वर्ण व्यवस्था वर्गीकरण (Varn Vyastha Ka Vargikaran Details in Hindi)
वर्ण व्यवस्था वर्गीकरण
- इस प्रकार के वर्गीकरण का प्रमाण भारत के बाहर अन्य अनेक प्राचीन देशों में भी पाया गया हैं। प्राचीन काल में चीन का समाज ) 1) शिक्षित वर्ग, (2) किसान, (3) शिल्पी और ) 4) व्यापारी इन चार वर्गों में विभाजित था । ईराने में भी समाज में चार वर्ग थेअथर्व-, रथेष्ठ, वस्त्रयोफसुयंत और हुइति । अथर्व पुरोहित थे जिनके द्वारा धार्मिक क्रियाओं को सम्पादित किया जाता था। रथेष्ठ योद्धा थे जो देशकी रक्षा करते थे । वस्त्रयोफसुयंत का शाब्दिक अर्थ हैं 'कुलपति'। इसे हम भारतीय वैश्य वर्ण का प्रतीक समझ सकते हैं, जो कृषि, पशुपालन और व्यापार द्वारा समाज के लिए धनोपार्जन करता था । हुइति वे शिल्पी थे जो समाज के लिए सभी आवश्यक वस्तुओं का निर्माण करते थे। इन दोनों ही देशों में समाज का वर्गीकरण व्यवसायों के आधार पर किया गया था । यूरोपीय देशों में भी समाज का विभाजन सम्पति के आधार पर नोबिअभिज) त वर्ग(, क्लर्जी, (पादरी वर्ग (, फ्री फार्मर और सर्फ या विलेन वर्गों में किया गया था। (स्वतन्त्र किसान) दूसरे के साथ -इन वर्गों के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इन चारों वर्गों में एक वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होते थेभारत में प्रागैतिहासिक काल के जो अवशेष मिले हैं उनके आधार पर एस0सी0 मलिक ने बताया कि हड़प्पा संस्कृति में पुरोहितों का केन्द्रीय सता के रूप में बहुत महत्व था। किसानों और व्यापारियों का होना वहाँ के अवशेषों से स्पष्ट हो जाता हैं। यहां के निवासी अच्छे कारीगर थे, जो उनकी कलाकृतियों से स्पष्ट हैं। हड़प्पा के समाज में योद्धा भी थे। वहाँ उपलब्ध दुर्गयोजना तथा हथियारों की प्राप्ति से इसकी स्पष्ट पुष्टि होती हैं। ऋग्वेद कालीन समाज में दो मुख्य वर्गों का उल्लेख मिलता है और दासी वर्ण। इन दोनों आर्य वर्ण - वर्णों में शारीरिक और सांस्कृतिक, दोनों प्रकार के भेद थे। आर्यों ने अनार्यों के लिए शारीरिक अन्तर को व्यक्त करने के लिए निम्नलिखित विशेषण प्रयुक्त किए हैं कृष्णत्वक कृष्णगर्भ, अनास । इन विशेषणों से स्पष्ट होता है कि अनार्य काले रंग के थे। उनके बालकों का रंग भी काला था और उनकी नाक चपटी थी ।
- आर्य तथा अनार्यों के बीच के सांस्कृतिक अन्तर को प्रकट करने वाले निम्नलिखित शब्द ऋग्वेद से प्राप्त होते हैं। मृध्रवाच, अकर्मन, अयज्वन, अब्राह्मन, अव्रत, अन्यव्रत देवपीयु और शिष्वदेव । अतः यह स्पष्ट हैं कि अनार्यों की भाषा आर्यों की भाषा से भिन्न थी इसीलिए वे अनार्यों को अस्पष्ट भाषी कहकर पुकारते हैं। अनार्य वैदिक कर्मकाण्ड तथा आचार । वे सविश्वा विचार में - आर्यदेवों की र के अनुसार ऋग्वैदिक समाज को जनजातीय समाज कहने की उपेक्षा वंश परम्परा पर आधारित समाज कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार वंश परम्परा पर आश्रित समाज ने ही वर्ण व्यवस्था को जन्म दिया। इन वर्णों का मूल व्यवसाय और स्थान विशेष पर आधारित था।
- रामशरण शर्मा के अनुसार ऋग्वैदिक समाज में बन्धुत्व और मुखिया के पद का एक खास महत्व था और ये दोनों ही जनजातीय समाज की विशेषताएं हैं अतः इस समाज का जनजातीय कहना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता हैं।
वर्ण व्यवस्था- लगभग 600 ई0पू0 से 300 ई0पू0
- कात्यायन ने श्रौत सूत्र में लिखा हैं कि वैश्य और राजन्य भी दीक्षित होने पर ब्राह्मण शब्द से सम्बोध्य हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह हैं कि 'वर्ग' गुण और कर्म पर आधारित था, जन्म पर नहीं । आपस्तम्ब ने बताया कि जिसके पिता और माता का उपनयन संस्कार नहीं हुए हो उसके दो पूर्वज ब्राह्मण कहलाते हैं और उनके साथ, विवाह और भोजनादि नहीं करना चाहिए।
- आपस्तम्ब के अनुसार हीन वर्णा के व्यक्ति भी अपने धर्म का पालन अच्छी तरह करने पर उतरोतर जन्मों से उच्चतर वर्गों में जन्म लेते हैं। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के द्वारा नीचे के व्यक्तियों को अपने वर्ण के कर्तव्य पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। दूसरी ओर आपस्तम्ब ने बताया कि राजा को उन सब व्यक्तियों को दण्ड देना चाहिए जो अपने वर्ण के धर्म का पालन न करें। इस प्रकार अपने कर्तव्य की पूर्ति के द्वारा ही व्यक्ति अपनी उन्नति करता हैं और समाज का कार्य भी सुचारू रूप से चलाता हैं।
- धर्मसूत्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के बालकों के उपनयन संस्कार के लिए अलग अलग हैं जैसे कि ब्राह्मणों के लिए बसन्त ऋतु और और अवस्थाओं का निर्धारण किया गया हेतुओं आठ वर्ष, क्षत्रिय के लिए ग्रीष्म ऋतु और ग्यारह वर्ष तथा वैश्य के लिए शरद् ऋतु और बारह वर्ष निर्धारित किए गए हैं। इसका तात्पर्य यह हैं कि इस काल में जन्म के आधार पर बालकों के वर्ण मान लिए जाते थे। इस काल में ब्राह्मणों और शूद्रों के भेद पर क्रमश: अधिक जोर गया। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार शूद्र प्रथम तीन वर्णों के निर्देशन में भोजन तैयार कर सकते हैं। दूसरे चरण में ब्राह्मण को शूद्रों का भोजन छोड़कर अन्य तीन वर्णों का भोजन करने की अनुमति प्रदान की गई हैं, लेकिन गौतम धर्मसूत्र में बताया गया है कि जीवन निर्वाह के साधन अगर उपलब्ध न हों तो ब्राह्मण शूद्र का भोजन कर सकता हैं। तीसरे चरण में आपस्तम्ब का विचार है कि यदि शूद्र भोजन करते समय ब्राह्मण को स्पर्श कर ले तो ब्राह्मण को भोजन करना छोड़ देना चाहिए ।
- इस काल से पहले भी ब्राह्मणों का शूद्रों के साथ विवाह करना हेय दृष्टि से देखा जाता था। गौतम कहते हैं कि मृत ब्राह्मण की सम्प्ति में से शूद्र पत्नी के द्वारा उत्पन्न पुत्र को वृतिमात्र का हक हैं। - हो तो द्विजों को दूसरे प्रसंग में उनका विचार हैं कि जिस ब्राह्मण की पत्नी केवल एक ही शूद्र उसका भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह हैं कि इस काल में ब्राह्मण शूद्र स्त्रियों से विवाह कर लिया करते थे। 'दीघनिकाय' के 'अंबट्ठ सुत्त' में लिखा हैं कि अंबट्ठ ब्राह्मण ने यह दावा किया है कि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्राह्मण के सेवक हैं। इस आधार पर ही बुद्ध ने यह दावा किया है कि क्षत्रिय उच्चतर हैं और ब्राह्मण उनसे निम्न । 'आश्वलायनसुत्त' में यह बताया गया है कि उच्चता का आधार धर्म ग्रन्थों का ज्ञान हैं न कि जन्म । 'वासेट्ठ सुत्त ' विभिन्न के अनुसार वर्णों में कोई भेद नहीं है, केवल चांडाल के भोजन का उच्छिष्ट खाना महापाप हैं।
- उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हैं कि शुरू में वर्णों का आधार व्यक्ति की निजी विशेषताएं थी जिनमें जन्म का कोई महत्व न था, लेकिन धीरे धीरे जन्म वर्णों का आधार बन गया और वर्ण 'जाति' में बदलने लगेछठी शताब्दी ई०पूर0 से पहले के भारतीय समाज में अधिकतर जनजातीय विशेषताएं पाई जाती थीं। लेकिन इसके बाद जब जनों के नाम पर जनपद स्थापित होने लगे तब जातियों का महत्व बढ़ गया। जब क्षत्रिय लोहे के शस्त्रों का प्रयोग करने लगे तो उनकी शक्ति में वृद्धि हुई और वे वैश्य किसानों से जो लोहे के औजारों का उपयोग करके पहले से अधिक अन्न का उत्पादन करने में लगे थे, अब अधिक कर वसूल करने लगे। इस प्रकार नई कृषि के कारण क्षत्रिय और वैश्य व्यापारी दोनों धनी बन गए । वैश्य अधिकतर किसान थे । धनी के किसानों ने बौद्ध धर्म के प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया। वैश्य व्यापारियों ने भी इस कार्य को बहुत आगे बढ़ाया ।
- वैश्य और शूद्र वर्ण के व्यक्ति इससे पहले भी पूर्णतया संगठित नहीं थे। उनमें व्यवसायों के आधार पर अनेक वर्ग थे। इन्हीं व्यवसायिक वर्गों के आधार पर वैश्यों और शूद्रों में लुहार, कुम्हार, , कैवर्त, गणक, ग्वाले, बढ़ई, धीवर, नापित, धोबी, जुलाहे, कलवार आदि अनेक जातियां बन गई ।
वर्ण व्यवस्था वर्गीकरण 300 ई0पू0 से 300 ई0 तक
- रामशरण शर्मा के अनुसार महाभारत में स्पष्टतः समाज के दो स्तर दिखलाई देते हैं। पहला स्तर वह हैं जो जनजातीय था और दूसरा स्तर वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज का हैं । उनके अनुसार दूसरे स्तर के समाज का विवेचन विशेष रूप से शान्तिपर्व और अनुशासन पर्व से प्राप्त होता हैं । इस प्रकार के समाज में पशुपालक, कृषक और व्यापार वैश्य ही राजा को कर देते थे। इसमें ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए वैश्यों के उत्पादन पर ही निर्भर रहते थे । वर्णव्यवस्था के आधार पर आधारित समाज में जनजातीय समाज की कुछ परम्पराएं चलती रही । जब युधिष्ठर ने राजसूय यज्ञ किया तब उन्होंने अपनी पूरी सम्पति प्रजा के उपभोग करने के लिए बाँट दी जो कि एक प्रकार की जनजातीय प्रथा थी। महाभारत में स्पष्ट लिखा हैं कि ब्रह्मा ने प्रारम्भ में केवल ब्राह्मणों की रचना की थी। परन्तु अपने कर्मों के अनुसार मनुष्य विभिन्न भागों में बंट गये हैं। एक दूसरे प्रसंग में उसी ग्रन्थ में लिखा गया हैं कि न तो जन्म, न संस्कार, न विद्वता, न सन्तान किसी व्यक्ति को द्विजाति की श्रेष्ठता दिला सकते हैं बल्कि किसी व्यक्ति को उसके कर्म ही द्विजाति की श्रेष्ठता दिला सकते हैं। एक शूद्र भी अच्छे कर्म के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य हो सकता हैं। इसी प्रकार की विचारधारा 'भगवतगीता' में मिलती हैं। गीता के एक श्लोक में कृष्ण ने स्वयं कहा हैं कि मैंने गुर्ण और कर्म के आधार पर इन चारों वर्गों की सृष्टि की हैं। गीता में ही श्लोक में बताया गया हैं - चातुर्वण्यंमयासृष्टं --- गुणकर्म विभागश:4/13) कि स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों की रचना की गई हैं । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता हैं कि गीता की रचना के समय तक वर्ण का आधार गुण और कर्म था, जाति से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था ।
- महाभारत में ही अन्य प्रसंग में जाति के सिद्धांत का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता हैं। भीष्म ने बताया कि यज्ञ के लिए प्रजापति ने चार वर्णों की सृष्टि की हैं, उनके अलगअलग कर्तव्य भी निष्चित - किए गए हैं। लेकिन सभी वर्गों को अपने वर्ण की या अपने से एक वर्ण नीचे की स्त्री से विवाह करने की अनुमति भी दी गई थी। उनकी सन्तान का वर्ण उनके पिता का वर्ण होता था। महाभारत में स्पष्ट बताया गया हैं कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण ही होता है चाहे उसकी माता ब्राह्मणी हो या क्षत्रिया । किन्तु यदि माता का वर्ण पिता के वर्ण से अधिक नीचा हो तो सन्तान का वर्ण माता का वर्ण हो जाता था ।
- उपरोक्त चारों वर्गों से भिन्न वर्णों की उत्पति भीष्म ने प्रतिलोम विवाहों के द्वारा बतलाई हैं जिसमें पुरुष का वर्ण स्त्री के वर्ण से नीचा होता था। भीष्म के अनुसार इन्हीं के द्वारा अन्य वर्णों की सृष्टि हुई । इन अन्य वर्णों को भीष्म ने निन्दनीय बताया हैं। इस प्रकार इस काल में वर्ण जाति में परिवर्तित होने लगा था। वर्ण का आधार केवल व्यक्ति के विशेष गुण और कर्म ही नहीं रहे। उसका किस वर्ण के परिवार में जन्म हुआ हैं, समाज में मातृदोष के कारण इन्हें दोषी कहा जाता था। इस प्रकार इस काल में वर्ण जाति में परिवर्तित होने लगा था। वर्ण के आधार केवल व्यक्ति के विशेष गुण और कर्म ही नहीं रहे । उसका किस वर्ण के परिवार में जन्म हुआ है, समाज में उसकी स्थिति निर्धारण का एक महत्वपूर्ण कारण माना गया ।
- महाभारत में लिखा हैं कि क्रोध न करना, सत्य बोलना, न्यायप्रियता, क्षमा अपनी विवाहित पत्नी से सन्तान की उत्पति, सदाचार, झगड़ों से बचना, सरलता और सेवकों का पालनपोषण ये नौ चारों कर्तव्य हैं। वेदों को पढ़ाना ब्राह्मणों का प्रजा की रक्षा करना क्षत्रियों और व्यापार करना वैश्यों के प्रमुख कर्तव्य बताए गए हैं। आपत्ति के समय ब्राह्मणों को क्षत्रियों को वैश्यों के के धर्म व्यवसाय करने की अनुमति प्रदान की गई थी। भीष्म के अनुसार देश और काल के अनुसार अधर्म हो सकता है और अधर्म धर्म हो सकता हैं। देश और काल का इतना महत्व हैं परन्तु मनु ने स्पष्ट लिखा हैं कि किसी भी वर्ण के व्यक्ति को आजीविका कमाने के लिए अपने वर्ण से उच्च वर्ण के पेशे को नहीं अपनाना चाहिए। मनु ने आपति की स्थिति में दस ऐसे व्यवसाय बतलाए हैं जिनको चारों वर्णों के व्यक्ति कर सकते हैं। ये दस व्यवसाय इस प्रकार हैं अध्ययन, शिल्पकार्य, मजदूरी, सेवा, पशुपालन, व्यापार, कृषि, सन्तोष, भिक्षा और ब्याज लेना।
- महाभारत में ऐसे अनेकों उदाहरण दिए हैं जिनके द्वारा यह स्पष्ट होता हैं कि अच्छे कर्म करने से निम्न वर्ण के व्यक्ति का भी अगले जन्म में उच्च वर्ण में जन्म होता हैं। इस प्रकार हर एक व्यक्ति से यह आशा की जाती थी कि वह अपने वर्ण के उपयुक्त जो भी कर्म हों उन्हीं को यथाशक्ति सुचारू रूप से सम्पादित करें, इसी में उनका कल्याण हैं। जो व्यक्ति अपने वर्ण के अनुरूप कर्म नहीं करता वह अगले जन्म में उस वर्ण से नीचे वर्ण में जन्म लेता हैं। महाभारत के शान्तिपर्व से यह स्पष्ट हैं कि वैदिक साहित्य में वर्णित चारों वर्गों के अतिरिक्त इस समय समाज में अनेक ऐसी अन्य जातियां मौजूद थीं। महाभारत में भी सभी जातियों की उत्पति अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के द्वारा बताई गई हैं। जातियों की उत्पति का यह सिद्धांत उन लेखकों की कल्पना की सूझ थी जिन्होंनें महाभारत में शान्तिपर्व में इन प्रकरणों को जोड़ा था। मनुस्मृति और महाभारत के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर वी०एस० सुक्थंकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ये प्रकरण महाभारत में मनुवंश के उन्हीं विद्वानों ने दिये थे जिन्होंनें मनुस्मृति की रचना की थी।
- गीता में गुणों में सत्व, रजस् और तमस् की गणना की गई हैं। जिस व्यक्ति में सत्व गुण की प्रधानता पायी जाती है वह शान्ति का जीवन व्यतीत करता हैं। जिसमें रजोगुण प्रधान होता है वह लालची प्रवृति का होता है और बहुत इच्छाएं करता है। जिसमें तमोगुण प्रधान होता है वह आलसी और लापरवाह प्रकृति का होता है। इनमें से कुछ गुण पैतृक होते हैं जबकि कुछ गुण प्रत्येक व्यक्ति को वातावरण से मिलते हैं। इन गुणों के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव बनता हैं। उसके स्वभाव के अनुरूप ही उसके कर्म निश्चित होते हैं।
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म उनके गुणों के आधार पर ही निश्चित किए गए थे। ब्राह्मण में सत्व गुण की प्रधानता पायी जाती हैं अतः उससे आशा की जाती हैं कि वह शान्ति, संयम, तप, पवित्रता, स्पष्टवादिता, ज्ञान और आस्तिकता का जीवन व्यतीत करें, क्षत्रिय में रजोगुण की प्रधानता देखने को मिलती हैं, अतः उससे वीरता, साहस, सावधानी, उदारता और निर्बलों को शरण देने की आशा की जाती हैं । वैश्य के कर्म भी उसकी मनोवृति को ध्यान में रखकर कृषि और व्यापार आदि निर्धारित कर दिए गए हैं । शूद्र की मनोवृति के अनुसार उसका प्रमुख कर्तव्य तीनों वर्गों की सेवा करना निश्चित किया गया ।
- रामायण में भी हमें वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज का प्रमाण मिलता हैं जिसमें मुख्य रूप से वैश्य ही उत्पादन कार्य में संलग्न थे और वे ही राज्य को कर प्रदान करते थे। लेकिन रामायण में भी कुछ प्रथाएं जनजातीय समाज की मिलती हैं जैसे कि अश्वमेध यज्ञ में राजा के द्वारा सबको उपहार देना। रामायण में आश्रमों का भी उल्लेख होता हैं जो वनों में रहने वाली जनजातियों में ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित जीवन मूल्यों की शिक्षा के प्रसार केन्द्र थे। इस प्रकार रामशरण शर्मा के अनुसार महाभारत और रामायण दोनों में वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज और उससे पहले के जनजातीय समाज के वर्णन मिलते हैं।
- उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट हैं कि इस काल में वर्ण का आधार व्यक्ति के गुण और उसके कर्म के द्वारा निर्धारित होते थे, जाति का विशेष महत्व न था। सभी व्यक्तियों की अभिरूचि, बौद्धिक स्तर, सहज प्रतिभा और क्षमता एक जैसी नहीं हो सकती। इन भिन्नताओं के कारण समाज में वर्गों का बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं। पारिवारिक व्यवसाय से भी हम इस प्रवृति को प्रोत्सहन मिलता हैं। प्रायः सभी प्राचीन समाज में इस प्रकार का वर्गीकरण पाया जाता हैं व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति के लिए वर्ण व्यवस्था पर स्थापित होना आवश्यक था। राजाओं से उम्मीद की जाती थी कि जो व्यक्ति अपने वर्ण के अनुसार कर्तव्यों की उपेक्षा करें वे उन्हें उचित दण्ड दें।
- मेगस्थनीज ने भारत में सात जातियों की चर्चा की जो इस प्रकार हैं) -1) दार्शनिक )2) किसान, (3) गोपालक, (4) शिल्पी, (5) सैनिक, (6) ओवरसियर और )7) बाउंसलर । कौटिल्य के अर्थशास्त्र से यह ज्ञात होता हैं कि इस अवधि में कुछ व्यक्ति जाति के सिद्धान्त को अधिक में महत्व प्रदान करने लगे थे। कौटिल्य ने ब्राह्मण पिता और क्षत्रिया माता का पुत्र ब्राह्मण और क्षत्रिय पिता और वैश्य माता के पुत्र को क्षत्रिय कहा हैं। लेकिन वैश्य पिता और शूद्र माता के पुत्र को शूद्र का हैं। उसने रथकार को वैश्य कहा हैं और उनका अपनी जाति के सदस्यों में विवाह करने की अनुमति दी हैं। उसका भी यही मत था जो व्यक्ति अपने वर्ण के अनुरूप न करें उन्हें राजा के द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए।
- वशिष्ठ के कथन से भी उपरोक्त स्थिति की पुष्टि होती हैं। उन्होंने बताया हैं कि कुछ आचार्यों का यह मत हैं कि द्विज पुरुष बिना वैदिक मन्त्रों का पाठ किए शूद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है लेकिन द्विजों को ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से कुल का नाश होता हैं और उस से व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता हैं कि इस काल में जन्म के आधार पर वैवाहिक सम्बन्धों पर कुछ प्रतिबन्ध लगे हुए थे और समाज में अधिकतर व्यक्तियों द्वारा अपना पैतृक व्यवसाय ही होता था | सातवाहन राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि के सम्बन्ध में उनकी माता गौतममें लिखा हैं कि उसने वर्णसंकर को बलश्री ने नासिक अभिलेख बन्द कर दिया था। इससे यही निष्कर्ष प्राप्त होता हैं किपहली शती ईसवी तक देश में वर्ण जाति में परिवर्तित हो चुके थे। यह निश्चित हैं कि व्यवसायों के आधार पर सातवाहन राज्य की जनता चार भागों में बँटी थी, लेकिन समाज का यह विभाजन जाति पर आधारित नहीं था। पहले वर्ग के अन्तर्गत उच्च राजकीय अधिकारी जैसे कि महाभोज, महारठी, महासेनापति आदि आते थे तो वहीं दूसरे वर्ग में अमात्य, महामात्य, भण्डागारिक, व्यापारी, सेठ आदि सम्मिलित थे । तीसरा वर्ग वैद्यों, लेखकों, सुनारों, इत्र बेचने वालों और किसानों आदि का था। चौथे वर्ग में माली, बढ़ई, धीवर आदि सम्मिलित थे। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उक्त अभिलेखों में 'वर्ण' शब्द 'जाति' के अर्थ में प्रयुक्त किया गया हैं।
वर्ण व्यवस्था वर्गीकरण 300 ई0 से 700 ई0
- गुप्तकाल में ब्राह्मणों का प्रभुत्व अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। उन्होंने पूरे भारतीय समाज को चार वर्गों में बांटने का प्रयत्न किया। याज्ञवल्क्य ने वर्णों को जातियों में परिवर्तित करने का प्रयत्न किया हैं। उसके अनुसार निर्दोष विवाह के लिए माता पिता का एक ही जाति का होना बताया आवश्यक बताया स्मृतिकारों ने वर्णों को जातियों में परिवर्तित करने का प्रयास किया। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि वेदों में केवल चार वर्णों ही का उल्लेख मिलता हैं और उस समाज में अनेक जातियां थी । यदि वे अनेक जातियों के अस्तित्व को स्वीकार करते तो वेदों को अपौरुषेय कैसे मानते। इसलिए उन्होंने वर्ण तो चार ही माने लेकिन अन्य जातियों की उत्पति इन्हीं चार वर्णों के अन्तरवर्णीय विवाहों के आधार पर बतलायी हैं। इस प्रकार उन्होंने वर्णों का निर्धारण जन्म के आधार पर किया और इस प्रकार जाति और वर्ग में कोई अन्तर नहीं रह गया । स्मृतिकारों का दूसरा प्रमुख प्रयोजन व्यावसायिक वर्गों को अपने वर्ग में समाहित रखना था । इसकी पुष्टि में हमें अर्थशास्त्र से होती हैं जिसका विवेचन हम ऊपर कर चुके हैं।
- स्मृतिकारों का तीसरा प्रयोजन थाविदेषियों और जनजातियों को भारतीय संस्कृति का उद्देष्य की पूर्ति के लिए धर्मषास्त्रकारों ने वर्णों को जातियों का शयअभिन्न अंग बनाया जाना। इस रूप दे दिया। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भिन्नमें अलग दिषाओं-भिन्न जातियों को अलग मकान बनाने की व्यवस्था कइस काल में साधारणतया व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करते थे लेकिन ऐसे उदाहरण उपलब्ध होते हैं जिनसे यह स्पष्ट हैं कि कुछ व्यक्तियों ने अभिरुचि और गुणों को प्रमुख मानकर अपनी जाति के लिए निर्धारित कार्य नहीं किया। विदेशी जातियों को गुप्तकाल से पूर्व ही क्षत्रिय वर्ण में स्थान दे दिया गया। इसका तात्पर्य यह हैं कि इस काल में भी गुण और कर्म के आधार पर वर्ण निर्धारण की परम्परा विद्यमान थी। इक्ष्वाकु राजा ब्राह्मण थे। उन्होंने शकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध किए क्योंकि वे भी शासक थे। उपरोक्त विवेचन से बात स्पष्ट हो जाती हैं कि ब्राह्मणों के प्रभाव के कारण साधारण जनता वर्ण सिद्धान्त की अपेक्षा जाति सिद्धान्त को अधिक महत्वपूर्ण मानने लगी थी। लेकिन इतना होने पर भी वैवाहिक सम्बन्धों और खानपान के नियमों में अभी किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं आई जितनी कि परवर्ती काल में दृष्टिगोचर हुई।जाति प्रथा का प्रभाव व्यवसाय के चुनाव में इतना हानिकारक सिद्ध न हुआ। हम ऊपर कह चुके हैं इस काल में अनेक शासक क्षत्रितेतर अर्थात् ब्राह्मण और वैश्या जाति के थे । शक जो कि विदेशी शासक थे। अभिलेखों से ज्ञात होता हैं कि अनेक ब्राह्मण व्यापारी, वास्तुकार और राजकीय कर्मचारी थे।