वासवदत्ता का विस्तृत परिचय (Vasvadtta Details in Hindi)
1 वासवदत्ता का राजनीतिक परिचय
1. राजाः-
- सुबन्धु ने सातों अंगों (राजा, अमात्य, कोश, दण्ड, मित्र, जनपद ओर पुर) में राजा को राज्य का सर्वप्रमुख अंग माना है। अतः समस्त प्रजा के लिए सुख शान्ति की व्यवस्था करना राजा का परम कर्त्तव्य मानते है । सुबन्धु राज्य के लिए राजा की सर्वाधिक महत्व प्रदान करते है। उनका विचार है कि जिस प्रकार आंखे शरीर के कल्याण साधन में प्रवृत्त रहती । उसी प्रकार राजा अपने राज्य में सत्य और धर्म का प्रचार कर राष्ट्र के हित में तल्लीन रहता हुए दुष्टों को नियंत्रण में रखकर अनिष्ट निवारण में लगा रहता है।
- इन गद्य साहित्यकारों ने कई श्रेष्ठ राजाओं का चरित्र अपने समकालीन राजाओं के समक्ष रखा है जो राजा होते हुए भी अपने को प्रजा का सेवक समझते थे । राजा का कर्त्तव्य होता है कि वह अपने प्रजाओं का देखभाल करें। वासवदत्ता कथा में राजा के वर्णन में भी शैली का अत्यधिक साम्य है।
यत्र च शासति घरणिमण्डलं छलनिग्रहप्रयोगो वादेशु, नास्तिकला चार्वाकेषु, कष्टकयोगो
नियोगेषु, परिवादों वीणासु...
‘वासवदत्ता’ में नायक कन्दर्पकेतु नायिका वासवदत्ता के प्रति आसक्त होकर जब पागल सा हो जाता है तो उसका मित्र मकरन्द उसे ठीक उसी प्रकार फटकारता है। जैसे-
यस्मिंश्च राजनि जितगति पालयति महीं चित्रकर्मसु वर्णसंकराः, रेतशु केशग्रहाः काव्येषुदृढ़बन्धा शास्त्रेषु चिन्ता..
‘कादम्बरी’ में महाश्वेता के प्रति आसक्त पुण्डरीक को उसका मित्र कपिंजल । कन्दर्पकेतु और पुण् के प्रत्युत्तर भी एक समान है। वासवदत्ता में कन्दर्पकेतु कहता है-
नायमुपदेशकालः। पच्यन्त इव मेऽगांनि ।
कृश्यन्त इवेन्द्रियाणि । भिद्यन्त इव मर्माणि । निस्सरन्तीव प्राणाः।
उन्मूल्यन्त इव विवेकाः। नष्टेव स्मृति । अधुना तदलनमनया कथया।
- हे मित्र (मकरन्द) हमारे समान (कामबाणविद्ध) लोगों का चित्त-व्यापार इन्द्र से युक्त (दैत्यमाता) दिति के समान सैकड़ों शाकों से व्याप्त होता है। मेरे अंग मानो पक रहे हैं। इन्दियां मानो खौल रही हैं। मर्मस्थल मानो फट रहे हैं। प्राणवायु निकल रहे है । कर्त्तव्याकर्त्तव्यनिवारण बुद्धिमानों जड़ से उखड़ रही हैं स्मरण करने की शक्ति मानों नष्ट हो रही है। अब इस कहने से क्या लाभ ? यदि तुम बचपन से मेरे दुःख और सुख के साथी हो तो मेरे साथ आओ-ऐसा कहकर वह अनुचरों से छिपकर उस (मकरन्द) के साथ नगर (अथवा घर) से निकल पड़ा।
- पुत्री की इच्छा को जानने वाले श्रृंगारशेखर ने अपनी कन्या के स्वयंवर के लिए सम्पूर्ण भूमण्डल के राजकुमारों का सम्मेलन किया। तत्पश्चात् पति का चयन करने वाली वासवदत्ता मंच पर आरूढ़ हुयी । उस स्वयंवर सभा में कुछ (राजकुमार) नगर की वेश्याओं को जानने वाले स्तेयशास्त्र चौरशास्त्र) के प्रवर्तक के समान नागरिक आभूषणों से शोभायमान थे । दूसरे (राजकुमार) धृतराष्ट्र (अथवा कृष्ण), द्रौपदी और ( गुरुद्रोणाचार्य अथवा भीष्मादि) से युक्त पाण्डवों के समान सुन्दर नेत्र वाले और कृष्णागुरु के लेप से युक्त थे । अन्य (राजकुमार) दूर तक विस्तृत दिशाओं वाले शरदकालीन दिनों के समान अत्यन्त बढ़ी हुयी (वासवदत्ता की प्राप्ति) की अभिलाषा से सम्पन्न थे। कुछ अपने बल का प्रयोग करने की इच्छा से युक्त थे। कुछ पकड़ने के से लिए पक्षियों का स्वर सुनने वाले बहेलियों के समान शुभ शकुन को सुनने वाले थे। कुछ मृगों के पीछे दौड़ने वाले शिकारी के समान सौन्दर्य के अनुसार (अर्थात् स्वयंवर) प्रवृत्त थे.
- ‘कादम्बरी' में चाण्डाल कन्या का कथन है-हे स्वामी यह वैशम्पायन नाम का तोता सब शास्त्रों के अर्थों का ज्ञाता, राजनीतिक के प्रयोग में चतुर, पुराण और इतिहास की कथा कहने में कुशल, संगीत की श्रुतियों का ज्ञाता, काव्य, नाटक, आख्यायिका, आख्यान इत्यादि असंख्य सुभाषितों का अध्ययन करने और स्वयं रचना करने वाला, हँसी की बातें करने में कुशल, वीणा, बाँसुरी ओर मुरज आदि (वाद्यों) का अद्वितीय श्रोता, नृत्य प्रयोग के देखने में निपुण, चित्रकला में कुशल, जुआ खेलने में चतुर प्रेम कलह में रूठी हुयी स्त्री के लक्षणों का ज्ञाता और समस्त पृथ्वीतल का रत्नरूप है और स्वामी समुद्र की भांति समस्त रत्नों के पात्र है, यह मानकर उसे (वैशम्पायन शुक को) लेकर हमारे स्वामी की पुत्री स्वामी के चरणमूल में आयी है। अतः आप इसे अपना ले। यह कहकर पिंजरे को राजा के सामने रखकर वह (पुरुष) दूर हट गया ।
- जिसके पृथ्वीमण्डल का शासन करने पर वाद विवादों में ही कपट और निग्रह का प्रयोग होता था। प्रजाओं में कपट और बन्धन दण्ड का प्रयोग नहीं था। प्रजाओं में दरिद्रता नहीं थी। प्रजाओं में नीच का संसर्ग नहीं था। प्रजाओं में उस क्षत्रिय राजा से किसी की विरोध नहीं था । चिन्तामणी (अपने चरित से) सभी राजाओं को तिरस्कृत कर देने वाला राजा था । गन्धर्वों को आनन्दित करने से विरत न रहने वाले पर्वत के समान उत्सव कराने वाला, घोड़ों को आनन्दित करने से विरत नहीं था ।
2. राज्य-
- वासवदत्ता के अध्ययन से यहां स्पष्ट हो जाता है कि सुबन्धु समाज की रक्षा के लिए राज्य को अनिवार्य व्यवस्था के रूप में स्वीकार करते है । छलनिग्रहप्रयोगो वादेषु, चार्वाकेषु कण्टकयोगोनियोगेषु परीवादो वीणासु... ..नेत्रात्पाटनं मुनीनां द्विजराजविरूद्धता पंकजानां.. ....... राजा चिन्तामणी के शासनकाल में छल, जाति, और निग्रह (स्थान) का प्रयोग वाद-विवाद में ही होता था, प्रजाओं में छलपूर्वक शूद्रादि जातियों का निग्रह नहीं होता था ।
- नास्तिकता चार्वाकों में ही थी, प्रजाओं में नास्तिकता (दरिद्रता) नहीं थी । पारस्परिक संयोगों में ही कण्टक रोमांच (सूची के अग्रभाग) का सम्बन्ध कभी नहीं होता था। मुनि नामक वृक्षों में ही वल्कल (नेत्र) उतारने का कार्य होता था, प्रजाओं में किसी को नेत्र (आँख) निकालने का दण्ड नहीं दिया जाता था। कमलों में ही द्विजराज ( चन्द्रमा) के प्रति विरूद्धता पायी जाती थी, प्रजाओं में अपने राजा के प्रति विद्रोहाचरण नहीं पाया जाता था।
- राजा श्रृंगारशेखर के राज्य में श्रृंखलाबन्ध केवल काव्यों में ही पाया जाता था प्रजा को श्रृंखलाबन्ध (जंजीर से बांधना) नहीं किया जाता था। प्रजा में किसी का आक्षेप नहीं पाया जाता था । दुर्वर्ण (चाँदी) का प्रयोग कटकादि भूषणों में ही पाया जाता था, स्त्रियों में दुर्वर्ण नहीं पाया जाता था। गान्धार राग का विच्छेद रागों में ही होता था, स्त्रियों में गान्धार राग का विच्छेद नहीं होता था। राजा के शासन में पितृ कार्यों में ही साड़ का छोड़ना होता था, प्रजाओं में धर्म का परित्याग नहीं था ।
- प्रजाओं का कन्या से संगमन और तुला पर आरोहण नहीं था। योगों में शूल और व्याघात चिन्तन होता था, प्रजाओं में दाहिने और बांए हाथ पैर इत्यादि को काटना नहीं था । प्रजाओं में दान का व्यवधान नहीं था। प्रजाओं में खजाना का अभाव नहीं था। 'वासवदत्ता' में कन्दर्पकेतु पिता के आज्ञा बिना ही घर से मित्र मकरन्द के साथ निकल जाते है ।
राजा का कर्त्तव्य -
- सुबन्धु के अनुसार राजा राज्य का सर्वोच्चाधिकारी माना गया है। अतः राज्य में सब प्रकार के विघ्नों का निवारण करते हुए सुख शान्ति करना उसका परम कर्त्तव्य है। प्रजा का पुत्रवत् पालन करते हुए उसको सर्वांगीण विकास के अवसर प्रदान करना भी राजा का प्रमुख कार्य बताया गया है। राजा प्रजा की रक्षा के कार्य में संलग्न हो, अपने राज्य में निवास करने वाले सब लोगों को प्राणों के समान एवं प्रिय पुत्रों के समान समझकर सदा सावधानी के साथ उनकी रक्षा करता हैं वह अक्षय कीर्ति पाकर अन्त में ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है।