पंच महायज्ञों के स्वरूप, अर्थ , यज्ञ की आवश्यकता क्यों है
यज्ञ की आवश्यकता (यज्ञ क्यों किया जाता है)
कर्म-मीमांसा के प्रवृत्त होने पर मानव देह धारण करते ही द्विज ऋषि ऋण, देव-ऋण और पितृ - ऋण-इन तीन प्रकार के ऋणों से ऋणी बन जाता है। श्रीमद्भगवत् (10। 84। 39 ) में आया हैं -
ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितृणं प्रभो ।
यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य
त्यजन् पतेत् ॥
'द्विजाति देवता, ऋषि और पितर-इन
तीनों का ऋण लेकर ही उत्पन्न होते हैं। इनके ऋणों से मुक्त होने के लिये यज्ञ, अध्ययन और
सन्तानोत्पति करना आवश्यक हैं। उनसे उऋण हुए बिना जो संसार का त्याग करता हैं, उसका पतन हो जाता
हैं। 'तैत्तिरीय संहिता
(3 | 101 5) में भी आता हैं
“जायमानो वै ब्रह्मणस्त्रिभिऋणैर्ऋणवान् जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः ।”
‘द्विज जन्म लेते ही ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण इन तीन प्रकार के ऋणों से ऋणी बन जाता हैं । ब्रह्मचर्य के द्वारा ऋषि ऋण से, यज्ञ के द्वारा देव ऋणों से और सन्तति के द्वारा पितृ ऋण से मुक्ति होती हैं। 'भगवान मनु ने भी 'ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य' (61 35) इत्यादि वाक्यों द्वारा उपर्युक्त ऋणत्रय के अपाकरण को ही मनुष्य का प्रधान कर्म बतलाया हैं। ऋणत्रय में 'देवऋण' का भी उल्लेख हैं। देव-ऋण से मुक्त होने के लिये उपर्युक्त तैत्तिरीय श्रुति ने स्पष्ट बतला दिया हैं से कि यज्ञों के द्वारा ही देव ऋण से मुक्ति होती है। वह यज्ञादि कर्म अत्यन्त पावन तथा अनुपेक्षणीय हैं, जैसा कि अनेक मत-मतान्तरों का निरसन करते ने भगवान् ने कहा हैं हुए गीता के परमाचार्य स्वयं भगवान ने कहा है -
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तप
चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ (गीता 1815)
इतना ही नहीं, जगत्-कल्याण की
मीमांसा तथा कर्तव्य-सत्पथ का निश्चय करते हुए भगवान् ने स्पष्ट कहा है- यज्ञीय
कर्मों के अतिरिक्त समस्त कर्म लोक-बन्धन के लिये ही हैं यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः। (गीता 319)
इस प्रकार अनेक
श्रुति-स्मृति-ग्रन्थों में तथा उपनिषदों में यज्ञ को मानव का प्रधान धर्म कहा गया
हैं। अतः प्रत्येक द्विज को यज्ञ करते रहना चाहिए। जो लोग यज्ञ के वास्तविक रहस्य
और महत्त्व को न समझकर यज्ञ के प्रति श्रद्धा नहीं रखते अथवा यज्ञ नहीं करते, वे नष्ट हो जाते
हैं। इस विषय में शास्त्रों की आज्ञा हैं-
नास्त्ययज्ञस्य लोको वै नायज्ञो विन्दते शुभम् ।
अयज्ञो न च पतात्मा नष्यति च्छिन्नपर्णवत् ।।
‘यज्ञ न करने वाले पुरुष पारलौकिक सुखों से तो वंचित रहते ही हैं, वे ऐहिक कल्याणों की भी प्राप्ति नहीं कर सकते। अतः यज्ञहीन प्राणी आत्म-पवित्रता के अभाव में छिन्न-भिन्न पत्तों की तरह नष्ट हो जाते हैं । महाभारत में लिखा है- न ह्मयज्ञा अमुं लोकं प्राप्नुवन्ति कथंचन । (आपद्धर्मपर्व 151 । 8 )
"जो यज्ञ नहीं
करते, वे उस श्रेष्ठ
लोक (परलोक) को प्राप्त नहीं करते।'
गीता (4। 31) में भी कहा है-नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरु सत्तम। : ‘हे अर्जुन! यज्ञ न करने वाले को यह मृत्युलोक भी प्राप्त नहीं हो सकता, फिर दिव्यलोक (परलोक) की तो बात ही क्या हैं।'
अथर्ववेद (12। 21
37) भी कहता है-आयज्ञियो हतवर्चा भवति ।
‘यज्ञहीन ( यज्ञ न
करने वाले ) पुरुष का तेज नष्ट हो जाता हैं।' महर्षि भारद्वाज के ‘ यागपरः पुरुषधर्म:' के अनुसार 'यज्ञ' मानव जाति का विशेष धर्म हैं। अतः मनुष्य को अपना जीवन
यज्ञमय बनाना चाहिये हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों का जीवन यज्ञमय था । वे
यज्ञ-यागादि की उपासना द्वारा ही देवताओं को सन्तुष्ट कर सर्वविध ऋद्धि सिद्धियों
को आत्मसात् कर अपना और विश्व का कल्याण किया करते थे। इसलिये निश्चित हैं कि यज्ञ
के द्वारा ही मनुष्य का जीवन उन्नत और सुखी बन सकता हैं। जो लोग यज्ञ के प्रति
श्रद्धा-भाव न रखकर यज्ञ नहीं करते, वे देवताओं के कोपभाजन बनते हैं। देवताओं के कुपित होने से
प्राणि-मात्र को विविध प्रकार के दुःखों को भोगना पड़ता हैं। शास्त्रों में लिखा
हैं-
"यज्ञे नष्टे
देवनाशस्ततः सर्व प्रणश्यति।' (वायु पुराण 6016)
यज्ञ के न होने
से देवताओं का नाश होता है। देवताओं के नाश समस्त जगत् का नाश होता है।'
यज्ञे विनष्टे सकलाः प्रजाः क्षुद्भयकातराः ।
वृष्ट्यभावान्महद्दुःखं प्राप्य नष्टाश्च काश्चन ॥
(कलिपुराण 21।16)
“यज्ञ के न होने से समस्त प्रजा भूख से पीड़ित हो जाती है और वर्षा के अभाव से बहुत कष्ट प्राप्त कर वह नष्ट हो जाती हैं।' ‘देवताओं के निमित्त यज्ञ न होने से अन्न का क्षय होता है, बादल नष्ट हो जाते हैं, बादलों के नष्ट होने से वर्षा नहीं होती। वर्षा के अभाव से मनुष्यों के लिये भोजन की कमी हो जाती है, जिससे सारा संसार दुर्भिक्ष से पीड़ित हो जाता हैं। महर्षि वसिष्ठ कहते हैं -
यज्ञात् सृष्टिः प्रजायन्ते अन्नानि विविधानि च ।
तृणान्यौषधान्यश्च फलानि विविधानि च ।
जीवानां जीवनार्थाय यज्ञः संक्रियते बुधैः ।।
‘यज्ञ से सृष्टि
चलती हैं, यज्ञ से विविध
प्रकार के अन्न, घास, औषधि और फल
प्राप्त होते हैं। अतः बुद्धिमानों को चाहिए कि वे प्राणि-मात्र के जीवन के लिये
यज्ञ को अवश्य किया करें । पूर्वकाल के प्राणी यज्ञ के वास्तविक तत्त्व को
भलीभांति जानते थे और उनके हृदय में यज्ञ के प्रति श्रद्धा-भक्ति का भाव विद्यमान
था। अतएव वे समय-समय पर यज्ञादि धार्मिक कार्य करते रहते थे, जिससे उनका तथा
संसार का कल्याण होता रहता था। उस समय हमारा यह पवित्र भारतवर्ष अनेक
सुख-समृद्धियों से परिपूर्ण था। समस्त प्राणी सर्वदा सर्वप्रकार से सुखी रहते थे।
अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, अकाल मृत्यु, महामारी प्रभृति
रोग-शोकादि का तो लोग नाम भी नहीं जानते थे। किन्तु आज के प्राणी समय के हेर-फेर
से यज्ञ के महत्त्व को भूलकर यज्ञ करना तक त्याग चुके हैं। इसीलिये देवगण भी हमसे
असन्तुष्ट हैं। देवताओं की असन्तुष्टता से ही आज सारा संसार अनेकानेक कष्टों से
पीड़ित हैं। सर्वत्र भूकम्प, अकाल, बाढ़, महामारी आदि किसी-न-किसी प्रकार की विपत्ति सर्वदा अपनी
स्थिति जमाये रहती हैं। ऐसी भीषण परिस्थिति में संसार के सर्वविध कल्याणार्थ यदि
कोई सीधा-सादा सरल मार्ग हैं तो वह हैं यज्ञ यज्ञ ही एक ऐसा अमोघ साधन हैं, जिसके अनुष्ठान
से देवगण की सन्तुष्टि होती हैं और देवगण की सन्तुष्टि से मानव पुत्र-पौत्रादि एवं
धन-धान्यादि सभी प्रकार के ऐहलौकिक सुखों को प्राप्त करता हैं और मरने के बाद
स्वर्गलोक की प्राप्ति करता है।
इस पवित्र भारत-भूमि में जबतक यज्ञों का उचित सम्मान था, तब तक इसकी मर्यादा तथा सुख सराहनीय था । प्राणी-प्राणी में सद्भावना थी । सर्वत्र कल्याण ही कल्याण दृष्टिगोचर होता था । जब से नवयुग ने अपनी महिमा के प्रचुर प्रसार का प्रारम्भ किया, तभी से यज्ञादि कर्म में शिथिलता आने लगी, जिसका परिणाम यह हुआ कि सुख के बदले दुःख, मर्यादा के बदले अकीर्ति, पारस्परिक प्रेम के बदले ईर्ष्या तथा द्वेष, द्रव्य के बदले दरिद्रता का नग्न नृत्य एवं नाना प्रकार के अकल्याण की बातें दृष्टिपथ हो रही हैं। राजा, रंक, फकीर सभी सुख-लेश की आकांक्षामात्र में ही सफल दिखाई दे रहे हैं। अतः सुस्पष्ट हैं कि उपर्युक्त दुःख-राशि एवं संसार के समस्त दुःखसमूह को आमूलचूल नष्ट-भ्रष्ट करने वाला केवल यज्ञ ही ऐसा अव्यर्थ साधन हैं, जिसके द्वारा मानव सर्वतोभावेन सुखी और सन्तुष्ट हो सकता हैं।