सुबन्धु का समय | Subandhu Time Period

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सुबन्धु का समय  (Subandhu Time Period) 

सुबन्धु का समय | Subandhu Time Period
 

सुबन्धु का समय Subandhu Time Period

 

  • 'वासदत्ता' नामक गद्यकाव्य के रचयिता सुबन्ध का स्थितिकाल निश्चित नहीं है। निश्चित साक्ष्यों के अभाव में सुबन्धु का काल निर्धारित कर पाना दुरुह कार्य हैं कुछ स्रोतों के आधार पर सुबन्धु का सम्भावित समय प्राप्त किया जा सकता है।

 

वामन, (समय 800ई॰) ने काव्यलंकारसूत्र' में 'उत्कलिकप्राय' गद्य के उदाहरण के रूप में एक गद्यांश उद्धृत किया है- 


कुलिशशिखरखरनखरप्रचयप्रचण्डचपेटपातिमत्तमातड्.गकुम्भस्थल 

गलन्मदच्छटाच्छुरितचारुकेसरभारभासुरमुखे केसरिणि । 

यही गद्यांश बाण के 'हर्षचरितमें भी ज्यो का त्यों पाया जाता । अत्यधिक भिन्नताओं के साथ ही गद्यांश सुबन्धु की वासवदत्ता' में भी पाया जाता है - 


 

कुलिशशिखरखरनखरप्रचयप्रचण्डचपेटपातिमत्तमातड्.गकुम्भस्थल रुधिरच्छताच्छुरितचारुकेसरभासुरकेसरिकदम्बेन.. । 


  • वामन और बाण के उद्धरणों में एकरूपता होने से यह प्रतीत होता है कि इस गद्यांश के सन्दर्भ में वामन बाण के 'हर्षचरित' से ही प्रभावित हुए होंगे क्योंकि बाण का काल सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध लगभग निश्चित हैं। बाण हर्ष के दरबारी कवि थे। हर्षका समय 606 से 647 ई० माना जाता है। अतः बाण इस समय के आधार पर वामन (800ई०) पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। पुनः हर्षचरित' और वासवदत्तामें उद्धरणों की साम्यता से यह प्रतीत होता है कि बाण ने सुबन्धु से इस गद्यांश को ग्रहण किया होगा क्योंकि बाण ने 'हर्षचरित' के प्रारम्भ में 'वासवदत्ता' नामक रचना का उल्लेख किया है। इसमें बाण ने 'वासवदत्ता को कवित्व के गर्व का नाशक बताया है। यह भी कहा जा सकता है कि बाण की उपरोक्त उक्ति भास के 'स्वप्नवासवदत्तम् के बारे में भी हो सकती है लेकिन ऐसा सोचने के लिए कोई आधार नहीं है क्योंकि बाण ने 'हर्षचरित' के प्रारम्भ में भास का अलग से उल्लेख किया है ।


  • इसके अतिरक्त 'स्वप्नवासवदत्तम् सरल शैली में रचित एक नाटक है, जिसमें श्लिष्टता या विद्धता का कोई विशेष पुट नहीं दिखता। अतः कहा जा सकता है कि कवियों का मान-मर्दन कर सकने में कोई वासवदत्ता' सक्षम है तो वह है- सुबन्धु की वासवदत्ता' । अपने विद्वतापूर्ण वर्णनों के कारण, जटिल श्लेषयुक्त सामसिक शैली के कारण सुबन्धु की 'वासवदत्ता' को ही यह गौरव दिया जा सकता है। इस सम्बन्ध डॉ० भोलाशंकर व्यास का विचार द्रष्टव्य है- हमें ऐसा प्रतीत होता है, बाण को सुबन्धु की कृति का पूरी तरह पता था और हर्षचरित से भी अधिक इस बात की पुष्टि कादम्बरी की कथानक रूढ़ियों के सजाने और शैली के प्रयोग से होती है। अतः बाण सुबन्धु से परवर्ती सिद्ध होते हैं।

 

  • वाक्पतिराज (700-725) ने प्राकृत-काव्य 'गउडवहो' की रचना किया हैं। इसमें उन्होंने सुबन्धु का उल्लेख किया है लेकिन बाण का नहीं। इससे यह प्रतीत होता है कि उस समय तक सुबन्धु की पर्याप्त प्रसिद्धि हो चुकी थी, पर बाण अभी तक अप्रसिद्ध ही थे। इन तथ्यों के आधार पर सुबन्धु के काल की उत्तरसीमा बाण से पूर्व अर्थात् लगभग 550 ई० आंका जा सकता है। अब सुबन्धु के काल की पूर्व सीमा पर विचार अपेक्षित है। सुबन्धु के काल की पूर्व सीमा वासवदत्तामें उपलब्ध तथ्यों के आधार पर भी कुछ-कुछ निर्धारित की जा सकती है। इसमें रामायण, महाभारत, गुणाढ्य की बृहत्कथा, कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् इत्यादि का उल्लेख मिलता है। सुबन्धु ने एक रमणी के वर्णन के प्रसंग में श्लेष के माध्यम से नैयायिक उद्योतकार तथा बौद्धधर्मकीर्ति के 'बौद्धसंगत्यालंकार' नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख किया है परन्तु ये प्रमाण सुबन्धु के काल की पूर्वसीमा निर्धारित कर सकने में सक्षम नहीं है क्योंकि उपरोक्त कृतियों या उद्योतकार का समय बहुत निश्चित नहीं हो पाया है लेकिन इतना निश्चित है कि उल्लेख करने के कारण सुबन्धु इन सबके बाद के विरूद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में एक साक्ष्य सहायक सिद्ध हो सकता है। सुबन्धु ने 'वासवदत्ता' के प्रारम्भ में महान विक्रमादित्य की मृत्यु पर विलाप करते हुए लिखा है कि-

 

सा रसवत्ता विहता नवका विलसन्ति चरित नो कंकः । 

सरसीव कीर्तिशेषं गतवति भुवि विक्रमादित्ये ॥ 


यहाँ पर वर्णित विक्रमादित्य कौन था, इसका यथार्थ परिचय नहीं मिल पाता है । इतिहास में अनेक विक्रमादित्य का उल्लेख मिलता है इसलिए यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि किस विक्रमादित्य का उल्लेख किया गया है लेकिन यहाँ पर ऐसा प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय (374-413ई०) का ही उल्लेख किया गया है क्योंकि वामन ने अपने काव्यलंकारसूत्र' में सुबन्धु को चन्द्रगुप्त के एक पुत्र का मन्त्री बताया है। अर्थप्रौढ़ी के पाँच भेदों में से अन्तिम साभिप्राय का वर्णन करते हुए वामन ने लिखा है-साभिप्रायत्वं यथा-

 

सोऽयं सम्प्रति चन्द्रगुप्तनयश्चन्द्रपकार्शो युवा, 

जातो भूपतिराश्रयः कृतधियां दिष्टया कृर्तार्थश्रमः । 


इसी की वृत्ति में वामन लिखते हैं- 

  • आश्रयः कृतधियामित्यस्य च सुबन्धुसाचिव्योपक्षेपमरत्वात् साभिप्रायत्वम्। डॉ॰ मानसिंह का मत है कि 'चन्द्रगुप्तनयः' से चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का अभिप्राय है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुमार गुप्त प्रथम युवावस्था में अपने पिता के पश्चात् 414ई० में सत्तासीन हुआ (सम्प्रति चन्द्रगुप्तनयष्चन्द्रप्रकाषोयुवा), उसने सुबन्धु को बुद्धिमान (कृतार्थ) समझकर अपना मन्त्री बनाया। सुबन्ध को उस समय तक युवावस्था पार कर लेना चाहिए। इसलिए उनका जन्म कुछ पहले (400ई०) हुआ होगा और उन्होंने विक्रमादित्य चन्द्रगुप्तद्वितीयका शासनकाल भी देख था । कुमारगुप्त प्रथम के शासन के उत्तरार्द्ध में शत्रुओं का आक्रमण हुआ जिसको सुबन्धु ने भी देखा। 'वासवदत्ता' उनके जीवन के उत्तरार्द्ध की रचना होगी । स्कन्दगुप्त (455-676) के शासन काल में भी सुबन्धु जीवित रहे होंगे। अतः सुबन्धु को 400-465ई० के बीच का माना जा सकता है।

 

  • ऐसा भी माना जा सकता है कि चन्द्रप्रकाश:' कुमारगुप्त प्रथम का विशेषण है क्योंकि कुमारगुप्त प्रथम के उनके सिक्कों में उसकी तुलना चन्द्रमा से की गयी है । ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कुमार गुप्त प्रथम का मृत्युकाल लगभग 455ई० माना गया है।

 

  • सुबन्धु द्वारा उद्योतकार का उल्लेख करना भी उपरोक्त समय को मानने में सहायक है क्योंकि ऐसा समझा जाता है कि उद्योतकार ने प्रसिद्ध तर्कशास्त्री दिड्. नाग की आलोचना की है और ए० बी० कीथ ने दि. नाग को 400ई० का माना है । बलदेवउपाध्याय ने भी दि. नाग का समय 345-425ई० माना है। इस प्रकार उद्योतकार उसके बाद के ही रहे होंगे। बलदेव उपाध्याय के अनुसार उद्योतकार का समय षष्ठ शतक ई० हैं सुबन्धु द्वारा उद्योतकार का उल्लेख यह प्रमाणित करता है कि उद्योतकार का 'न्यायवार्तिक' 'वासवदत्ता' की रचना के समय ख्याति प्राप्त कर चुका होगा।

 

उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर सुबन्धु के काल की पूर्वसीमा 385-414ई० के लगभग मान जा सकती है । इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने भी अपने शोध के आधार पर सुबन्धु के समय के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट किया है, जो इस प्रकार है-

 

1.पण्डित शंकदेवशास्त्री ने सुबन्धु का समय 500 ई० या इससे कुछ पूर्व माना है। 

2. डॉ० भोलाशंकर व्यास के अनुसार सुबन्धु का काल छठीं सदी का मध्य है।

3. चन्द्रशेखर पाण्डेय ने सुबन्धु को 600 ई० या इससे कुछ पूर्व का ठहराया है । 

4. डॉ॰ कपिलदेव द्विवेदी का मानना है कि सुबन्धु 600ई० के लगभग रहे होंगे। 

5. आचार्य बलदेव उपाध्याय ने भी इनको षष्ठ सदी के अन्त का बताया है । 


  • अन्त में सुबन्धु के समय के सम्बन्ध में लुईस एच० डो के शब्दों को निष्कर्ष माना जा सकता है । इनके अनुसार सुबन्धु के काल की पूर्वसीमा उद्योतकार के बाद तथा उत्तरसीमा बाणभट्ट के पूर्व निर्धारित की जानी चाहिए । इस प्रकार सुबन्धु का काल 400-550ई० निर्धारित किया जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि सुबन्धु इसी बीच कभी रहे होंगे ।

 

  • इस प्रकार हम सुबन्धु के काल एव जीवनवृत्त के सम्बन्ध में उपर्युक्त तथ्यों एवं तर्कों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सुबन्धु 'वासवदत्ता' के रचयिता है जो उनकी एकमात्र कृति है। विक्रमादित्य-चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमार गुप्त प्रथम (415 ई० 455) के दरबारी कवि थे और 385-500ई० के बीच में कभी रहे होंगे। वे मध्यभरत के निवासी थे, सम्भवतः मालव के वैष्णव और सुबन्धु वररुचि की बहन के पुत्र थे । इनके गुरु का नाम दामोदर था। सुबन्धु के काल एवं निवास-स्थान के विषय में डॉ० मानसिंह का मत भी उक्त बिन्दुओं को पुष्ट करने में सहायक हो सकता है।

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