संस्कार का लक्षण व महत्व
संस्कार का लक्षण व महत्व
संस्करणं
सम्यकरणं वा संस्कारः।
- अर्थात् दोषों का निवारण, कमी या त्रुटि की पूर्ति करते हुए शरीर और आत्मा में अतिशय गुणों का आधान करने वाले शास्त्र- -विहित क्रिया-कलापों या कर्मकाण्ड के द्वारा उद्भूत अतिषय-विशेष ही ‘संस्कार’ कहा जाता हैं। इस प्रकार मैल, दोष, दुर्गुण एवं त्रुटि या कमी का निवारण कर शारीरिक एवं आत्मिक अपूर्णता की पूर्ति करते हुए गुणातिशयों या सद्गुणों का आधान या उत्पादन ही संस्कार हैं। संस्कारों से बुराईयां हटती हैं और अच्छाईयां आती हैं।
- संस्कारों का महत्त्व बताते हुए ‘मनुस्मृति में कहा गया हैं- अर्थात् द्विजो के गर्भाधान, जातकर्म, चौल और उपनयनादि संस्कारों के द्वारा बीज-गर्भादिजन्य सभी प्रकार के दोषों और पापों का अपमार्जन होता हैं। आत्मिक व भौतिक विकास का मार्ग प्रशस्त कर मानव को मानव बनाने वाले, उसके जीवन को अकलुष एवं तेजोदीप्त बनाकर उसे धर्मार्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग की प्राप्ति के लिए अग्रसारित करता है । सतत प्रेरित करने वाले यज्ञोपवीत व विवाहादि षोडश संस्कारों का भारतीय जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान हैं। लोहा हो या सोना सभी धातुओं एवं मणि माणिक्य आदि रत्ने को घिस-मांजकर, शाण पर चढ़ाकर, कूट-पीटकर या गल रता कर चमका दिया जाता है, उन्हें व्यवहार के योग्य बना दिया जाता है तथा गुग्गुल आदि औषधियों को गोमूत्र आदि से संशोधित कर एवं संस्कारित कर उनकी गुणवता को शत-सहस्त्र गुना बढ़ा दिया जाता हैं, ठीक उसी प्रकार मानव-जीवन को भी सुसंस्कारित कर उसे उदात गुणों से विभूषित कर दिया जाता हैं।
'यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारों नान्यथा भवेत् ।'
- (माघ) के अनुसार जीवन के आरम्भिक वषों में जो संस्कार बन जाते हैं, वे अमिट होते है, इसीलिए, 16 में से यज्ञोपवीत आदि 12 संस्कार बचपन में आठ-दस वर्ष की आयु से पहले ही सम्पन्न करने का विधान हैं। संस्कारों के समय स्वस्तिवाचन, शान्तिपाठ, पुण्याहवाचन तथा गणेशादि देवताओं के पूजन, एवं सात्त्विक एवं आध्यात्मिक भावनाओं से परिपूर्ण बना दिया जाता है कि संस्कार व्यक्ति को तो ऐसा अनुभव होता ही हैं कि मानो उसके तन-मन में रोम-रोम में एक अभिनव, पवित्र, उदात्त एवं निर्मल भावनाएं संचारित हो रही हैं। साथ ही अन्य उपस्थित जनों में भी सात्विक भावों का संचार होने लगता है। यही कारण है कि हमारे संस्कारों में बहुत समय लगता है। विवाह और यज्ञोपवीत आदि संस्कारों में तो कई-कई दिन लग जाते हैं।
- इस प्रकार संस्कार्य व्यक्ति को परिवार, समाज एवं राष्ट्र के हित-साधन में तत्पर बना दिया जाता हैं। संस्कारों के द्वारा मनुष्य के मन में आस्तिकता की भावनाएं जागृत एवं प्रतिष्ठित हो और मानव सन्ध्यावन्दन, जप, हवन आदि नित्य तथा व्रत-पर्व आदि नैमित्तिक कर्मों को यथाविधि सम्पादित करता हुआ अपने जीवन को सरल, सात्त्विक एवं सुखमय बना लेता हैं। जैसे घिसने माजने आदि से लोहा सोना तो नहीं बन जाता, तथापि उसे चांदी के जैसा चमकदार तो बनाया ही जा सकता है और उसमें ऐसे गुण उत्पन्न किए जा सकते हैं कि उसे जंग न लग पाए, या मलिनता न आ पाए। ठीक वैसे ही मानव के जन्मान्तरीय संस्कारों को पूर्णतः बदला भले ही न जा सके, किन्तु उनके दोषों या मलिनताओं का बहुत कुछ अपमार्जन एवं अभिनव गुणों या अतिशयता का आधान अवश्य ही इन संस्कारों के द्वारा किया जा सकता हैं। हमारा तो जीवन ही संस्कारों के तानो-बानों से बना और बुना हुआ है।
‘निषेकादिष्मषानान्तोस्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः ।'
- कहकर मुनि ने बताया हैं कि जीवन को उतरोतर शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र, सात्विक व तेजस्वी बनाए रखने का प्रयत्न निषेक या गर्भाधान से लेकर मृत्यु-पर्यन्त सतत चलता रहता हैं।
- ऊपर से देखने में तो यह बात बड़ी अटपटी-सी लगती हैं कि गर्भ में आने के साथ ही पहली बार दूसरे मास में और दूसरी बार छठे से आठवे मास में दो-दो बार जीव के संस्कार कर दिए जाए. किन्तु हैं यह सर्वथा वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रतीत होता है । कारण यह हैं कि माता के गर्भ में रहते हुए जीव को अपना अहार-विहार माता के द्वारा ही ग्रहण करना पड़ता है, गर्भावास्थ में माता जो कुछ भी और जैसा कुछ खाती-पीती, सोचती- विचारती, पढ़ती-सुनती या देखती भालती है, गर्भस्थ जीव पर भी ठीक वैसे ही संस्कार पड़ते रहते हैं।
ऋग्वेद में कहा गया हैं कि माता-पिता सदा सजग रहना चाहिए कि कहीं -यन्मे मता प्रममद्यात् यच्चचारावनुव्रतम् तन्मेरेतः पिता वृड्. वक्तान्मा भुरण्योपपद्यताम् ।।
- स्पष्ट है कि गर्भधारण करने के पश्चात् माता के खान-पान, आहार विचारों का विशेष ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है, उसकी इच्छा और रुचि का पूरा-पूरा ध्यान रखना होता है । उन दिनों उसे किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक कष्ट न पहुंचे, वह स्वस्थ रहे, उसका चित्त प्रफुल्लित और सात्विक विचारों से परिपूर्ण रहें। इसका दायित्व केवल पति पर ही नहीं घर की बड़ी-बूढ़ी सदस्याओं तथा सारे परिवार पर समान रूप रहता हैं। इन्हीं महत्वपूर्ण तथ्यों एवं तत्वों को ध्यान में रखकर ही हमारे ऋषियों ने गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन इन तीन प्राग्जन्म-संस्कारों का विधान किया हैं। इसी प्रकार जातकर्म, नामकरण, मुण्डन व यज्ञोपवीत आदि अन्य संस्कारो का भी अपना महत्त्व हैं।