यज्ञ का लक्षण, यज्ञ और महायज्ञ, यज्ञ के भेद (प्रकार)
यज्ञ का लक्षण, यज्ञ और महायज्ञ ,यज्ञ के भेद (प्रकार)
देवानां द्रव्यहविषां ऋक्सामयजुषां तथा ।
ऋत्विजां दक्षिणानां च संयोगो यज्ञ उच्यते ॥ (मत्स्यपुराण 144144)
‘जिस कर्म-विशेष में देवता, हवनीय द्रव्य, वेदमन्त्र, ऋत्विज और दक्षिणा - इन पांचों का संयोग हो, उसे यज्ञ कहते हैं।'
यज्ञ और महायज्ञ-
यज्ञ के दो भेद होते हैं- एक यज्ञ ओर दूसरा महायज्ञ । जो अपने ऐहिक तथा पारलौकिक कल्याण के लिये पुत्रेष्टियाग और विष्णुयागादि करते हैं, उन्हें 'यज्ञ' कहते हैं और जो विश्वकल्याणार्थ 'पंचमहायज्ञ आदि करते हैं, उन्हें 'महायज्ञ' कहते हैं। यज्ञ और महायज्ञ के स्वरूप तथा इसकी विशेषता का वर्णन महर्षि भारद्वाज ने इस प्रकार किया हैं-
‘यज्ञः कर्मसु कौशलम्’ ‘समष्टिसम्बन्धामहायज्ञः।'
‘कुशलतापूर्वक जो अनुष्ठान किया जाता हैं उसे 'यज्ञ' कहते हैं। पश्चात् समष्टि सम्बन्ध होने से उसी को 'महायज्ञ' कहते हैं। इसी बात को महर्षि अंगिरा ने भी कहा हैं .
यज्ञमहायज्ञौ व्यष्टिसमष्टिसम्बन्धात् ।'
व्यष्टि-समष्टि सम्बन्ध से यज्ञ महायज्ञ कहे जाते हैं ।" यज्ञ का फल आत्मोन्नति तथा आत्मकल्याण हैं, उसका व्यष्टि से सम्बन्ध होने के कारण उसमें स्वार्थ की प्रधानता आ जाती हैं । (यही इसकी न्यूनता हैं। )महायज्ञ का फल जगत् का कल्याण हैं, उसका समष्टि से सम्बन्ध होने के कारण उसमें निःस्वार्थता की प्रधानता आ जाती हैं। (यही इसकी विशेषता हैं।)
यज्ञ के भेद (प्रकार) Types of Yagaya
- प्रधानतया यज्ञ के दो प्रकार होते हैं- श्रौत और स्मार्त्त । श्रुति प्रतिपादित यज्ञों को श्रौतयज्ञ और स्मृतिपादित यज्ञों को स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में केवल श्रुतिप्रतिपादित मन्त्रों का प्रयोग होता हैं और स्मार्त्तयज्ञ में वैदिक, पौराणिक और तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग होता हैं।
- वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता हैं, किन्तु उनमें निम्नलिखित पांच प्रकार के यज्ञ प्रधान माने गये हैं- ' स एष यज्ञ: पंचविध:- अग्निहोत्रम्, दर्शपूर्णमासौ, चातुर्मास्यानि, पशुः, सोमः, इत्ति । (ऐतरेयब्राह्मण) अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु और सोम- ये पांच प्रकार के यज्ञ कहे गये हैं। इन्हीं पांच प्रकार के यज्ञों में श्रुतिप्रतिपादित वैदिक यज्ञों की समाप्ति हो जाती हैं।
'गीतामधर्मसूत्र (8118) में यज्ञों का उल्लेख निम्नलिखित हैं-
- ' औपासनहोमः, वैश्वदेवम्, पार्वणम्, अष्टका, मासिकश्राद्धम, श्रवण, शलगव इति सप्त पायकज्ञसंस्थाः । अग्निहोत्रम्, दर्शपूर्णमासौ, आग्रयणम्, चातुर्मास्यानि, निरूढपषुबन्धः, सोत्रामणि, पिण्डपितृयज्ञदयो दर्विहोमा इति सप्त हविर्यज्ञसंस्थाः । अग्निष्टोमः, अत्यनिष्टोमः उक्थ्यः, षोडषी, वाजपेयः, आतिरात्र, आप्तोर्याम इति सप्त सामसंस्थाः ।
- गीतम धर्म सूत्रकारने पाकयज्ञ, हविर्यज्ञ और सोमयज्ञ भेद से तीन प्रकार के यज्ञों का भेद दिखला कर प्रत्येक के सात-सात भेद दिखला करके 21 प्रकार के यज्ञों का उल्लेख किया हैं। इसमें स्मार्त्त सात पाकयज्ञ संस्थाओं का उल्लेख गृहसूत्रों और धर्मसूत्रों में मिलता हैं। अग्निहोत्रसे लेकर सोमसंस्थान्त 14 यज्ञों का उल्लेख कात्यायनादि श्रौतसूत्र में मिलता है। वर्तमान समय में श्रौतयज्ञों का प्रचार तो नहीं के बराबर हैं। गृहसूत्रोक्त पाकयज्ञों का प्रचार किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रचलित हैं। उपर्युक्त 14 वैदिक या तथा 7 पाकयज्ञ के अतिरिक्त गृहसूत्रों और धर्मसूत्रों में पंचमहायज्ञों का भी उल्लेख किया गया हैं, जो कि नित्यकर्म और आवश्यक अनुष्ठेय माने गये हैं।
- उपर्युक्त सभी प्रकार के यज्ञ सात्विक, राजसिक और तामसिक भेद से तीन प्रकार के कहे गये हैं। जो यज्ञ निष्कामभाव से किया जाता हैं उसे सात्त्विक यज्ञ' कहते हैं। जो यज्ञ सकाम अर्थात् किसी फल - विशेष की इच्छा से किया जाता हैं उसे राजसिक यज्ञ' कहते हैं। जो यज्ञ शास्त्रों के विरूद्ध किया जाता है उसे 'तामसिक यज्ञ' कहते हैं। इनमें सात्त्विक यज्ञ' का अनुष्ठान सर्वोतम कहा गया हैं। अतः यज्ञ का मुख्य उद्देश्य सात्त्विकता को लेकर ही होना चाहिये ।
- शास्त्रों में सात्त्विक यज्ञ का महान् फल लिखा हैं। श्रौत-स्मार्त्तादि सभी प्रकार के यज्ञों में कुछ यज्ञ नित्य, कुछ नैमित्तिक और कुछ काम्य होते हैं। उनमें नैमित्तिक और काम्य यज्ञ करने के लिये तो द्विज स्वतन्त्र हैं अर्थात् वह अपनी श्रद्धा-भक्ति तथा आर्थिक परिस्थिति के अनुकूल यज्ञ करे अथवा न करे, किन्तु नित्ययज्ञ तो करना ही होगा। उस नित्ययज्ञ का नाम ‘पंचमहायज्ञ' हैं। पंचमहायज्ञ के न करने से मनुष्य पंचसूनाजन्य दोषों से छुटकारा कथमपि नहीं प्राप्त कर सकता। अतः ‘पंचसूना’ दोषों से छुटकारा पाने के लिये 'पंचमहायज्ञ' का अनुष्ठान परमावश्यक और नित्य करणीय हैं।
- यह पंचमहायज्ञ अन्य यज्ञों की तरह न तो अधिक द्रव्य साध्य हैं और न अधिक समयसाध्य ही हैं।