संस्कार के संदर्भ में समाजशास्त्रियों का मत
संस्कार के संदर्भ में समाजशास्त्रियों का मत
हिन्दू समाजशास्त्रियों ने इनका विधान विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया। यहाँ ये उद्देश्य मुख्यतः दो भागों में विभाजित किये गये हैं- (1) लोकप्रिय उद्देश्य (2) सांस्कृतिक उद्देश्य
संस्कार के लोकप्रिय उद्देश्य-
- अशुभ शक्तियों के निवारण हेतु प्राचीन हिन्दुओं का विश्वास जीवन में अशुभ एवं आसुरी शक्तियों का प्रभाव होता है जो अच्छे एवं बुरे दोनों प्रकार के फल देती हैं। अतः उन्होंने इनके माध्यम से उनके अच्छे प्रभावों को आकर्षित करने तथा बुरे प्रभावों को हटाने का प्रयास किया जिससे मानव का स्वस्थ एवं निर्विघ्न विकास हो सके । इस उद्देश्य से प्रेतात्माओं तथा आसुरी शक्तियों को अन्न, आहुति आदि के द्वारा शान्त किया जाता था गर्भाधान, जन्म, बचपन आदि के समय इस प्रकार की आहुतियाँ दी जाती थी। कभी-कभी देवताओं की मन्त्रों द्वारा आराधना की जाती थी ताकि आसुरी शक्तियों का प्रभाव क्षीण हो जाये ।
- हिन्दुओं की यह धारणा थी कि जीवन का प्रत्येक काल किसी न किसी देवता द्वारा नियन्त्रित होता है। इसी कारण प्रत्येक अवसर पर मन्त्रों द्वारा इन देवताओं का आह्वान किया जाता था। भौतिक समृद्धि की उपलब्धि हेतु- इनका विधान भौतिक समृद्धि तथा पशुधन, पुत्र, दीर्घायु, शक्ति, बुद्धि व सम्पत्ति आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से भी किया गया था। इस समय समाज में ऐसी धारणा थी कि प्रार्थनाओं के द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को देवताओं तक पहुँचाता है तथा तब ये देवगण उसे भौतिक समृद्धि की वस्तुएं प्रदान करते हैं। आज भी इस प्रकार के संस्कारों की यह स्थिति हिन्दू परिवारों में स्पष्ट रूप से देखी जाती हैं।
- भावनाओं को व्यक्त करने की कार्यप्रणाली इनके माध्यम से मनुष्य अपने हर्ष एवं दुःख को व्यक्त करता था । जिनमें पुत्र जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आनन्द व उल्लास को व्यक्त किया जाता था । शिशु को जीवन से मिलने वाली प्रत्येक उपलब्धि पर उसके परिवार के लोग खुशियाँ मनाते थे तथा मृत्यु के अवसर पर शोक की स्थिति व्यक्त की जाती थी।
संस्कार के सांस्कृतिक उद्देश्य
- हिन्दू धर्म के विचारकों ने संस्कारों के पीछे उच्च आदर्शों का उद्देश्यन भी अपने समक्ष रखा था। मनुस्मृति में यह उल्लेखित है कि संस्कार मानव की अशुद्धियों का नाश कर उसके शरीर को पवित्र बनाने में मदद करता है। समाज में ऐसी मान्यता है कि गर्भस्थ शिशु के शरीर में कुछ अशुद्धियां होती हैं जो जन्म के पश्चात् संस्कारों के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं। मनुस्मृति में यह कहा गया है कि अध्ययन, व्रत, होम-जाप, पुत्रोत्पति से शरीर ब्रह्मीय हो जाता हैं। यह भी धारणा है कि प्रत्येक मानव जन्म से शूद्र होता है, संस्कारों से द्विज, विधा से विप्रत्व तथा तीनों के संयोग के द्वारा श्रोत्रिय कहा जाता है। ये व्यक्ति को सामाजिक अधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान करते थे। ध्यातव्य है कि उपनयन के माध्यम से मानव विद्याध्ययन का अधिकारी बनता था तथा विद्या प्राप्त करने के पश्चात् वह द्विज कहा जाता था। समावर्तन संस्कार मानव को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्रदान करता था, जबकि वह विवाह संस्कार से मानव समस्त सामाजिक कर्त्तव्यों को सम्पन्न करने का अधिकारी बन जाता था। इसी प्रकार मानव, समाज का एक अंग हो जाता था।
संस्कार के नैतिक उद्देश्य
- संस्कारों के द्वारा मानव के जीवन में नैतिक गुणों का समावेश होता था। ध्यातव्य है कि गौतम ने मानव जीवन के कल्याण के लिए 40 संस्कारों के साथ-साथ 8 गुणों का भी उल्लेख किया है तथा उन्होंने इसके बारे में कहा है कि इन संस्कारों के साथ-साथ गुणों का आचरण करने वाला व्यक्ति ही ब्रह्म को प्राप्त करता हैं। ये हैं दया, सहिष्णुता, ईर्ष्या न करना, शुद्धता, शान्ति, सदाचरण तथा लोभ एवं लिप्सा का त्याग। इस कालावधि में प्रत्येक संस्कार के साथ-साथ कोई ना कोई नैतिक आचरण अवश्य सम्मिलित रहता था।