उद्धृत किया जाता हैं -
'भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो देवयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति ।' (शतपथब्राह्मण 11511)
‘अर्थातः पंचमहायज्ञा देवयज्ञो भूतयज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञो मनुष्ययज्ञ इति ।' (आश्वलायनगृह्मसूत्र 31111 )
भूतपित्रमरब्रह्म मनुष्याणां महामखाः ॥ (याज्ञवल्यस्मृति, आचाराध्याय 102)
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । ।
देवयज्ञो भूतयज्ञः पितृयज्ञः पितृयज्ञस्तथैव च
नृयज्ञो ब्रह्मयज्ञश्चपंचयज्ञाः प्रकीर्तिताः ॥ (बृहन्नारदीय पुराण)
जो मनुष्य पूर्वकथित पंचमहायज्ञ के द्वारा देवता, अतिथि, पोष्यवर्ग, पितृलोक और आत्मा-इन पांचों को अन्नादि नहीं देते, वे जीते हुए भी मरे के समान हैं अर्थात् उनका जीवन निष्फल हैं।
भगवान् मनु की आज्ञा हैं कि-
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो, देवो, बलिभीतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥ (मनुसंहिता 3/70)
पंचैतान् यो महायज्ञान्न हापयति शक्तितः।
स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते ।। (मनु 3171)
‘जो गृहस्थ शक्ति के अनुकूल इन पंचमहायज्ञों का एक दिन भी परित्याग नहीं करते, वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी प्रतिदिन के पंचसूनाजनित पाप के भागी होते।'
महर्षि गर्ग ने भी कहा हैं-
पंचयज्ञांस्तु यो मोहान्नि करोति गृहाश्रमी ।
तस्य नायं न च परो लोको भवति धर्मतः ॥
महर्षि हारीत ने कहा हैं
यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धनवान् द्विजः ।
धनवान् द्विज सोमयाग करके जो फल प्राप्त करता हैं, उसी फल को दरिद्र पंचमहायज्ञ के द्वारा प्राप्त कर सकता हैं।'
पंचमहायज्ञ के अनुष्ठान से प्राणियों की तृप्ति होती हैं, इस प्रकार का संकेत भगवान् मनु ने मनुस्मृति के तृतीय अध्याय के 80,81 और 75 श्लोकों में किया हैं।
पंचमहायज्ञ करने से अन्नादि की शुद्धि और पापों का क्षय होता हैं। पंचमहायज्ञ किये बिना भोजन करने से पाप लगता हैं। देखिये, आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (3113) में क्या कहा हैं.
‘ यज्ञ से शेष बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष पंचहत्याजनित समस्त पापों से मुक्त जाते हैं, किन्तु जो पापी केवल अपने लिये ही पाक बनाते हैं, वे पाप का ही भक्षण करते हैं।'
महाभारत में भी कहा है
अहन्यहनि ये त्वेतानकृता भुंजते स्वयम् ।
केवलं मलमश्नन्ति ते नरा न च संशयः ॥
‘जो प्रतिदिन इन पंचमहायज्ञों को किये बिना भोजन करते हैं, वे केवल मल खाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं । अतः पंचमहायज्ञ करके ही गृहस्थों को भोजन करना चाहिये । पंचमहायज्ञ के महत्त्व एवं इसके यथार्थ स्वरूप को जानकर द्विजमात्र का कर्तव्य हैं कि वे अवश्य पंचमहायज्ञ किया करें- ऐसा करने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सुतरां प्राप्ति होगी ।
1. ब्रह्मयज्ञ-
वेदों के पठन-पाठन ब्रह्मयज्ञ कहते हैं । वेद में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में 'ज्ञान' की ही प्रधानता और परमावश्यकता बतलायी गई हैं। ज्ञान के ही कारण जीवान्तर की अपेक्षा से मनुष्य- देह उत्तम माना गया हैं। शास्त्रोक्त सदाचार तथा धर्मानुष्ठान में तत्पर रहना ही मनुष्य की मनुष्यता हैं और वही मनुष्य वास्तविक मनुष्यत्व का अधिकारी समझा जाता हैं। इसके बाद कर्मकाण्ड द्वारा अन्तः करण की शुद्धि हो जाने पर मनुष्य उपासनाकाण्ड का अधिकारी बनता हैं।, तदनन्तर भगवत्कृपाकटाक्ष के लेष से ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जाता हैं। यह मनुष्यों का सामान्य उन्नतिक्रम हैं। क्रमिक उन्नति में ज्ञान का प्राधान्य हैं अतः सभी अवस्थाओं में ज्ञान की आवश्यकता हैं। इसलिये प्रथमावस्था में भी ज्ञान के बिना असदाचरण का परित्याग तथा धर्मानुष्ठान में प्रवृति कदापि नहीं हो सकती ।
"बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ।' (मनुस्मृति 21 215)
- इस उद्देश्य के अनुसार बलवान् इन्द्रियसमूह उसमें प्रतिबन्धक अवश्य हैं, तथापि इन्द्रियाँ प्रथमावस्था में मनुष्यों को अपनी ओर तथा गुरूजन भी धर्मानुष्ठानादि में धर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं। इसी समय माता, पिता तथा गुरूजन भी धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त तथा अधर्मानुष्ठान में निवृत्त करते हैं इस प्रकार सभी अवस्थाओं में ज्ञान की ही प्रधानता सिद्ध होती हैं । अतएव ज्ञानयज्ञरूप स्वाध्याय (वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन) करना चाहिये। अशक्ति में गायत्री जपमात्र करना चाहिये। ब्रह्मयज्ञ को करने से ज्ञान की वृद्धि होती हैं। ब्रह्मयज्ञ करने वाला मनुष्य ज्ञानप्रद महर्षिगण का अनृणी और कृतज्ञ हो जाता हैं।
2. देवयज्ञ -
अपने इष्टदेव की उपासना के लिये परब्रह्म परमात्मा के निमित्त अग्नि में किये हुए हवन को 'देवयज्ञ' कहते हैं।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यासि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ (गीता 9 1 27)
- भगवान के इस वचन से सिद्ध होता हैं कि परब्रह्म परमात्मा ही समस्त यज्ञों के आश्रयभूत हैं। इसलिये ब्रह्मयज्ञ में ऋषिगण, पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्य पितृगण और परलोकगामी नैमित्तिक पितृगण, भूतयज्ञ गीतोक्त इस में देवरूप अनेक प्राणियों को जानकर 'यद्यद्विभूतिमत्सत्वम्' (गी0 101 41 ) भगवद् वचन के अनुसार ईश्वर - विभूतिधारी देवताओं की जो-जो पूजा की जाती हैं, वह सर्वव्यापक अन्तर्यामी परमात्मा की अर्चना (पूजा) के अभ्यास के लिये ही की जाती हैं। नित्य और नैमित्तिक-भेद से देवता दो भागों में विभक्त हैं, उनमें रुद्रगण, वसुगण और इन्द्रादि नित्य देवता कहे जाते हैं और ग्रामदेवता, बनदेवता तथा गृहदेवता आदि नैमित्तिक देवता कहे जाते हैं। दोनों तरह के ही देवता इस यज्ञ से तृप्त होते हैं। जिन देवताओं की कृपा से जड़भावना को प्राप्त होते हुए भी विनश्वर कर्मफल उत्नन्न हो रहा हैं, जिनकी कृपा से समस्त सुख शान्ति की प्राप्ति होती हैं, जिनकी कृपा से संसार के समस्त कार्यकलाप की भलीभाँति उत्पत्ति और रक्षा होती हैं, उन देवताओं से उऋण होने के लिये देवयज्ञ करना परमावश्यक हैं देवयज्ञ से नित्य और नैमित्तिक देवता तृप्त होते हैं।
3. भूतयज्ञ -
- कृमि, कीट पतंग, पशु और पक्षी आदि को सेवा को 'भूतयज्ञ' कहते हैं । - ईश्वररचित सृष्टि के किसी भी यज्ञ की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती, क्योंकि सृष्टि के सिर्फ एक ही अंग की सहायता से समस्त अंगों की सहायता समझी जाती हैं, अतः ‘भूतयज्ञ' भी परम धर्म हैं। प्रत्येक प्राणी अपने सुख के लिये अनेक भूतों (जीवों) को प्रतिदिन क्लेश देता हैं, क्योंकि ऐसा हुए बिना क्षणमात्र भी शरीरयात्रा नहीं चल सकती । प्रत्येक मनुष्य के निःश्वास प्रश्वास, विहार-संचार आदि में अगणित जीवों की हिंसा होती हैं। निरामिष भोजन करने वाले लोगों के भोजन के समय भी अगणित जीवों का प्राण-वियोग होता हैं, आमिषभोजियों की तो कथा ही क्या हैं? अतः भूतों (जीवों) से उऋण होने के लिये ‘भूतयज्ञ' करना आवश्यक हैं। भूतयज्ञ से कृमि, कीट, पशु, पक्षी आदि की तृप्ति होती हैं।
4. पितृयज्ञ
- अमर्यादित नित्य पितरों की तथा परलोकगामी नैमित्तिक पितरों की पिण्डप्रदानादि से किये जाने वाले सेवारूप यज्ञ को 'पितृयज्ञ' कहते हैं। सन्मार्गप्रवर्त्तक माता-पिता की कृपा से असन्मार्ग से निवृत्त होकर मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति करता हैं, फिर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि सकल पदार्थों को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है। ऐसे दयालु पितरों की तृप्ति के लिये, उनके सम्मान के लिये, अपनी कृतज्ञता के प्रदर्शन तथा उनसे उऋण होने के लिये 'पितृयज्ञ' करना नितान्त आवश्यक हैं। पितृयज्ञ से समस्त लोकों की तृप्ति और पितरों की तुष्टि की अभिवृद्धि होती हैं।
5. मनुष्ययज्ञ
- क्षुधा से अत्यन्त पीड़ित मनुष्य के घर आ जाने पर उसकी भोजनादि से की - जानेवाली सेवारूप यज्ञ को 'मनुष्ययज्ञ' कहते है। अतिथि के घर आ जाने पर वह चाहे किसी जाति या किसी भी सम्प्रदाय का हो, उसे पूज्य समझकर उसे अन्नादि देना चाहिये । इस विषय की पुष्टि भगवान मनु ने भी अपनी स्मृति के तीसरे अध्याय ( 31 99-102, 107, 111) में विशदरूप से की हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि पृथ्वी के सभी समाज-वालों को अतिथि सेवारूप धर्म का परिपालन अवश्य करना चाहिये प्रथमावस्था में मनुष्य अपने शरीर मात्र के सुख से अपने को सुखी समझता हैं, फिर अपने पुत्र, कलत्र, मित्रादि को सुखी देखकर सुखी होता हैं । तदनन्तर स्वदेशवासियों को सुखी देखकर सुखी होता हैं। इसके बाद सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने पर वह समस्त लोकसमूह को सुखी देखकर सुखी होता है परन्तु वर्तमान समय में एक मनुष्य समस्त प्राणियों की सेवा नहीं कर सकता, इसलिये यथाशक्ति अन्न दान द्वारा मनुष्यमात्र की सेवा करना ही ‘मनुष्ययज्ञ’ कहा जाता हैं। मनुष्ययज्ञ से धन, आयु, यश और स्वर्गादि की प्राप्ति होती है।