भूतजय विभूति, भूतजय विभूति का फल : ,इंन्द्रियजय विभूति, इन्द्रियजय का फल
भूतजय विभूति:
पंचतत्त्वों की पांच अवस्थाऐं होती है :- स्थूल, स्वरूप सूक्ष्म अन्वय और अर्थवत्त्व | इनमें संयम करने पर भूतों पर जय प्राप्त होती है ।
यथा :
स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् भूतजयः ।। (पाoयो0सू० 3 / 44 )
स्थूल अवस्था :- जो दिखायी देती है।
स्वरूप अवस्था :- जो स्थूल में गुणरूप से अदृष्ट हो
सूक्ष्म अवस्था :- तन्मात्राऐं
अन्वय अवस्था :- व्यापक सत्त्व, रजो और तमो गुण की हो
अर्थवत्त्व अवस्था :- फलदायक होती है।
संयम द्वारा उक्त अवस्थाओं को जय कर लेता है तब प्रकृति स्वतः ऐसे साधक के अधीन हो जाती है जैसे गौ अपने आप बच्चे को दूध पिलाया करती है वैसे पंचभूत के जय से प्रकृति वशीभूत हो जाने पर वह प्रकृति माता उस योगी की सेवा में तत्पर हो जाती है।
भूतजय विभूति का फल :
अष्ट विभूतियाँ (सिद्धियॉ) भूतजय विभूति से अणिमादि अष्ट विभूतियों की प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार हैं-
यथा :
ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च ।। ( पा०यो0सू० 3 / 45 )
भूतों के जय से अणिमा आदि आठ सिद्धियों का प्रादुर्भाव और कायसम्मत होती है और उन पंच महाभूत, महाभूतों के धर्मो से रूकावट नहीं होती। अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्प्य, वशित्त्व और ईशित्व ये ही अष्ट सिद्धियाँ है -
1. अणिमा :- शरीर को सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर कर लेना अणिमा विभूति कहलाती है। जैसे लंका प्रवेश के समय हनुमान जी ने सुरसा के मुख में अपने शरीर को सूक्ष्म कर लिया था
2. लघिमा :- शरीर को हल्के से भी हल्का कर लेना लघिमा विभूति है।
3. महिमा - शरीर को जितना चाहे उतना बड़ा कर लेना महिमा विभूति कहलाती है। जैसे हनुमान जी ने सुरसा के समक्ष किया था
4. गरिमा :- शरीर को भारी से भारी कर लेना गरिमा विभूति कहलाती है। जैसे हनुमान जी ने भीमसेन के मार्ग में रूकावट डालते समय किया था
5. प्राप्ति विभूति :- जिस पदार्थ को चाहें उसकी प्राप्ति कर लेना प्राप्ति विभूति कहलाती है।
6. प्राकाम्य विभूति :- बिना रूकावट के भौतिक पदार्थ सम्बन्धी इच्छा की पूर्ति अनायास हो जाना। प्राकाम्य विभूति कहलाती है।
7. वाशित्व :- वाशित्व वह है जिसमें समस्त पंचमहाभूत और सम्पूर्ण भौतिकपदार्थ वश में हो जाते हैं।
8. ईशित्व विभूति :- ईशित्व विभूति उसे कहते हैं जिसमें भूत और भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने की शक्ति प्राप्त हो जाए। ये ही अष्ट सिद्धियाँ हैं।
तद्धर्मानभिघात
- इन पांचों भूतों के कार्य योगी के विरूद्ध रूकावट नही डालतें अर्थात मूर्तिमान कठिन पृथ्वी योगी की शरीरादि क्रिया को नहीं रोकती। शिला में भी प्रवेश कर जाता है। जल का स्नेह धर्म गीला नहीं कर सकता, अग्नि की उष्णता जला नहीं सकती, वहनशील वायु उड़ा नहीं सकता अनावरण आकाश में भी शरीर को ठक लेता है और सिद्ध पुरूषों से भी अदृश्य जो जाता है।
कायसम्पत्ति विभूतियों की प्राप्ति
उक्त विभूतियों के साथ-साथ रूप लावण्य, बल और वज्रतुल्य दृढ़ता, ये सभी कायसम्पत्तियाँ भी प्राप्त हो जाती है।
यथा :- रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायमम्पत् ।। ( पाoयो०सू० 3 / 46 )
रूप मुख की आकृति का सुन्दर और दर्शनिय होना।
लावण्य- सभी अंगों का कान्तिमय हो जाना।
बल - बल की अधिकता हो जाना।
वज्रसंहननत्वानि - शरीर के प्रत्येक अंग का वज्र के सदृश दृढ़ और पुष्ट हो जाना, यही सब कायसम्पत कहलाती है।
इंन्द्रियजय विभूति
ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय और अर्थवत्त्व नामक इन्द्रियों की पाँच वृत्तियों में संमय करने पर विजय प्राप्त हो जाती है।
यथा :- ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः (पाoयो0सू० 3 / 47 )
ग्रहण :- इन्द्रियों की विषयाभिमुखी वृत्ति ग्रहण कहलाती है।
स्वरूप :- सामान्य रूप से इन्द्रियों का प्रकाश का तत्व, जैसे नेत्रों का नेत्रत्त्व आदि स्वरूप कहलाता है।
अस्मिता :- इन्द्रियों का कारण अहंकार, जिसका इन्द्रियाँ विशेष परिणाम हैं।
अन्वय :- सत्त्व, रजस् और तमस् तीनों गुण, जो अपने प्रकाश, क्रिया, स्थिति धर्म से इन्द्रियों में अन्वयी भाव से अनुगत हैं।
अर्थवत्त्व :- इनका प्रयोजन पुरूष को भोग और अपवर्ग दिलाना हैं।
इन्द्रियजय का फल
इन्द्रियजय के अनन्तर मनोजवित्व, विकरणभाव और प्रधानजय विभूतियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।
यथा :- ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च ।। (पा०यो०सू०
मनोजवित्त्व :- मन की गति के समान शरीर की भी उत्तम गति की प्राप्ति को मनोजवित्त्वं कहते हैं।
विकरण :- शरीर के सम्बन्ध का त्याग कर इन्द्रियों की वृत्ति का प्राप्त करना विकरणभाव है।
प्रधानजयत्त्व :- प्रकृति के विकारों के मूल कारण को जय करना ही प्रधानजयत्तव है। इसी से सर्ववशित्त्व प्राप्त होता है। ये विभूतियां ग्रहणविषयक समाधि सिद्ध हो जाने पर स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।
परा विभूति क्या होती है
विभूतियाँ दो प्रकार की हैं, एक परा और दूसरी अपरा । विषय सम्बन्धी सभी प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम विभूतियां अपरा विभूतियां कहलाती है। ये विभूतियां मुमुक्षु योगी के लिए हेय हैं। इनके अतिरिक्त जो स्व स्वरूप अनुभव के उपयोगी विभूतियां है वे योगी के लिए उपादेय परा विभूतियां हैं।
सर्व भावाधिष्ठतृत्त्वं च सर्वज्ञातृत्त्वं विभूति
अन्तःकरण की अत्यन्त निर्मल अवस्था होने पर स्वतः परमात्मा का शुद्ध प्रकाश उसमें प्रकाशित होने लगता है जिससे बुद्धि रूप दृश्य और पुरूष रूप दृष्टा का तात्त्विक भेद स्पष्ट अनुभव होने लगता है। इस स्थिति की प्राप्ति उपरान्त योगी अखिल भावों का स्वामी और सकल विषयों का ज्ञाता बन जाता है इसी के विवेकज्ञान कहते हैं।
यथा :
सत्त्वपुरूषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च ।। (पाoयो0सू० 3 / 49)