पुरूषार्थ चतुष्टय क्या है (Purusharth Chatushtaya Kya Hai)
पुरूषार्थ चतुष्टय
- सभी यज्ञों के मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक आधार को समझने के लिए चार पुरुषार्थों को समझना आवश्यक हो जाता हैं। ध्यातव्य हैं कि जीवन के उद्देश्य चार माने जाते थे यथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। जीवन के अन्तिम लक्ष्य के रूप में मोक्ष को स्वीकार किया गया। हैं इसका अभिप्राय यह हैं कि मानव की शाश्वत प्रकृति आध्यात्मिक हैं और जीवन का उद्देश्य इसको प्रकाशित करना तथा उसके द्वारा आनन्द प्राप्त करना हैं। सभी ऋषियों की धारणा थी कि मानव की भलाई इसी में हैं कि वह जीवन-मृत्यु के चक्र से और संसार के दुःखों से छुटकारा पा जाए जिससे पुनः उसे संसार में जन्म न लेना पड़े। इसी छुटकारे की अवस्था को पुरुषार्थों में मोक्ष में कहा गया हैं किन्तु वैदिक ऋषि आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और सांसारिक सुख भोग को परिवार विरोधी स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार दीर्घ जीवन की कामना मुक्ति प्राप्त करने की भावना से असम्बद्ध नहीं हैं। पुरुषार्थों के सिद्धान्त में इन दोनों के मध्य सामंजस्य स्थापित किया गया हैं ।
- ऋषियों ने चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए ही चार आश्रमों की व्यवस्था बनाई थी। आश्रमों में अपना कर्तव्य पूरा करके ही मनुष्य चारों पुरुषार्थों का उचित प्रशिक्षण प्राप्त करता हैं। इसीलिए पुरुषार्थों की आश्रम व्यवस्था को मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक आधार कहा जाता हैं। उपनिषदों में मोक्ष को ही श्रेय बतलाता हैं। उसी में शाश्वत सुख मिल सकता हैं। 'धर्म' शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के अनेक अर्थों में हुआ हैं। वैदिक कर्मकाण्ड, नैतिक आचरण, जाति के नियम और दीवानी और फौजदारी कानून धर्म के अन्तर्गत आते हैं। निश्चित रूप से इसका अर्थ बहुत व्यापक हैं। इसके अन्तर्गत वे सब नियम शामिल हैं जिनसे व्यक्ति को सांसारिक और आध्यात्मिक सहारा मिलता हैं और जिससे उसकी सहायता एवं समाज की उन्नति होती हैं। इसका शाब्दिक अर्थ हैं कि वे नियम जो समाज के विभिन्न अंगों को मिलाकर रख सकें या जो समाज की रक्षा कर सकें। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि धर्म का अर्थ वे सिद्धान्त हैं जिनके पालन करने से समाज में स्थायित्व रहता हैं।
- श्रीकृष्ण के अनुसार जिससे पूरे समाज का कल्याण हो वही धर्म हैं। वैशेषिक सूत्र में भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए गए हैं कि धर्म वह हैं जिससे प्राणिमात्र की लौकिक उन्नति तथा पारलौकिक कल्याण की रक्षा हो। इसका प्रमुख उद्देश्य मनुष्य का नैतिक उत्थान हैं। आत्मिक मुक्ति एवं देहिक सुख के मध्य एकरूपता धर्म द्वारा निर्धारित नियमों के पालन द्वारा स्थापित की जाती हैं। प्राचीन भारत में इसकी प्रमुख विशेषता थी कि समय, स्थान और सामाजिक परिवेश के अनुसार इसमें परिवर्तन होता रहता था। पांडुरंग वामन काणे के अनुसार धर्म जीवन पद्धति या आचरण संहिता थी जो समाज के सदस्य के एक रूप में व्यक्ति के कार्यों पर नियंत्रण रखती थी । इस पद्धती का उद्देश्य मानव का भी विकास करना था जिससे वह जीवन के विविध लक्ष्यों को प्राप्त कर सके।
- प्राप्त करने की प्रवृति की संतुष्टि ‘अर्थ’ द्वारा होती हैं। धन के संग्रह व भोग व उपभोग के द्वारा मानव धर्म का पालन कर सकता हैं। ‘अर्थ’ से अभिप्राय उन सब साधनों से हैं जिन्हें प्राप्त कर मनुष्य समृद्ध हो जाता हैं। इसका मुख्य लक्ष्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति हैं। इन साधनों का अर्जन मानव को धर्म से करना चाहिए, अधर्म से नहीं। कौटिल्य के अनुसार 'धर्म' और 'काम' का मूल हैं। पुरुषार्थ के रूप में यह शक्ति और ऐश्वर्य प्राप्त करने की मानव अभिलाषा को प्रतिबिम्बित करता है।
- 'काम' का अर्थ उन सभी इच्छाओं से हैं जिनकी पूर्ति करके मानव सांसारिक सुख प्राप्त करता हैं । यह भी धर्म की मर्यादा से ही किये जाने को कहा गया हैं। इसका मुख्य उद्देश्य संतानोत्पति के द्वारा समाज को आगे बढ़ाना हैं। इसका स्थान अन्तिम हैं किन्तु वह मानव के सहज स्वभाव और भावुक जीवन को व्यक्त करता हैं। उसके द्वारा मानव की काम भावना और सौन्दर्यप्रियता की प्रवृति की तुष्टि होती है। इन्हीं प्रवृतियों की तुष्टि हेतु मानव विवाह और फिर सन्तानोत्पति करता हैं। ध्यातव्य है कि काम और अर्थ साधन है, साध्य नहीं। जो जीवन केवल इन दोनों की तुष्टि में संलग्न रहता हैं वह अवांछनीय हैं।
- ध्यातव्य है कि अर्थ और काम को प्रेय कहा है जिनसे क्षणभंगुर सांसारिक सुख मिलता हैं। किन्तु धर्म शास्त्रों में इन दोनों का महत्त्व भी स्वीकार किया गया हैं। वात्सायन ने कामसूत्र के प्रारम्भ में धर्म, अर्थ और काम तीनों की वन्दना की हैं। इसका यह अर्थ है कि तीनों को ऐसा समन्वय करना चाहिए कि वे दूसरे के लिए घातक साबित न हो । धर्म, अर्थ और काम का महत्व उनके उनके क्रम के अनुसार हैं। अर्थ और काम धर्म से नियन्त्रित हैं ।
- अर्थ का अर्जन धर्मपूर्वक करना चाहिए और उसे दान आदि भी देना चाहिए । काम का प्रमुख उद्देश्य संतानोत्पति है। जिससे वंश-परम्परा चल सके । धर्म, अर्थ और काम के सदुपयोग से इस लोक और परलोक में सुख मिलता हैं। जो व्यक्ति केवल अर्थ या काम में फंसा रहता हैं वह घृणित है क्योंकि धर्म ही विश्व का सार और शक्ति हैं।
- सभी धर्म शास्त्रकारों ने धर्म को सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ की संज्ञा के रूप में स्वीकारा हैं। सभी ने ऐसे अर्थ और काम को त्याग देने का परामर्श दिया हैं जिससे धर्म पालन में बाधा पड़े। तीनों पुरुषार्थों का सम्बन्ध व्यक्ति के विशेष और समाज दोनों से हैं, इन्हीं के आधार पर व्यक्ति का समाज के साथ उचित सम्बन्ध निश्चित किया जा सकता हैं। किस सीमा तक मनुष्य अर्थ और काम का उपभोग करता है, इसका निर्णय करना धर्म है । ध्यातव्य हैं कि समाज के ऋणों को चुकाए बिना तथा अपने कर्त्तव्यों को पूरा किए बिना कोई व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।