ध्यान के क्या लाभ हैं ?, ध्यान की उपयोगिता
ध्यान के क्या लाभ हैं ? ध्यान की उपयोगिता
प्रिय विद्यार्थियों ध्यान से अहंकार का नाश होता है। अस्मिता का सुधार होता है। ध्यान से साधक का अहंकार गिरकर केवल हॅू ही शेष रह जाता है, तथा इसका भी लय समाधि में हो जाता है। ध्यान की उपयोगिता को देखते हुए वेदों, पुराणों, उपनिषदों में भी ध्यान की उपयोगिता का वर्णन किया है।
ध्यान के लाभ बताते हुए ऋग्वेद में कहा गया है-
"ते सत्येन मनसा दीध्यानाः स्वेन युक्तासः कतुना वहन्ति ।" (ऋग्वेद 7 / 90 / 5 )
अर्थात
जो सच्चे मन से ध्यान करते हैं, वे सच्चे ज्ञान कर्म से युक्त होते है अर्थात उनके ज्ञान-कर्म और मन में कोई द्वेष नहीं रहता है ।
श्वेताश्वतर उपनिषद के अनुसार -
"ज्ञाता देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्राणिः
तस्या भिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्य केवल आप्तकामः ।।”
अर्थात
परमेश्वर का अभिध्यान चिन्तन तथा जय आदि करने से अविद्या आदि जो भी पंचक्लेश है, उनकी निवृत्ति होती है, तथा समस्त पापों का नाश, जन्म-मृत्यु का अन्त हो इससे ही मोक्ष प्राप्त होता है।
छान्दोग्योपनिषद में ध्यान की महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है
"ध्यानं वाव ....... स यो ध्यान व्रहमोत्युपास्ते।" छान्दो० प07/6/1-2
सनत्कुमार ने ध्यान की महिमा महर्षि नारद को समझाते हुए कहा है-
- ध्यान (आत्मा की एकाग्रता) ही चित्त से भी महान है पृथ्वी अन्तरिक्ष, सौर मण्डल, जल, पर्वत, देवताजन और मनुष्य आदि प्रकृति का सारा विकास अपने रचियता परमेश्वर का मानो ध्यान कर रहे हो। इस प्रकार जो भी मनुष्य इस लोक में मनुष्यों की महत्ता को प्राप्त करते है, वे सभी ध्यान से प्राप्त करते है। उन मनुष्यों की समृद्धि का कारण ध्यान की कला का अंश ही है ध्यान से सामर्थ्य शक्ति का संचय होता है। अतः हे नारद! तू ध्यान को सिद्ध कर जो उपासक ध्यान को महान जानकर भगवान की उपासना करता है। ध्यान में अपने अराध्य (परमात्मा) की अराधना करता है। जहाँ तक ध्यान की गति है वहाँ तक उसका स्वच्छन्द संचार होता है।
ध्यान के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना
- प्रिय विद्यार्थियों, अष्टॉग योग में वर्णित - यम-नियम, आसन-प्राणायाम, प्रत्याहार द्वारा व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त कर, अन्तरंग साधना धारणा व ध्यान में प्रवेश करता है। धारणा चित्त का ठहराव है। जिसमें चित्त की एक स्थान पर स्थिर किया जाता है। जब चित्त उस में स्थिर रह कर निरन्तर उसी में एक लय में चलता रहे वही ध्यान है। जब योग द्वारा अपने अत्युच्च शिखर पर पहुॅचता है, जहाँ ज्ञाता और ज्योति के समान परस्पर विलीन हो जाते है, जिसमें केवल ध्येय की ही प्रतीती रहती है। ध्याता का अपना स्वरूप भी शून्य हो जाता है। उस अवस्था को समाधि कहते है।
- समाधि प्राप्ति के लिए ध्यान द्वारा ही पृष्ठभूमि तैयार हो पाती है। क्योकि ध्यान के चरम उत्कर्ष का नाम है समाधि, जो कि चित्त की स्थिरता की सर्वोत्तम अवस्था है। इसी चित्त स्थैर्य के द्वारा ही समाधि की पृष्ठभूमि तैयार होती है।
अन्तर्ज्ञान की प्राप्ति -
- अन्तर्ज्ञान से तात्पर्य अन्तः प्रेरणा से है। अन्तः प्रेरणा अर्थात किसी कार्य को करने से पूर्व ही सही-गलत का ज्ञान अन्तः प्रेरणा द्वारा तथा भविष्य में होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त कर लेना ध्यान योग के साधक का चित्त परिष्कृत हो जाता है। नियमित ध्यान से, ध्यान प्रगाढ़ होने लगता है व मन की बिखरी हुई शक्ति अपने ईष्ट या ध्येय के प्रति एकाग्र होने लगती है। परिणाम स्वरूप साधक के अन्दर की दमित वासनाए, ईच्छाए, भावनाए चेतन मन पर आकार बाहर निकलने लगती है। धीरे-धीरे साधक का मन परिष्कृत होने लगता है। अतः उसकी पहुॅच सूक्ष्म जगत तक होने लगती है, तथा एक रहस्यमय वाणी द्वारा उसे मार्गदर्शन मिलने लगता है।
अतिन्द्रिय क्षमता की प्राप्ति -
- स्व की महत्वपूर्ण शक्ति है, अतीन्द्रीय क्षमता। जिसका अर्थ है इन्द्रियों की क्षमताओं का अत्यधिक विकास होना या उसकी पहुॅच अन्तर्जगत तक हो जाना। जैसे ध्यान द्वारा, दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूर की वस्तुओं की गंध की क्षमता ही अतीन्द्रिय क्षमता है।
- इस क्षमता का विकास ध्यान द्वारा मन के एकाग्र होने से होता है। एकाग्र मन द्वारा मन समस्त बिखरी हुई शक्तियाँ एक निश्चित दिशा में बहने लगती है। जैसे-जैस मन शान्त एवं एकाग्र होने लगता है, वैसे-वैसे ही साधक को आश्चर्यजनक परिणाम सामने आने लगते है। तथा जैस ही ध्यान में तन्मयता होने लगती वैसे ही मन की शक्ति के प्रगाढ़ होने के कारण अन्तर्मुखी होने लगती है। परिणाम स्वरूप साधक की पहुॅच अन्तर्मन तक होने लगती है।
संयमजन्य विभूतियो का प्राप्ति में सहायक
- योग की उच्चतम अवस्था ध्यान व - समाधि है। महर्षि पतंजलि ने धारणा, ध्यान व समाधि का सम्मिलित अभ्यास संयम बताया है।
- धारणा एक प्रकार की मानसिक प्रक्रिया कही जा सकती है। जिसमें मन की एक विशिष्ट वस्तु या क्षेत्र में सीमित कर के एकाग्र किया जाता है। इसके बाद ध्यान में मानसिक तरंगो में स्थिरता आ जाती है। इसके बाद की स्थिति समाधि की है। वस्तुतः धारणा, ध्यान व समाधि उच्च मानसिक अवस्था प्राप्ति की अवस्थाएँ है, तथा इन्ही की सम्मितिल अवस्था संयम है। जहाँ धारणा, ध्यान व समाधि एक ही वस्तु में स्थिर हो संयम है। जिसका वर्णन -
महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार किया है
"त्रयमेकत्र संयमः ।" पा० यो० सू० 3 / 4
किसी एक ध्येय विषय में तीनो का होना ही संयम है। संयम का परिणाम बताते हुए महर्षि पतंजलि ने निम्न सूत्र में वर्णन किया है-
"तज्जात्प्रज्ञालोकः ।” पाo यो० सू० 3 / 5
अर्थात
संयम को जीत लेने से बुद्धि का आलोक प्राप्त होता है, तथा उसका चित्त की भूमियों में विनियोग करके ही अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
महर्षि पतंजलि ने इन सिद्धियो विभूतियों का वर्णन विभूतिपाद ( 3 / 16, 3 / 55 ) में किया है कि साधक जिस भी वस्तु पर संयम करता है उसे उस वस्तु का बल आदि अनेको सिद्धियाँ (अणिमादि अष्ठ सिद्धियाँ) पातजल योगसूत्र प्राप्त हो जाती है। परन्तु महर्षि पतंजलि कहते है कि यह योग विभूतियॉ योग साधना में बाधक है, तथा वास्तविक रूप में संयम ही व्यवहारिक जीवन में अपनाने योग्य है । संयम से ही मानकीय जीवन की उत्कृष्टता को प्राप्त किया जा सकता है।