संस्कार के प्रकार | Types of Sanskar in Hindu

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संस्कार के प्रकार (Types of  Sanskar in Hindu)

संस्कार के प्रकार | Types of Sanskar in Hindu

 


संस्कार के प्रकार  (Types of Sanskar in Hindu)

 

उपरोक्त स्थितियों के आधार पर यह स्पष्ट है कि 16 संस्कार ही कालान्तर में लोकप्रियता अर्जित कर पायेजो निम्न हैं

 

(1) गर्भाधान, (2) पुंसवन, (3) सीमन्तोन्नयन, (4) जातकर्म, (5) नामकरण (6) निष्क्रमण, (7) अन्नप्राशन, (8) चूड़ाकर्म, (9) कर्णवेध, (10) विद्यारम्भ, (11) उपनयन (12) वेदारम्भ, (13) केशान्त, (14) समावर्त्तन, (15) विवाह तथा (16) अंत्येष्टि

 

(1) गर्भाधान - यह जीवन का प्रथम संस्कार हैं जिसके माध्यम से मानव अपनी पत्नी के गर्भ में

 

बीज स्थापित करता था इस संस्कार का प्रचलन उत्तरवैदिक युग में हुआ। सूत्रों तथा स्मृति ग्रन्थों में इसके लिए उपरोक्त समय एवं वातावरण का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके लिए आवश्यक था कि स्त्री ऋतुकाल में हो तथा ऋतुकाल के पश्चात् चौथी से सोलहवीं रात्रियां इसके लिए उपयुक्त बतायी गयी हैं- 'षोडषर्त्तुर्निषाः स्त्रीणां तासु युस्मासु संविशेत्'

 

अधिकांश गृहसूत्रों तथा स्मृतियों में चौथी रात्रि को शुद्ध माना गया है जबकि आठवीपन्द्रहवीं एवं तीसवीं रात्रियों इसकी क्रिया वर्जित मानी गयी थी। सोलह रात्रियों में प्रथम चारग्यारह एवं तेरह को निन्दित माना गया है जबकि शेष दस श्रेयस्कर की श्रेणी में रखी गयी हैं। इसके लिए रात्रि का समय ही उपयुक्त माना गया थाजबकि दिन में यह कार्य वर्जित था। प्रश्नोंपनिषद् में यह उल्लिखित हैं कि दिन में गर्भ धारण करने वाली स्त्री से अभागीक्षीणकाय एवं अल्पायु सन्तानें जन्म लेती हैं - 'नार्तवे दिवा मैथुनमर्जयेदल्पभाग्याः अल्पवीर्याचदिवाप्रसूयन्तेद्रत्या पुत्रप्चेति'

 

परन्तु उस काल में भी उन लोगों के लिए इस नियम में कुछ छूट दी गयी थी जो घर से सुदूर रहते थे। इस कालावधि में गर्भाधान के लिए रात्रि का अन्तिम प्रहर अभीष्ट माना गया था। इसके अन्तर्गत यह भी मान्यता थी कि सम रात्रियों गर्भाधान के पश्चात् पुत्र व विषम रात्रियों में पुत्री उत्पन्न होती हैं

 

युग्मासु पुत्राजायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रियु'

 

इस समय नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसके अन्तर्गत एक स्त्री अपने पति की मृत्यु अथवा नपुंसक की स्थिति में उसके भाई अथवा सगोत्र व्यक्ति से सन्तान उत्पत्ति हेतु यह क्रिया करवाती थी किन्तु अधिकांश ग्रंथों में इसे निन्दनीय माना गया है। मनु ने इसे पशुधर्म की संज्ञा दी है अर्थद्विजेहि विद्वद्भिः पशुधर्म: विगर्हितः '

 

प्राचीनकाल में यह क्रिया प्रत्येक विवाहित पुरुष व स्त्री के लिए पवित्र एवं अनिवार्य संस्कार के रूप में मानी जाती थी जिसका उद्देश्य स्वस्थसुन्दर एवं सुशील सन्तान प्राप्त करना था। पार ने यह व्यवस्था दी कि जो पुरुष स्वस्थ होने पर भी ऋतुकाल में अपनी पत्नी से समागम नहीं करता है वह निःसन्देह भूर्ण हत्या का भागी होता है

 

ऋतुस्नाता तु यो भार्या सन्निधौ नोपगच्छति ।

 

इस काल में स्त्री के लिए भी यह अनिवार्य था कि वह ऋतुकाल के स्नान के बाद अपने पति के निकट जाये। पाराशर के मतानुसार ऐसा न करने वाली स्त्री का दूसरा जन्म शूकरी के रूप में होता हैं।

 

वैदिक युग के लिए स्वस्थ एवं बलिष्ठ सन्तानें पैदा करना प्रत्येक आर्य का कर्त्तव्य था क्योंकि इस काल में निःसंतान व्यक्ति समाज में आदर का पात्र नहीं था। ऐसी धारणा थी कि जिस पिता के जितने अधिक पुत्र होंगे तो वह स्वर्ग में उतना ही अधिक सुख प्राप्त करेगा । ध्यातव्य है कि पितृऋण से मुक्ति भी सन्तान पैदा करने पर ही सम्भव हो पाती थी

 

(2) पुंसवन संस्कार

 

गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र प्राप्ति हेतु संस्कार कार्यान्वित किया जाता था। 'पुंसवन का में

 

अभिप्राय हैं कि वह अनुष्ठान जिससे पुत्र की उत्पति हो

 

'पुमान् प्रसूयते येन कर्मणा तत्पुंसवनमीरितम।इस संस्कार के माध्यम से उन देवी-देवताओं को पूजा कर खुश किया जाता था जो गर्भ में शिशु की रक्षा करते थे। ध्यातव्य है कि चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर ही यह संस्कार सम्पन्न होता था क्योंकि यह समय पुत्र प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण माना गया। रात्रि के समय वटवृक्ष की छाल का रस निचोड़कर स्त्री की नाक में दायें छिद्र में डाला जाता था कारण कि इससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती थी तथा सभी विघ्न-बाधाओं का नाश हो जाता था। इस काल के हिन्दू समाज में पुत्र का बड़ा ही उच्च स्थान था ।

 

(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार

 

गर्भाधान के चौथे से आठवें माह तक इस संस्कार को सम्पन्न किया जाता था। इसके बारे में ऐसी मान्यता थी कि गर्भवती स्त्री के शरीर को प्रेत्मातायें अनेक प्रकार से बाधा पहुँचाती हैं जिसके निवारण हेतु कुछ धार्मिक कार्य किये जाने चाहिए। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस संस्कार का विधान किया गया। इस संस्कार के माध्यम से गर्भवती स्त्री की समृद्धि तथा उसके भ्रूण दीर्घायु की कामना कर जाती थी। इस संस्कार के सम्पादित होने के दिन स्त्री व्रत रखती थीकी पुरुष मातृपूजा करता था तथ उसके द्वारा प्रजापति देवता की आहुति दी जाती थी इस समय वह अपने साथ कच्चे उदुम्बर फलों का एक गुच्छा तथा सफेद चिन्ह वाले शाही के तीन कांटे रखता था । स्त्री अपने केशों में सुगंधित तेल डालकर यज्ञ मण्डप में प्रवेश करती थी जहां वेद मन्त्रों के उच्चारण के मध्य उसका पति उसके बालों को ऊपर उठाता था तत्पश्चात् गर्भधारित स्त्री के शरीर पर एक लाल चिन्ह बनाया जाता था जिससे भूत-प्रेत आदि भयाक्रांत हो उससे दूर रहे इस संस्कार के द्वारा स्त्री को सुख और सात्वना प्रदान की जाती थी।

 

(4) जातकर्म संस्कार

 

शिशु के जन्म के समय यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। इसे सामान्यतया बच्चे के नार काटने के पूर्व किया जाता था। उसके पिता विधि कर्मों के अनुरूप स्नान करके उसके पास जाता तथा पुत्र को स्पर्श करता व सूंघता था। इस अवसर पर वह उसके कानों आशीर्वादात्मक मन्त्रों का उच्चारण करता था जिसके माध्यम से बच्चे के लिए दीर्घ आयु व बुद्धि की कामना की जाती थी। इस कर्म के तत्पश्चाधत् बच्चे को मधु व घृत चटाया जाता था इसके पश्चात् ही वह प्रथम बार स्तनपान करता था। इस संस्कार की समाप्ति के पश्चात् ब्राह्मणों को उपहार तथा भिक्षुओं को भिक्षा वितरित की जाती थी।

 

(5) नामकरण संस्कार बच्चे के जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन पश्चात् यह संस्कार कार्यान्वित होता था जिसमें उसका नाम रखा जाता था। प्राचीन हिन्दू समाज में इस संस्कार का अन्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था । वृहस्पति के अनुसार 'नाम ही मानव के लोक व्यवहार का प्रथम साधन है जो गुण एवं भाग्य का आधार है तथा इसी से मानव यश प्राप्त करता है। प्राचीन शास्त्रों में इस संस्कार का विस्तृत विवरण देखने को मिलता है। इस संस्कार के लिए निश्चित शुभ तिथिनक्षत्र एवं मूहूर्त का चयन किया जाता था। इस समय यह ध्यान रखा जाता था कि बच्चे का

 

नाम परिवारसमुदाय एवं वर्ण का बोधक हो। नक्षत्रमाह तथा कुल देवता के नाम पर अथवा व्यावहारिक नाम भी बच्चे को प्रदान किये जाते थे जिनमें कन्या का नाम मनोहरमंगल सूचकस्पष्ट अर्थ वाला तथा अन्त में दीर्घ अक्षर को रखे जाने का विधान था। मनु के अनुसार 'बच्चे का नाम उसके वर्ण का बोधक होना चाहिए। उनके अनुसार ब्राह्मण का नाम मंगलसूचकक्षत्रिय का बलसूचकवैश्य का धनसूचक तथा शूद्र का निन्दासूचक होना चाहिए विष्णु पुराण में यह उल्लिखित है कि ब्राह्मण अपने नाम के अन्त में शर्माक्षत्रिय वर्मावैश्य गुप्त तथा शुद्र दास लिखें।

 

इस संस्कार के पूर्व घर को धोकर पवित्र किया जाता था तथा साथ ही साथ माता व शिशु को स्नान कराया जाता था। उसके बाद माता बच्चे का सिर जल से भिगोकर तथा साफ कपड़े से उसे ढ़ककर उसके पिता को देती थी पुनः प्रजापतिनक्षत्र देवताओंअग्निसोम आदि की बलि दी जाती थी । पिता बच्चे की श्वास का स्पर्श करता था तथा पुनः उसका नामकरण किया जाता था। इस संस्कार के अन्त में ब्राह्मण आदि को भोज दिया जाता था। (6) निष्क्रमण संस्कार

 

यह संस्कार बच्चे के जन्म के तीसरे सप्ताह सम्पन्न किया जाता था जिसमें उसे सर्वप्रथम घर से निकाला जाता था। इस संस्कार को माता व पिता सम्पन्न करते थे। उस दिन घर के आंगन में एक चौकोर भाग को गोबर व मिट्टी के साथ लीपा जाता था तथा उस पर स्वास्तिक चिन्ह बनाकर उस जगह धान को छींटा जाता था। बच्चे को स्नान कराने के बाद उसे नये परिधानों में सजाकर यज्ञ के सामने करके वेदमन्त्रों का पाठ किया जाता था। पुनः माँ बच्चे को लेकर बाहर निकलती थी तथा उसे सर्वप्रथम सूर्य का दर्शन कराया जाता था। इसी के बाद उसका सदा के

 

लिए घर के बाहरी वातावरण से सम्पर्क हो जाता था।

 

(7) अन्नप्राशन संस्कार

 

यह संस्कार बच्चे के जन्म के छठे माह में सम्पन्न कराया जाता था जिसमें उसे सर्वप्रथम पका हुआ अन्न खिलाया जाता था। इसके अन्तर्गत दूधदहीघी व पके हुए चावल खिलाने का विधान था गृहसूत्रों में इस संस्कार के समय विभिन्न पक्षियों का माँ व मछली खिलाने का भी उल्लेख मिलता है। उसकी (बच्चे की) वाणी में प्रवाह लाने हेतु भारद्वाज पक्षी का मांस तथा उसमें कोमलता लाने हेतु मछली खिलायी जाती थी । इसका उद्देश्य बच्चे को शारीरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ बनाना था। कालान्तर में दूध व चावल खिलाने का विधान प्रचलित हो गया

 

(8) चूड़ाकर्म संस्कार

 

अन्नप्राशन के पश्चात् का यह महत्वपूर्ण संस्कार जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम बालक के सिर के बाल काटे जाते थे । गृहसूत्रों के अनुसार जन्म के प्रथम वर्ष की समाप्ति के पूर्व इस संस्कार के सम्पन्न किए जाने वाले तथ्य उल्लिखित हैं। आश्वलायन का मत हैं कि यह संस्कार तीसरे या पांचवें वर्ष में होना प्रशंसनीय हैं किन्तु इसे सातवे वर्ष अथवा उपनयन के समय भी किया जा सकता हैं

 

तृतीय पंचमे वाऽब्दे चौलकर्म प्रशस्यते । प्रागवासमें सप्रमे वा सहोपनयेन वा ॥

 

कुछ विद्वानों के अनुसार इसे कुल व धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार किये जाने की बात भी कही गयी है। ध्यातव्य है कि पहले यह संस्कार घर में ही होता था परन्तु बाद में इसे किसी मन्दिर के देवता के समक्ष किया जाने लगा। इसके हेतु एक शुभ दिन व मुहूर्त निश्चित किया जाता था । प्रारंभ में संकल्पगणेशपूजामंगल श्राद्ध आदि को सम्पन्न किया जाता था तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था । तत्पश्चात् मां बच्चे को स्नान कराकर नये वस्त्रों से सुसज्जित कर यज्ञीय अग्नि के पश्चिम की ओर बैठती थी। इसके बाद पूजा-अर्चना के मध्य बच्चे के बाल काटे जाते थे । इन कटे हुए बालों को गाय के गोबर में छिपा दिया जाता था। पुनः बालक के सिर पर मक्खन अथवा दही का लेप किया जाता था। ध्यातव्य हैं कि बालों को गोबर में छिपाने के पीछे यह मान्यता थी कि वे शरीर के अंग हैंअतः उन पर शत्रुओं व जादू-टोनों रका प्रभाव न दिखे। यही कारण था कि उन्हें छिपाकर सबकी पहुँच से बाहर रखा जाता था। इस संस्कार के पीछे यह धारणा थी कि बच्चे को स्वच्छता व सफाई का ज्ञान कराया जा सके जो उसके स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

 

(9) कर्णवेध संस्कार

 

इस संस्कार के अन्तर्गत बालक का कान छेदकर उसमें बाली अथवा कुण्डल पहना दिया जाता था। सुश्रुत ने इसका उद्देश्य रक्षा तथा अलंकरण बताया है - रक्षाभूषणनिमित्त बालस्य कर्णौ विध्येत् ।

 

के इस संस्कार के समय के बारे में विभिन्न मत हैं। विभिन्न विद्वानों के मतानुसार इसमें जन्म के दिन से लेकर पांचवे वर्ष तक की अवधि व्यक्त की गई है। कर्णवेधन हेतु स्वर्णरजत तथा अयस् (लोहा) की सुईयों का प्रयोग सामर्थ्य के अनुरूप किया जाता था। ध्यातव्य है कि विभिन्न प्रकार की सुईयों का प्रयोग विभिन्न वर्ण के बालकों के लिए होता था। इसी कारण क्षत्रिय बालक का कर्णवेध स्वर्ण की सुई सेब्राह्मण तथा वैश्य का रजत की सुई से तथा शूद्र का लोहे की सूई से किये जाने का नियम था

 

सौवणौं राजपूत्रस्य राजतो विप्रवैश्यायोः ।

 

शूद्रस्य चायसी सूची मध्यमाष्टांगुलात्मिका ॥ यह कार्य धार्मिक रीति से सम्पन्न होता था। इस दरम्यान बच्चे को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठाया जाता था तथा उसे मिठाई खाने के लिए दी जाती थी। उसके बाद वैदिक मन्त्रों के मध्य पहले दायें व फिर बायें कान को छेदा जाता था। ध्यातव्य है कि यह एक अनिवार्य संस्कार था जिसे न करना पाप समझा जाता था। देवल के मतानुसार जिस ब्राह्मण का कर्णवेध न हुआ हो उसे दक्षिणा नहीं देने की बात कही गई है। इसके विपरीत जो बिना कर्णवेध वाले ब्राह्मण को दक्षिणा देता हैं तो वह राक्षस या असुर श्रेणी में आता है। इस संस्कार का उद्देश्य् बच्चे को भविष्य में स्वस्थ रखने हेतु किया गया। सुश्रुत के मतानुसार इस संस्कार के होने के बाद बच्चे को अण्डाकोष वृद्धि व आन्त्रवृद्धि आदि रोगों से छुटकारा मिल जाता है।

 

(10) विद्यारम्भ संस्कार

 

यह संस्कार तब सम्पन्न कराया जाता थ जब बच्चे का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने हेतु उपयुक्त समझा जाता था। इसके अन्तर्गत उसे अक्षरों का बोध कराया जाता था। इसी कारण कुछ विद्वान इसे अक्षरारम्भ संस्कार भी कहते हैं। इसका समय जन्म के पांचवें वर्ष अथवा उपनयन संस्कार के पूर्व बताया गया है। यह संस्कार एक शुभ दिन व शुभ मूहूर्त में संपन्न किया जाता था। इस दिन बच्चे का स्नान कराकर उसे सुगन्धित द्रव्यों व परिधानों से सुसज्जित कराया जाता था। सर्वप्रथम गणेशसरस्वतीलक्ष्मी व कुल देवों की पूजा की जाती थी। उसके बाद शिक्षक पूर्व दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर उस बच्चे से ओम्स्वस्तिनमः सिद्धाय” आदि शब्द लिखवाकर इस कार्य को आरम्भ करता था। इस समय बालक गुरु की पूजा करता था तथा वह अपने लिखे हुए • शब्दों को तीन बार पढ़ता था। तत्पश्चात् वह बालक अपने गुरु को वस्त्र व आभूषण प्रदान करता था तथा उपयुक्त देवताओं की तीन बार परिक्रमा करता था। इस संस्कार में उपस्थित ब्राह्मण उस बच्चे को आशीर्वाद देते थे। इस संस्कार की समाप्ति के उपरान्त गुरु को पगड़ी भेट की जाती थी। इस संस्कार का सम्बन्ध निःसन्देह बालक की बुद्धि एवं ज्ञान से था। (11) उपनयन संस्कार

 

उपनयन का शाब्दिक अर्थ हैं समीप जाना । अभिप्राय बालक को शिक्षा के लिए गुरु के पास ले जाने से हैं। इस संस्कार की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक स्पष्ट दिखती है जो वैदिक युग में प्रचलित संस्कार की श्रेणी में आ गया। ऋग्वेद में दो स्थलों पर ब्रह्मचर्य शब्द का उल्लेख धार्मिक विद्यार्थी के जीवन के अर्थ में किया गया है। अथर्ववेद में सूर्य का वर्णन ब्राह्मण विद्यार्थी के रूप में अपने आचार्य के पास समिध तथा भिक्षा के साथ जाते हुए किया गया है । शतपथ ब्राह्मण में उद्दालक नामक विद्यार्थी का उल्लेख है जो अपने गुरु के पास शिक्षा हेतु गया तथा उनसे अपने को ब्रह्मचारी के रूप में स्वीकार किये जाने की प्रार्थना की। तथा स्मृति साहित्य में भी इस संस्कार की विस्तार रूप से चर्चा की गई हैं। प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में इसके लिए विद्यार्थी की आयु गणना की गई है। इस समय ब्राह्मण परिवार में बालक प्रायः अपने परिवार में ही शिक्षा प्रारंभ करते थे जबकि अन्य वर्ण के बालकों को इस हेतु गृहत्याग करना पड़ता था । अतः जब वे अपने माता पिता से अलग रहने योग्य हो जाते थे तभी उनके लिए यह संस्कार संपन्न कराया जाता था।

 

इस संस्कार का उद्देश्य मुख्य रूप से शैक्षणिक था। याज्ञवल्क्य के मतानुसार इसका मुख्य ध्येय वेदों का अध्ययन करना हैं। उनके अनुसार आचार्य को दीक्षित शिष्य को वेद व आचार की निश्चित रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए।

 

(12) वेदारम्भ संस्कार

 

इस संस्कार का सर्वप्रथम उल्लेख व्यास स्मृति में किया गया हैं। प्रारंभ में उपनयन तथा वेदों का अध्ययन प्रायः एक ही समय शुरू होता था। ध्यातव्य है कि वेदों का अध्ययन गायन्त्री मन्त्र के साथ शुरू किया जाता था। कालान्तर में वेदों के अध्ययन की गति धीमी पड़ गयी तथा संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं रही। अब उपनयन एक शारीरिक संस्कार हो गया जिसके साथ बालक

 

वेदाध्ययन के स्थान पर अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने लगा। अतः समाजशास्त्रियों ने वेदों के अध्ययन की परम्परा बनाये रखने के उद्देश्य से इसे एक नवीन संस्कार का रूप दिया तथा उपनयन संस्कार को इससे अलग कर दिया। यह पूर्ण रूपेण एक शैक्षणिक संस्कार था जिसका प्रारम्भ बालक के वेदाध्ययन से होता था।

 

इस संस्कार की शुरूआत मातृपूजा से की जाती थी। इसके पश्चाकत् आचार्य अग्नि प्रज्वलित करके विद्यार्थी को उसके पश्चिम में आसीन करता था। यदि ऋग्वेद का अध्ययन शुरू करना होता था तो पृथ्वी तथा अग्नि को आहुतियां दी जाती थी। यजुर्वेद के अध्ययन में अन्तरिक्ष तथा वायु, सामवेद के अध्ययन द्यौस व सूर्य की तथा अथर्ववेद के अध्ययन के समय दिशाओं एवं चन्द्रमा की आहुतियां दी जाती थी। यदि सभी वेदों का अध्ययन करना होता था तो सभी देवताओं की आहुतियां दिये जाने का निश्चित विधान था। अन्त में स्थान्नापन्न पुरोहित को दक्षिणा देने के पश्चात् ही आचार्य विद्यार्थी को वेद पढ़ाना शुरू करता था। मनुस्मृति में यह लिखित है कि वेदाध्ययन के शुरू व अन्त में विद्यार्थी को 'ऊँशब्द का उच्चारण अवश्य करना चाहिएकारण कि प्रारम्भ में उच्चारण न होने से अध्ययन नष्ट हो जाता है जबकि अन्त में उच्चारण न करने से यह ठहरता नहीं हैं। (13) केशान्त अथवा गोदान संस्कार

 

इस संस्कार के अन्तर्गत गुरु के पास रहते हुए विद्यार्थी को 16 वर्ष की आयु में दाढ़ी-मूंछ बनवायी जाती थी इस अवसर पर गुरु को एक गाय दक्षिणास्वरूप दी जाती थी। इसी कारण इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता था। इस संस्कार के माध्यम से विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य जीवन के व्रतों को पुनः एक बार संस्मरण कराया जाता था जिसे पालन करने का वह संकल्प लेता था इस संस्कार की विधि चूड़ाकर्म संस्कार के समरूप ही थी। वैदिक मन्त्रों के मध्य नाई विद्यार्थी को दाढ़ी-मूंछ काटता था । ध्यातव्य हैं कि इन बालों को पानी में बहा दिया जाता था । पुनः विद्यार्थी गुरु को एक गाय दक्षिणा में देता था। अन्त में वह मौन व्रत धारण करता था तथा एक वर्ष कठोर अनुशासन का जीवन बिताता था ।

 

(14) समावर्तन संस्कार- गुरुकुल में शिक्षा प्राप्ति के बाद वह विद्यार्थी जब अपने घर वापस आता थ तब ही यह संस्कार कराया जाता था समावर्तन का शाब्दिक अर्थ होता है गुरु के • आश्रम से अपने घर वापस जाना ।" इसे स्नान भी कहा जाता है क्योकि इस अवसर पर यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य माना जाता था। इसी के पश्चात् विद्यार्थी को स्नातक की उपाधि से विभूषित किया जाता था ।

 

इस संस्कार हेतु कोई आयु निर्धारित नहीं थी सामान्यतया इसका सम्पादन विद्यार्थी के अध्ययन की पूर्ण समाप्ति के बाद होता था। कालान्तर में यह संस्कार शिथिल पड़ गया। ध्यातव्य है कि यह संस्कार अन्य संस्कारों की तरह ही किसी शुभ दिन को सम्पन्न किया जाता था । इस दिन विद्यार्थी प्रातः काल एक कमरे में बन्द रहता था। यह सूर्य को ब्रह्मचारी के तेज से अवमानित होने से रक्षार्थ किया जाता था कारण कि उस समय ऐसी धारणा थी कि सूर्य ब्रह्मचारी के तेज से ही प्रकाशित होता है। इसी दिन मध्यान्ह में विद्यार्थी कमरे से बाहर निकलकर

 

सर्वप्रथम गुरु के चरण छूता था तथा वैदिक अग्नि में समिधा डालकर उसके प्रति अपनी अन्तिम श्रद्धांजलि प्रदर्शित करता था। इसके लिए वहां आठ जलपूर्ण कलश रखे जाते थे जो इस बात की सूचना देते थे कि विद्यार्थी को पृथ्वी की सभी दिशाओं से प्रशंसा तथा आदर प्राप्त है। इसके बाद वह ब्रह्मचारी उन कलशों के जल से स्नान करता था तथ देवताओं से प्रार्थना करता था। इस स्नान के बाद वह दण्डमेखलामृगचर्म आदि का त्याग कर नया कौपीन पहनता था । ध्यातव्य हैं कि दाढ़ी-बालनाखुन आदि कटवाकर वह पवित्र हो जाता था। इसके उपरान्त शरीर पर सुगन्धित लेप के साथ-साथ नये परिधान आभूषण दिये जाते थे । जीवन में रक्षा हेतु उसे बांस का एक डण्डा दया जाता था। अन्तोगत्वा यह विद्यार्थी (स्नातक) आचार्य का आशीर्वचन प्राप्त कर उसकी आज्ञा अपने घर के लिए प्रस्थान करता था। ध्यातव्य हैं कि कभी-कभी गुरु विद्यार्थी की भक्ति एवं सेवा से प्रसन्न होकर उसे ही अपनी दक्षिणा मान लेता था। (15) विवाह संस्कार

 

यह प्राचीन हिन्दू समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार हैं जिसकी महत्ता आज भी विद्यमान है । ध्यातव्य है कि प्राचीन काल मे गृहस्थाश्रम का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता था ।

 

विवाह’ शब्द वि’ उपसर्ग और 'वहधातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ 'वधू को वर के घर ले जाना या पहुँचाना होता हैं', किन्तु अति प्राचीन काल से यह शब्द सम्पूर्ण संस्कार को परिलक्षित करता है इस संस्कार का उद्देश्य पति व पत्नी के सहयोग से विविध पुरुषार्थो को पूरा करना था हिन्दू मत के अनुसार अकेला मानव एकांगी माना गया है तथा उसे पूर्णता तभी मिलती है जब उसे पत्नी का सान्निध्य मिले उक्त तथ्य नीचे दी गयी पंक्ति से निश्चित रूप से स्पष्ट है

 

अयो अर्द्धा वा एव आत्मनः यत्पत्नीः ।

 

ध्यातव्य है कि जब मानव समाज में तीन प्रकार के ऋणों की स्थिति कायम की गई तब इस संस्कार को और अधिक बल मिला क्योंकि इसके बिना मानव पितृऋण से मुक्त नहीं हो सकता था। इसके जरिए मानव अपना एवं अपने समाज का सम्यक् विकास करता है। इस प्रकार यह एक अनिवार्य संस्कार बना जिसे सम्पन्न करना प्रत्येक मानव हेतु धार्मिक एवं सामाजिक बाध्यता थी जिसे सभी वर्णों हेतु किया जाना आवश्यक माना गया। याज्ञवल्क्य के मतानुसार इसे नहीं करने वाला मानव (किसी भी वर्ण का) कर्म के योग्य नहीं माना गया। ध्यातव्य हैं कि स्मृति ग्रन्थों में इसके आठ प्रकारों यथा ब्रह्मदैवआर्षप्राजापत्यआसुरगन्धर्वराक्षस व पैशाच । इनमें प्रथम चार को प्रशस्त व अन्तिम चार को अप्रशस्त नामक संज्ञा से नामित किया गया।

 

विवाह के प्रकारों की विवेचना

 

ब्राह्म विवाह - यह विवाह का सर्वोतम प्रकार था जिसमें पिता सावधानीपूर्वक गुणवान व शीलवान वर चयन कर उसे अपने घर बुलाता था तथा उसकी पूजा कर वस्त्र व आभूषणों से सुसज्जित कन्या को उसे उसके हाथ में देता था। जो नीचे दी गयी उक्ति से निश्चित रूप से स्पष्ट है

 

आच्छाद्य चार्चयित्वाः च श्रुतिशीलवते स्वयम् ।

 

आहूय कन्यायाः ब्राह्मो धर्म प्रकीर्तितः ॥ इस अवसर पर कन्या का पिता उसे उपहार भी देता था। ध्यातव्य है कि इस समय के कुलआचरणविद्यास्वास्थ्य एवं उसकी धर्मनिष्ठा पर भी ध्यान दिया जाता था। स्मृति में यह उक्ति स्पष्ट हैं के यह विवाह कन्या के वयस्क हो जाने पर ही किया जाता था। इस समय कन्या के पिता द्वारा उपहार देने हेतु कोई बाध्यता नहीं थी । ध्यातव्य है कि यह विवाह किसी दबाव में सम्पन्न होता था जिसकी प्रशंसा स्मृति ग्रन्थों में अवश्य ही सुनने को मिलती हैं। यही विवाह आज भी हमारे देश मं प्रचलित है।

 

दैव विवाह - इस विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता वर को कन्या देने के बदले में एक जोड़ी गाय व बैल प्राप्त करता है ताकि वह याज्ञिक क्रियाएं समाप्त कर सके।

 

ध्यातव्य है कि हिन्दू विद्वान इसे कन्या मूल्य नहीं मानते जबकि अल्टेयर महोदय ने वर को गाय व बैल दिये जाने की स्थिति को कन्या मूल्य मानते हुए इसे विवाह का परिष्कृत रूप बताया है । यह विवाह मुख्यतः पुरोहित परिवार में ही प्रचलित था मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट का मत है कि यह उपहार धर्म के अनुसार स्वीकार किया जाता थान कि इसके पीछे कन्या की बिक्री कर कोई इरादा था

 

प्राजापत्य विवाह- इस विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता वर को अपनी कन्या प्रदान हुए यह आदेश देता था कि वे दोनों साथ-साथ मिलकर सामाजिक व धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन करें। 1 कन्या का पिता इसके लिए वर से एक वचनबद्धता प्राप्त कर लेता था। आश्ववलायन के अनुसार “ यह वह विवाह है जिसमें कन्या वर को तुम दोनो साथ-साथ धर्म का पालन करों”- इस आदेश के साथ प्रदान की जाती हैं। इसका अभिप्राय यह था कि दोनों जीवन भर साथ रहेंउनका सम्बन्ध विच्छेद न हो तथा वे एक साथ मिलकर परिवार एवं समाज की उन्नति कर करें । ध्यातव्य हैं कि स्वरूप की दृष्टि से यह विवाह ब्रह्म के समान हैं

 

आसुर विवाह - इस विवाह के अन्तर्गत कन्या के पिता अथवा उसके सम्बन्धी धन लेकर कन्या का विवाह करते थे । यह एक तरह से कन्या की बिक्री का माध्यम था। मनुस्मृति में इसके बारे में कहा गया है कि "जहां वर कन्या के सम्बन्धियों को अथवा स्वयं कन्या को धन देकर में स्वेच्छा से उसे ग्रहण करता हैंवह आसुर विवाह होता है” जो निम्न तथ्यों से स्पष्ट होता है

 

ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्वा कन्यायै चैव शक्तितः । कन्या प्रदानं स्वाच्छान्धादासुरोधर्म उच्यते ॥

 

इस प्रकार इसके अन्तर्गत मुख्य ध्यान धन पर ही दिया जाता था। मनु के अनुसार, “कन्या के विद्वान पिता को अत्यल्प धन भी नहीं ग्रहण करना चाहिए। यदि वह अपने लोभवश धन लेता या लेने का प्रयास करता है तो वह सन्तान विक्रेता की श्रेणी में आता हैं,” जो निम्न तथ्य से भी स्पष्ट है

 

न कन्यायाः पिता विद्वान् गृहणीयाच्छुल्काण्वपि गृहणान्हि शुल्कं लोभेन स्यान्नरोऽपत्य विक्रयी ॥

 

• क्रीता द्रव्येण या नारी न सा पत्नी विधीयते ।

 

न सा दैवेन सा पित्र्ये दासीं ता कवयोः विदुः ॥ आपस्तम्ब के मतानुसार शूद्र को भी कन्या मूल्य स्वीकार नहीं करना चाहिए जबकि बौधायन ने यहाँ तक कहा हैं कि धन से खरीदी गई कन्या पत्नी का पद प्राप्त नहीं कर सकती तथा वह देवताओं तथा पितरों की पूजा में भाग लेने की अधिकारिणी नहीं है। इस प्रकार ऐसी कन्या एक दासी के समरूप है । वैदिक धर्म-शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति धन की खातिर कन्यादान करते हैवे अपनी ही बिक्री करते है। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति संसार में नीच पापी की श्रेणी में आते हैं तथा वे नर्क को जाते हैं तथा वे सात पीढ़ियों के पुण्य को नष्ट कर देते हैं।

 

राक्षस विवाह - इसके अन्तर्गत कन्या का बलपूर्वक अपहरण कर उसके साथ विवाह किया जाता था । मनु के अनुसार, “कन्या पक्ष वालों की हत्याघायलउसके घरों का नाश तथा रोती-बिलखती कन्या को बलपूर्वक उठाकर उसके साथ विवाह करना ही इस विवाह का अभिप्राय था," जो नीचे दिए गए तथ्य से निश्चित रूप से स्पष्ट है

 

हत्वा छित्वा च भित्वाच क्रोशन्नी रुदतो गृहात् । प्रसद्य कन्यांहरणं राक्षसो विधिउच्यते ॥

 

वस्तुतः इसमें निहित क्रूरता के कारण ही इस विवाह को राक्षस विवाह की संज्ञा दी गई है। ध्यातव्य है कि इस विवाह की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है यह विवाह प्राचीन कालीन युद्धकर्मी जातियों में विशेष प्रचलित था। महाभारत में इसे क्षात्र धर्म की संज्ञा दी गई है। मनु क्षत्रियों के लिए इसे प्रशंसनीय मानते हैं। ध्यातव्य हैं कि महाभारत के नायक भीष्म ने भी इसे क्षत्रियों के लिए प्रशस्त बताया है।

 

गान्धर्व विवाह- इस विवाह के अन्तर्गत वर-कन्या एक-दूसरे के गुणों पर विभोर होकर अपने माता-पिता की इच्छा के विपरीत विवाह के बन्धन में बंध जाते थेएक प्रणय विवाह था । मनु के शब्दों में, ‘‘जहां वर व कन्या एक स्वेच्छा से परस्पर मिलकर कामवश आपस में मैथुन के सम्बन्ध स्थापित कर लें तो वही कार्यप्रणाली इस विवाह की श्रेणी में आती है।” चूंकि इस विवाह का प्रचलन केवल गन्धर्व जाति में था इसी कारण इसे गान्धर्व विवाह कहा गया । ध्यातव्य है कि इस विवाह का प्रचलन प्रत्येक युग में था जो हमारे देश की राजपूत जातियों में सर्वाधिक प्रचलित था। वात्स्यायन तथा महाभारत में भी इस विवाह का सर्वोतम बताया गया है जबकि कुछ स्मृतिकारों द्वारा धार्मिक तथा नैतिक आधार पर इस विवाह का विरोध किया गया है।

 

पैशाच विवाह - इसके अन्तर्गत वर छलछद्म के द्वारा कन्या के शरीर पर अपना अधिकार कर लेता थाजो सबसे निकृष्टतम विवाह है। मनु के मतानुसार अचेतसोई हुईपागल अथवा मदमत्त कन्या के साथ जब व्यक्ति सम्भोग करता है तब वह विवाह इसकी श्रेणी में आता है यह नीचे दिए गए तथ्य से भी स्पष्ट है

 

सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ।

 

स: पापिष्ठो विवाहानां पैशाचष्टिमोऽधमः॥

 

याज्ञवल्क्य द्वारा छल से कन्या के साथ किये जाने वाले विवाह को इस (पैशाच) की संज्ञा दी गई है। सभी हिन्दू शास्त्रकारों द्वारा इसे नितान्त असभ्य एवं बर्बरता की श्रेणी में रखा गया है जिसका प्रचलन शायद आदिम जंगली जनजातियों में रहा होगा।

 

विवाहों की अन्य स्थितियाँ

 

सवर्ण तथा अन्तर्वर्ण विवाह - प्राचीन हिन्दू समाज में इन दोनों विवाहों का भी प्रचलन था । हिन्दू शास्त्रकारों की मान्यता हैं कि व्यक्ति को अपने ही वर्ण एवं जाति में विवाह करना चाहिए। इससे लौकिक यश की प्राप्ति होती है तथा अच्छी सन्तान उत्पन्न होती है। समान गौत्र प्रवर तथा पिण्ड में विवाह करना वर्जित था। इस समय गोत्र का मूल अर्थ गोशाला था जो बाद में वंशका बोध कराने लगा। ध्यातव्य है कि किसी परिवार के गोत्र का नामकरण उसके आदि संस्थापक ऋषि के नाम पर रखा जाता है। के

 

प्रवर का शाब्दिक अर्थ आह्वान तथा प्रार्थना है। यज्ञ कराते समय पुरोहित अपने श्रेष्ठ ऋषि पूर्वजों का उच्चारण करता था। कालान्तर में यह व्यक्ति के ऋषि पूर्वजों के नाम से सम्बद्ध हो गया। ध्यातव्य है कि ये ऋषि गोत्र संस्थापक ऋषियों के भी पूर्वज होते थे। यज्ञादि धार्मिक कार्यों के अवसर पर उनके नाम का उच्चारण आवश्यक माना जाता था। आपस्तम्ब के मतानुसार प्रत्येक गोत्र में तीन प्रकार के प्रवर ऋषि होते थे।

 

पिण्ड का शाब्दिक अर्थ 'शरीरहै। अतः सपिण्ड विवाह से तात्पर्य उन दो व्यक्तियों के विवाह से है जिनमें समान शरीर का रक्त विद्यमान हो । ध्यातव्य है कि हिन्दू शास्त्रकारों ने पिता पक्ष में सात तथा माता पक्ष में पंच पीढ़ियों तक के सपिण्ड सम्बन्ध को निषिद्ध माना है। अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह

 

प्राचीन हिन्दू समाज में इन दोनों विवाहों का भी प्रचलन था। अनुलोम विवाह के अन्तर्गत उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने से ठीक नीचे के वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता था। वैदिक समाज में इस तरह के विवाह प्रायः हुआ करते थेकारण कि उस समय वर्ण व्यवस्था के बन्धन कठोर नहीं थे । इस समय अनेक ब्राह्मण ऋषियों के विवाह क्षत्रिय कन्याओं के साथ हुए थे। इसी क्रम में च्यवन ने सुकन्याश्यावत्सने रथवीतिअगत्स्य ने लोपामुद्रा आदि क्षत्रिय कन्याओं के साथ अपने-अपने विवाह किये थे। इस काल में ब्राह्मणों को सभी वर्गों की कन्याओं से विवाह करने का अधिकार था । याज्ञवल्क्य के मतानुसार अनुलोम विवाह द्वारा ब्राह्मण तीनक्षत्रियदो तथा वैश्य मात्र एक वर्ण की कन्याओं के साथ विवाह कर सकता था। ऐतिहासिक काल से भी इस प्रकार के विवाहाके के दृष्टान्त मिलते है । शुंग शासक अग्निमित्र की पत्नी मालविका तथा राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी एक क्षत्रिय कन्या थी । इस प्रकार के कई उदाहरण राजतरंगिणी तथा कथासरित्सागर में भी मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व मध्य युग तक इस प्रकार विवाह समाज में प्रचलित तथा वैध थे। स्मृतिग्रन्थमिताक्षरा तथा दायभाग भी इसकी वैधता को स्वीकार करते हैं किन्तु बाद की स्मृतियों में इसकी चर्चा नहीं की गई हैं। मनु ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि इस प्रकार के विवाह से समाज में वर्णसंकरता उत्पन्न होती हैं।

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