अभ्यास और वैराग्य की साधना में बाधक तत्व, अभ्यास और वैराग्य की साधना का फल
अभ्यास और वैराग्य की साधना में बाधक तत्व, अभ्यास और वैराग्य की साधना का फल
अभ्यास व वैराग्य की साधना काल में साधक के सामने नौ प्रकार के विध्न उपस्थित होते हैं। इन विध्नो से साधना में बाधा उत्पन्न होती है। इसलिए इन्हें बाधक तत्व कहा जाता है। ये चित्त को विक्षेपित करते है, जिससे चित्त चंचल हो जाता है, तथा योग साधना मे अन्तराय आते है। जिससे इन्हे योगान्तराय कहते है। प्रिय विद्यार्थियो इससे पूर्व की इकाइयों में योगान्तराय का विस्तृत अध्ययन आप कर चुके होगें संक्षेप में महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित योगान्तराय इस प्रकार है -
"व्याधिस्त्यान संशय प्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्ध भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ।"
अर्थात
व्याधि- शरीर व मन में किसी रोग का होना व्याधि है।
स्त्यान - अकर्मण्यता अर्थात काम ना करने की प्रवृति
संशय- स्वयं की क्षमता व साधना के परिणाम पर संदेह करना ।
प्रमाद- योग साधना की अवहेलना करना प्रमाद है।
आलस्य - तमोगुण की अधिकता से शरीर में भारीपन ।
अविरति -संसार के विषयो के प्रति आकर्षित होना तथा वैराग्य का अभाव
भ्रान्तिदर्शन - मिथ्याज्ञान, योग साधना के प्रति भ्रामक ज्ञान, भ्रान्तिदर्शन है।
अलब्ध भूमिकत्व- साधना करने पर भी लक्ष्य प्राप्त न होना । जिससे साधना के प्रति उत्साह की कमी, अलब्ध भूमिकत्व है।
अनवस्थितत्व - साधना में चित्त की विशेष स्थिति प्राप्त हो जाने पर भी उसमें स्थिर ना हो पाना, अनवस्थितत्व है।
यह सभी विघ्न योग साधना में बाधक है। महर्षि पतंजलि चेतावनी देते हुए स्पष्ट करते हैं कि इन विघ्नो का कम यही समाप्त नही होता है। इन नौ विघ्नो के साथ उपविघ्न भी है। जो साधक की साधना में बाधा उत्पन्न करते है। इनका वर्णन इस प्रकार से है -
'दुःखदोर्मनस्यङगमेजयत्व श्वासप्रश्वास विक्षेपसहभुवः ।
पा० यो० सू० 1 / 31
अर्थात दुःख, दौर्मन्य, अंग मेजयत्व, श्वास प्रश्वास ये पांच विक्षेपो के साथ - साथ होने वाले विघ्न है।
दुःख
- दुःख के तीन भेद है। आध्यात्मिक आदिभौतिक व आदिदैविक काम क्रोध, - राग - द्वेष, आदि विकारों के कारण शरीर तथा मन की पीड़ा आध्यात्मिक दुःख है। मनुष्य तथा अन्य जीवो शेर, सर्प, मच्छर आदि के द्वारा होने वाले कष्ट को आदि भौतिक दुःख कहते है। अति वृष्टि (वर्षा), ऑधी, विजली, सर्दी गर्मी, भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदाओ - के द्वारा होने वाली पीड़ा आदि दैविक दुःख है।
दौर्मन्यस्य -
- मन की इच्छा के पूर्ण ना होने पर मन में उत्पन्न क्षोभ दौर्मनस्य है।
अंगमेजयत्व
शरीर के अंगो का कम्पित होना अंगमेजयत्व है।
श्वास
- वाहृय कुम्भक में कठिनाई अर्थात बिना इच्छा के बाहर की वायु का भीतर प्रवेश हो जाना ही श्वास नामक विघ्न है।
प्रश्वास -
- न चाहने पर अन्दर की श्वास का बाहर निकल जाना अर्थात अन्तः कुम्भक में कठिनाई प्रश्वास नामक विघ्न है।
- ये सभी विघ्न, उपविघ्न साधक की साधना के विघ्न है। इन विघ्नो को दूर करने के लिए तथा साधना के पथ पर आगे बढ़ने के लिए महर्षि पतंजलि ने एक तत्व के अभ्यास पर बल दिया है। जिसका वर्णन इस इकाई के पूर्व में ही किया जा चुका है।
अभ्यास वैराग्य की साधना का फल क्या है
वैराग्य की साधना महर्षि पतंजलि ने उच्च कोटि के साधको के लिए बतायी हैं। अभ्यास वैराग्य के द्वारा मन पर, चित्त पर नियन्त्रण सम्भव है। चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव है। यही स्थिति ही योग है। अभ्यास वैराग्य की साधना की महत्ता का वर्णन करते हुए श्रीमद् भगवद् गीता में इस प्रकार किया गया है -
"असंयतात्मना योगो दुष्प्राय इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शुक्योऽवाप्तुमुपायतः।।"
अर्थात
जिसके वश में मन नहीं है। ऐसे असंयत साधक के द्वारा योग में सफलता पाना कठिन है, असम्भव है। जबकि जिन्होंने इसको वश में कर लिया, वो साधक बड़ी आसानी से योग में सफल हो जाते हैं।
अभ्यास वैराग्य से मन पर, चित्त पर नियन्त्रण आसानी से हो जाता है। मन का नियन्त्रण ही चित्त वृत्ति निरोध है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने मन को नियन्त्रण करने के लिए अभ्यास वैराग्य की साधना बतलाई है। जिसका वर्णन इस प्रकार है
"अशंसय महाबाहो मनो दुर्निगहं चलम् -
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहृयते ।।"
गीता 6 / 25
अर्थात हे कुन्तीपुत्र महाबाहो अर्जुन तुम्हारे इस कथन में कोई संशय नहीं है, कि मन की चंचलता किसी भी तरह से वश में आने वाली नहीं है। परन्तु अभ्यास वैराग्य के द्वारा इसे आसानी से वश में किया जा सकता है।
इस प्रकार प्रिय विद्यार्थियो यह कहा जा सकता है कि अभ्यास वैराग्य द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध सम्भव है। यही चित्त वृत्ति निरोध को महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार परिभाषित किया है -
‘योगश्चित्त वृत्तिनिरोधः।'
पा० यो० सू० 1/2
अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही योग है। महर्षि ने अगले ही सूत्र में यह बताया है
'तदा दृष्टु स्वरूपेवस्थानम् ।'
पा० यो० सू० 1 / 3
अर्थात वृत्तियो के निरोध होने पर आत्मा ( दृष्टा) की अपने स्वरूप में अवस्थिति होती है। यह चित्त वृत्ति निरोध साधना का फल है। किसी भी योग साधक की साधना का लक्ष्य है। जिससे आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती हैं। यही कैवल्य है, यही आत्मा का मोक्ष है, परम् गति है । अभ्यास वैराग्य का फल है।