व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कारों का योगदान
व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कारों का योगदान
- संस्कारों के माध्यम से ही प्राचीन काल में मानव के व्यक्तित्व का निर्माण होता था। जीवन के प्रत्येक चरण में ये मार्गदर्शन का काम करते थे। इस समय इनकी व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि वे मानव जीवन के प्रारंभ से ही मानव के चरित्र एवं आचरण पर अनुकूल प्रभाव डाल सकें उपनयन संस्कार का उद्देश्य मानव को शिक्षित एवं सभ्य बनाना था जबकि विवाह संस्कार के माध्यम से वह पूर्ण गृहस्थ बन जाता था तथा देश व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक पालन करता था। हिन्दू विचारकों ने इन संस्कारों को व्यक्ति के लिए अनिवार्य बना कर उसके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया था।
आध्यात्मिक विचारों की सम्पुष्टि
- ये संस्कार मानव की भौतिक प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते थे। ध्यातव्य है कि प्राचीन काल में सभी संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियाएं संलग्न रहती थी। इन्हीं धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करके मानव भौतिक सुख के साथ आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करने की कामना रखता था उसे यह अनुभूति होती थी कि जीवन की समस्त क्रियाएं आध्यात्मिक सत्यता की प्राप्ति हेतु हैं। यदि ऐसा न होता तो इन संस्कारों के अभाव में हिन्दू में पूर्णरूपेण भौतिक हो गया होता । प्राचीन कालीन हिन्दूओं का विश्वास था कि संस्कारों के विधिवत् पालन से ही वे भौतिक बाधाओं से छुटकारा पा सकते हैं। इस प्रकार ये संस्कार मानव के भौतिक व आध्यात्मिक जीवन के मध्य मध्यस्थता का कार्य करते थे जो कि हिन्दू जीवन पद्धति के अभिन्न अंग थे।