वासवदत्ता का समीक्षात्मक परिचय (VasVadtta Ka Samkisha in Hindi)
वासवदत्ता का समीक्षात्मक परिचय
- सुबन्धु नाना विद्याओं, तथा मीमांसा, न्याय, बौद्ध आदि नाना दर्शनों में नितान्त प्रवीण थे । इन्होंने श्लेश और उपमा के प्रसंग में रामायण, महाभारत तथा हरिवशंकी अनेक प्रसिद्ध तथा अल्प-प्रसिद्ध घटनाओं और पात्रों का प्रचुर निर्देश कर अपनी विद्वत्ता का पूर्ण परिचय दिया है। उनकी दृष्टि में सत्काव्य वहीं हो सकता है जिसमें अलंकार का चमत्कार, श्लेष का प्राचुर्य वक्रोक्ति का सन्निवेश रूप से रहता है-“सुश्लेषवक्रघटनापटु सत्काव्यविरचनमिव ।
- इसी भावना से प्रेरित होकर सुबन्धु की लेखनी श्लेष की रचना में ही विशेष पटु है। उन्होंने स्वयं अपने प्रबन्ध को 'प्रत्यक्षर-श्लेषमयप्रपज्जविन्यासवैदग्धनिधि' बनाने की प्रतिज्ञा की थी ओर इस प्रतिज्ञा का पूर्ण निर्वाह उन्होनें इस गद्यकाव्य में किया हैं सुबन्धु वस्तुतः श्लेषकवि है। इन्होंने अभंग उभय प्रकार के श्लेषों का विन्यास कर अपने काव्य को विचित्रमार्ग का एक उत्कृष्ट उदाहरण बनाया हैं परन्तु उनके श्लेष कहीं-कहीं इतने अप्रसिद्ध, अप्रयुक्त तथा कठिन हो गये हैं कि उन्हें समझने के लिये विद्वानों के भी दिमाग चक्कर काटने लगते हैं। कहीं-कहीं तो बिना कोष की सहायता से पाठक एक पग भी आगे नहीं बढ़ता और उसके ऊपर 'कोशं पश्यन् पदे पदे' की उक्ति सर्वथा चरितार्थ होती है। प्रसन्नश्लेष का यह उदाहरण रोचक तथा कमनीय है.
- “नन्दगोप इव यशोदयान्वितः जरासन्ध इव घटित-सन्धि-विग्रहः, भार्गवइवा सदा न भोगः, दशरथ इव सुमित्रोपेतः सुमन्त्राधिष्ठितश्च, दिलीप इव सुदक्षिणयान्वितों रक्षितगुष्च।”(आशय है कि यशोदा से अन्वित नन्दगोप के समान वह राजा यश और दया से अन्वित था, जरा के द्वारा संगठित अंगवाले राजा जरासन्ध के समान वह सन्धि और विग्रह (युद्ध) का सम्पादक था । सदा नभ (आकाश) में गमन करनेवाले (सदा+नभो+गः) शुक्र के सदृश वह सदा दान तथा भोग से सम्पन्न था।
- सुबन्धु ने विरोध, उत्प्रेक्षा, उपमा आदि नाना अलंकारों से अपने काव्य को सजाया है, परन्तु इन सब में भी श्लेष के कारण ही चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयत्न किया गया हैं अनेक उपमायें केवल शब्द साम्य के ऊपर ही प्रतिष्ठित है। 'रक्त-पाद' होने के कारण कवि ने वासवदत्ता की उपमा व्याकरण शास्त्र से दी है। अष्टाध्यायी का एक पाद (4/2) 'तेन रक्तं रागात्' सूत्र से समन्वित है। उधर नायिका के भी पैर रक्त वर्ण के हैं। इस शब्द - साम्य के कारण ही यहाँ उपमा का चमत्कार है। नायिका का स्वरूप अत्यन्त प्रकाशमान है और इसी कारण वह उस न्यायविद्या के समान बतलाई गई है जिसके स्वरूप का निष्पादन तथा ख्याति उद्योतकर नामक आचार्य के द्वारा सम्पन्न है (न्यायविद्यामिव उद्योतकरस्वरूपाम् ) । इस प्रकार के कौतूहलजनक उपमाओं के द्वारा पाठकों का मस्तिष्क अवश्य पुष्ट होता है तथा कवि की विलक्षण चातुरों का भी पूर्ण परिचय मिलता है, परन्तु यह केवल शब्द क्रीड़ा है, जो पाठकों के हृदय को तनिक भी स्पर्श नहीं करती । इस खेलवाड़ में कौतुक का ही विशेष स्थान है। शब्दों का यह तमाशा तमाशबीनों के लिये ही आनन्दवर्धक हो सकता है, रसिकों के लिए नहीं ।
- परन्तु जहाँ सुबन्धु ने अपने श्लेष- प्रेम को छोड़कर काव्य का प्रणयन किया है वहाँ की शैली रोचक है तथा सहृदयों का पर्याप्त मनोरंजन करत है। साधारणतया गद्यकवि पद्यों के लिखने में कृतकार्य नहीं होता, परन्तु सुबन्धु का दृष्टान्त इससे विपरीत है। वे कोमल पद्यों की रचना में सर्वथा समर्थ हैं सत्कविता की यह स्तुति बहुत ही कोमल शब्दों में विन्यस्त की गई.
अविदितगुणापि सत्कवि-भणितिः कर्णेषु वमति मधुधाराम् ।
अनधिगतपरिमलापि हि हरति दृशं मालती-माला ॥11॥
(जिनके गुणों का ज्ञान नहीं होता वह भी सत्कवियों की वाणी श्रोताओं के कानों में मधु की धारा उड़ेलती है। गंध से परिचय न मिलने पर भी, मालती पुष्पों की माला नेत्रों को बरबस खींचती है) । वासवदत्ता की कल्पनाओं का प्रभाव पिछले कवियों पर भी पड़ा था। विरहदुःखों की अवर्णनीयता की यह अभिव्यंजना महिम्नः स्तोत्र के एक सुप्रसिद्ध पद्य की जननी है। सुबन्धु के शब्दों में त्वत्कृते याऽनया यातनाऽनुभूता सा यदि नभः पत्रायते, सागरो मेलानन्दायते, ब्रह्म लिपिकरायते, भुजगपतिर्वा कथकायते तदा किमपि कथमप्यनेर्कर्युगसहस्रैरभिलिख्यिते कथ्यते वा" ( वासवदत्ता, पृ० 306-307) I ( तुम्हारे लिए इसने जो यातना झेली है, वह यदि आकाश कागज बने, समुद्र दावात बने, ब्रह्मा, लिखने वाला हो अथवा सर्पों का राजा कथक का काम करे तब किसी तरह से हजारों युगों में लिखी या कही जा सकती है।) महिम्नः स्तोत्र का ‘असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रें' वाला प्रख्यात पद्य इसी की छाया पर निर्मित बहुत रुचिर तथा रोचक है | सुबन्धु की यह प्रसन्न श्लेषमयी वाणी आलोचकों के लिए नितान्त आह्लादजनक है-
विषधरतोऽतिविषम: खल इति न मृषा वदन्ति विद्वांसः ।
यदयं नकुलद्वेषी स कुलद्वेषी पुनः पिशुनः ।।6।।
- विद्वानों का यह कथन झूठा नहीं है कि खल विषधर सर्प से भी अत्यन्त विषम होता है। देखिए, विषधर तो कवेल 'नकुलद्वेषी' ही होता है, अर्थात् वह नकुल से ही द्वेष करता है, परन्तु 'न+कुलद्वेषी' वह अपने कुल से कभी द्वेष नहीं करता, लेकिन खलों की विचित्र दशा होती हैं वह तो अपने कुल से भी द्वेष तथा विरोध करता है। इस पद्य का प्राण है 'नकुलद्वेषी' पद, जो सुभंग श्लेष के कारण नितान्त सरस तथा सरल है।
- कवि ने प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर वर्णन प्रस्तु किया है, जो श्लेष के प्रपंच से रहित होने के कारण काफी मनोरंजक हैं। प्रभात का वर्णन इसका स्पष्ट उदाहरण है स्वरूप का निष्पादन तथा ख्याति उद्योतकर नामक आचार्य के द्वारा सम्पन्न है (विद्यामिव उद्योतकरस्वरूपाम् ) इस प्रकार के कौतूहलजनक उपमाओं के द्वारा कवि का मस्तिष्क अवश्य पुष्ट होता है तथा कवि की विलक्षण चातुरी का भी पूर्ण परिणाम मिलता है, परन्तु यह केवल शाब्दी क्रीड़ा है, जो पाठकों के हृदय को तनिक भी स्पर्श करती । इस खेलवाड़ में कौतुक का ही विशेष स्थान है शब्दों का यह तमाशा .....बीनों के लिये ही आनन्दवर्धक हो सकता है, रसिकों के लिए नहीं।
- कवि ने प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है, जो श्लेष के प्रपंच से रहित होने के कारण काफी मनोरंजक है। प्रभात का वर्णन इसका स्पष्ट उदाहरण है। परन्तु यहाँ भी उपमा तथा उत्प्रेक्षा का साहित्य नहीं हैं सच तो यह है कि सुबन्धु के काव्य में कलापक्ष का ही साम्राज्य हैं उनकी यह 'वासवदत्ता’ उस विशाल सुसज्जित प्रसाद के समान है जिसक प्रत्येक कक्षा चित्रों से भूषित है तथा अलंकारों के प्राचार्य से जो दर्शकों की आँखों को हमेशा चकाचौध किया करता । कुन्तक के द्वारा वर्णित 'विचित्र - मार्ग' का सबसे सुन्दर उदाहरण है सुबन्धु की यही कृति । बाणभट्ट की यह आलोचना वस्तुतः श्लाध्य तथा तथ्यपूर्ण है, जिसमें वासवदत्ता के द्वारा कवियों के दर्प को चूर्ण कर देने की बात कही गई है.
कवीनामंगलद्दर्यो नूनं वासवदत्तया ।
शक्त्येव पांडुपुत्राणां गतया कर्णगोचरम् ॥
- सुबन्धु तथा बाणभट्ट की शैली में महान् अन्तर है। सुबन्धु का गद्य यदि 'अक्षराडम्बर' का साक्षात रूप हैं, तो बाण का गद्य स्निग्ध, रसपेशल 'पांचाली' का भव्य प्रतीक है। सुबन्धु ने आँख मूँदकर सन्दर्भ का बिना विचार श्लेष का ही व्यूह खड़ा किया, परन्तु बाणभट् की दृष्टि वर्ण्य विषय तथा अवसर के ऊपर गड़ी हुई है। वह जो लिखते है वह अवसर तथा सन्दर्भ से संघर्ष नहीं करता । स्निग्ध, रसपेशल तथा हृदयावर्जक गद्य का जीवित प्रतीक बाण सहृदयों के हृदय को स्पन्दित करता है, जब कि सुबन्धु का गद्य केवल मस्तिष्क से ही टक्कर खाता हुआ कथमपि प्रवेश पाता है। दण्डी से भी सुबन्धु का पार्थक्य स्पष्ट है। दण्डी की तीव्र निरीक्षणशक्ति तथा यथार्थवादी शब्दविन्यास का अभाव 'वासवदत्ता' के लोकप्रिय न होने का पर्याप्त हेतु हैं सुबन्धु, बाणभट्ट तथा कविराज के साथ ‘वक्रोक्ति-मार्ग' के एक निपुण कवि माने गये है अवश्य, परन्तु बाण का 'कादम्बरी' के सामने 'वासवदत्ता' का काव्य पण्डितों की गोष्ठी का ही कवेल विषय है, विदग्धों की गोष्ठी से उसका सीधा सम्पर्क नहीं है।