पातंजल योग दर्शन का सामान्य परिचय | चतुर्व्यह – हेचतुर्व्यूहवाद हेय, हेयहेतु हान एवं हानोपाय | Chaturvayhavaad Heya heyhetu evam haanopay

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चतुर्व्यूहवाद हेय, हेयहेतु हान एवं हानोपाय

पातंजल योग दर्शन का सामान्य परिचय | चतुर्व्यह – हेचतुर्व्यूहवाद हेय, हेयहेतु हान एवं हानोपाय | Chaturvayhavaad Heya heyhetu evam haanopay


 

पातंजल योग दर्शन का सामान्य परिचय

  • भारतीय ज्ञान परम्परा का मूल वेद हैं । वेदों के ऋषि दिव्यदृष्टि सम्पन्न थे। उन्होंने सृष्टि और लय दोनों के निसर्ग प्रवाह का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने देखा कि इस जगत की तह में एक कारण प्रच्छन्न रूप से विद्यमान हैवह है दुःख । इस दुःख से छुटकारा पाने का एक ही उपाय हैवह है आत्मज्ञान। उदाहरणतः महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपनी सहधर्मिणी मैत्रेयी को पराविद्या का ज्ञान प्रदान किया। इसी पराविद्या का ज्ञान अमरत्व प्रदान कर संसार के समस्त दुःखों से छुटकारा प्रदान करता है। छोटे से छोटे कीट से लेकर बड़े से बड़े सम्राट तक प्रतिक्षण तीनों प्रकार के आध्यात्मिकआधिदैविक और आधिभौतिक दुःखों में से किसी न किसी दुःख की निवृत्ति का प्रयास करते रहते हैंलेकिन फिर भी दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता। मृगतृष्णा सदृश जिन विषयों के पीछे मनुष्य सुख समझकर दौड़ता हैंप्राप्त होने पर वे दुःख ही सिद्ध होते है।

 

  • योगसूत्र में भी दुःख का प्रमुख कारण क्लेश ही बताया जिसमें अविद्या को समस्त दुःखों का उत्पत्ति स्थान भी बताया है। 


यथा - 

"अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ।। ( पाoयोoसू० 2 / 4) 


चतुर्व्यह – हेय ( दुःख), हेयहेतु ( दुःख का कारण), हान ( दुःख का निरोध), हानोपाय (दुःख - निरोध के उपाय) का विवेचन

अतः तत्त्वदर्शी और दर्शन के विषयों की तरह महर्षि पातंजल ने साधन पाद में चतुर्व्यह – हेय ( दुःख)हेयहेतु ( दुःख का कारण)हान ( दुःख का निरोध)हानोपाय (दुःख - निरोध के उपाय) का विवेचन किया हैजिसका स्वरूप निम्नानुसार है।

 

हेय

 

हेय का शाब्दिक अर्थ है त्यागने योग्य त्यागने योग्य है जीवन की प्रतिकूल परिस्थियाँ। ये प्रतिकूल परिस्थितियॉ ही दुःख है। 

यथा :

हेयं दुःखमनागतम् ।। (पाoयो0सू० 2 / 16) 


अर्थात आने वाला दुःख ही त्यागने योग्य है। क्योंकि भूतकाल का दुःख भोग देकर व्यतीत हो गयाइसलिए त्यागने योग्य नहीं है। वर्तमान दुःख इस क्षण में भोगा जा रहा हैदूसरे अर्थात आने वाले क्षण में स्वयं समाप्त हो जाएगा। इस कारण यह भी त्यागने योग्य नहीं है। इसलिए आने वाला दुःख ही त्यागने योग्य है। क्योंकि आने वाली विपत्ति को देखकर उससे बचा जा सकता है। विवेकीजन इसी आने वाले दुःख को हटाने या दूर करने का प्रयास करते हैं। मनुष्य के जीवन में दुःख ही हेय है। दुःख संसार से उत्पन्न होता है इसीलिए दुःख और संसार पर्याय माने जाते हैं। यहा विचारणीय है कि कौन सा दुःख हे है- अतीतवर्तमान या अनागत अनागत ( आनेवाला) दुःख ही त्याज्य है क्योंकि अतीत (भूतकाल) में जो दुःख भोगा जा चुका है वह छोड़ने योग्य है ही नहीं। कारण वह दुःख अब भोक्ता के समीप है ही नहीं और जो दुःख वर्तमान में भोगा जा रहा है वह आगामी समय में समाप्त हो जाएगा इसीलिए उसका भी त्याग नहीं हो सकता। अतः जो दुःख अभी प्राप्तनही हुआ है उसे दूर किया जा सकता हैउससे बचा जा सकता है। इसी को अनागत दुःख के नाम से योगसूत्र में बताया गया है। और इसी को त्यागने योग्य कहा है। 

बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्यों प्रथम आर्य सत्य के रूप में दुःखम्

 

इस संसार में में सभी का जीवन दुःख से परिपूर्ण है। अतः दुःख प्रथम आर्य सत्य है और बताया कि :- इस संसार जन्मवृद्धावस्थामृत्युशोकपरिवेदनादौर्मनस्यउपायासअप्रिय वस्तु के साथ समागमप्रिय के साथ वियोग इच्छित वस्तु अप्राप्ति आदि सभी दुःख हैं। यह कह सकते हैं कि राग के द्वारा उत्पन्न पांचों स्कन्ध ( रूपवेदनासंज्ञासंस्कार और विज्ञान) भी दुःख है। धम्मपद गाथा 146 में बताया है कि-

 

को न हासो निच्चं प्रज्जलिते सति । 

(को न हासः क आनन्दो नित्यं प्रज्वलिते सति ।)

 

अर्थात – जब यह संसार नित्य जलते हुए घर के समान हैतब यहा हॅसी क्या हो सकती है और आनन्द क्या मनाया जा सकता है।

 

दुःख एक वस्तु हैअभाव का नाम दुःख नहीं है। यदि अभाव का नाम दुःख होता तो उसके त्याग का विधान करना व्यर्थ हो जाता है। दुःख एक गुण हो जो प्राकृतिक पदार्थों में पाया जाता है। जब प्राकृतिक पदार्थो से जीवात्मा का संबन्ध होता है तब दुःख की प्राप्ति होती है जो अनागत दुःख और उसके कारण को जान जाता हैवही दुःख से निवृति पा सकता है।

 

भगवान बुद्ध ने जनसाधारण की स्थायी सुख शांति के लिए जो सहज और सरल महत्वपूर्ण उपाय खोजा उसकी प्रेरणा उन्हें दुःख से ही मिली थी । गृह त्याग उन्होंने जरामरणशोक और रोग के अत्यन्त दयनीय दृश्यों को देखकर ही किया था। इस प्रकार दुःख की मूल स्थिति को जानकर उसे दूर करने का स्थायी उपाय अवश्य करना चाहिए। तृष्णा मूलक संसार में तृष्णा ही दुःख का कारण है। इसी का समुच्छेद प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। इस हेय दुःख का कारण "हेयहेतु" क्या हैहेय हेतु के स्वरूप का विवेचन निम्नानुसार है :

 

हेयहेतु  ("हेयहेतु" क्या है?)

 

हेयहेतु अर्थात दुःख का कारण क्या हैमहर्षि पतंजलि ने बताया कि द्रष्टा और दृश्य का संयोग ही 'हेय हेतुहै । द्रष्टा चेतन पुरूष है जो चित्त का स्वामी होकर उसको देखने वाला है। दृश्य चित्त है जो स्व बनकर पुरूष को गुणों के परिणाम स्वरूप संसार को दिखाता है। चित्त द्वारा देखे जाने के कारण यह सारा गुणों का परिणाम विषमशरीर और इन्द्रिय आदि भी सब दृश्य ही है।

 

पुरूष और चित्त का जो आसक्ति सहित अविवेकपूर्ण भोग्य-भोक्ता भाव का सम्बन्ध है उसके लिए संयोग ही दुःख का हेतु अर्थात कारण है। पुरुष और चित्त के संयोग का कारण है अविद्या । यथा :

 

तस्य हेतुरविद्या ।। (पाoयोoसू० 2/24)

 

महर्षि व्यास ने भी अविद्या को ही समस्त दुःखों का कारण बताया है। क्योंकि अविद्या आस्मिता को अर्थात द्रष्टा और दृश्य के संयोग को जन्म देती है। यही संयोग रागद्वेष और अभिनिवेश नामक क्लेशों को जन्म देता है। ये क्लेश कर्माशय को कर्माशय जातिआयुभोग रूप संसार को और संसार दुःख को जन्म देता है। अतः ये पंचक्लेश दुःख के कारण है।

 

द्रष्टा-दृश्य संयोग का लक्षण :- 

अविद्या ही अस्मिता को जन्म देती है। आस्मिता का लक्षण है द्रष्टा और दृश्य में एकत्व की प्रतीति होना। इसे संयोग कहा गया है। यथा:

 

स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ।। ( पाoयोoसू० 2 / 23) 

यह संयोग जो वास्तव में अस्मिता है उसने चित्तरूप स्व और पुरूषरूप स्वामी को जड़-चेतन के सम्मिश्रण से एक नए जीवभाव को पैदा किया है। अतः इस संयोग के रहते हुए ही इसी संयोग की निवृत्ति के लिए स्व और स्वामी के स्वरूप की उपलब्धि की जाती है।

 

दृश्य का स्वरूप

 

महर्षि व्यास ने बुद्धि के विषयभूत प्रधान से लेकर शब्दादि विषय पर्यन्त जितने भी पदार्थ हैंवे सब दृश्य हैं। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में दृश्य का स्वरूप चित्रित करते हुए बताया कि

यथा : 

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ।। (पाoयो0सू० 2 / 18) 

अर्थात 

प्रकाशक्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव हैभूत और इन्द्रिय जिसका स्वरूप हैभोग और अपवर्ग जिसका प्रयोजन हैउसे दृश्य कहते हैं। यह दृश्य (प्रकृति) सत्त्वरज और तमोगुण से युक्त है। वह महत्तत्व आदि के द्वारा आकाश आदि भूत एवं श्रोत्र आदि इन्द्रिय रूप से परिणत है और पुरुष के भोग तथा अपवर्ग (मोक्ष) के लिए है।

 

द्रष्टा का स्वरूप

 

द्रष्टा का स्वरूप केवल चेतन मात्र है। यह ऐसा आत्मतत्त्व है जो स्वरूप से सर्वथा शुद्धनिर्विकार होते हुए भी बुद्धि (चित्त) के सम्बन्ध से बुद्धि के अनुरूप देखने वाला होने के कारण द्रष्टा कहलाता है। 

यथा : 

द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।। (पाoयो0सू० 2 /20)

 

द्रष्टा शुद्ध होते हुए भी साधन भूत बुद्धि के सहयोग से ही ज्ञान कर पाता है। यद्यपि चित्त और पुरुष के अतिशय सान्निध्य को नकारा नहीं जा सकता। तथापि यही सान्निध्य पुरूष के भोग और अपवर्ग को सम्पन्न करने में पूर्ण सहायक भी होता है।

 

दृश्य का प्रयोजन

 

दृश्य का प्रयोजन पुरूष के भोग और अपवर्ग के लिए है क्योंकि दृश्य (प्रकृति) अपने किसी भी प्रयोजन की अपेक्षा न करके केवल पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिए ही प्रवृत्त होता है। दृश्य का सारा स्वरूप ही पुरूष के लिए है। 

यथा : तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा।। (पा०यो०सू० 2/21)

 

इस प्रकार यह द्रश्य पुरुष के प्रयोजनार्थ है न कि अपने स्वार्थ के लिए। दृश्य का स्वरूप पुरूष के कैवल्य प्राप्ति तक रहता है।

 

अतः अविद्या के कारण द्रष्टा और दृश्य का संयोग होता है। यही संयोग बंधन का कारण है। यह सम्बन्ध अनादि है जिसका प्रयोजन द्रष्टा को भोग एवं अपवर्ग करना है। दृश्य (प्रकृति) का समस्त व्यापार है ही पुरूष के लिए। वह द्रष्टा को भोग भी कराता है और मोक्ष भी। इस प्रकार अविद्या जनित प्रकृति और पुरूष का संयोग ही हेयहेतु है। गौतम बुद्ध ने भी यही कहा कि संसार में अकेला दुःख ही नहीं अपितु उसका कारण भी है। उन्होने दुःख का कारण तृष्णा को बताया है। इस तृष्णा के कारण ही मनुष्य आसक्ति और राग से युक्त होता है। जन्म और मरण को चलाने वाली तृष्णा ही दुःख का मूल कारण है। जिस प्रकार चिकित्सा शास्त्र में रोग एवं रोग के हेतु को जानने के पश्चात् आरोग्य पर विचार किया जाता है। उसी प्रकार महर्षि पतंजलि ने हेय एवं हेयहेतु के पश्चात् तृतीय व्यूह हान के स्वरूप की व्याख्या कीजो निम्नानुसार है-

 

हान का स्वरूप

 

अविद्या के कारण द्रष्टा और दृश्य का संयोग है और जब अविद्या का अभाव होता है तो इस अविद्या जनित संयोग का अभाव स्वतः हो जाता है। इस संयोग का अभाव होना ही दुःख के विनाश का कारण हैइसी को हान कहते हैं। 

यथा : तद्भावात्संयोगाभावो हानं तदृशेः कैवल्यम् ।। ( पाoयोoसू० 2 / 25 )

 

अर्थात् 

अविद्या के अभाव से संयोग का अभाव ही हान है। यही चिति शक्ति का कैवल्य है। अविद्या अर्थात् अनित्य को नित्यअपवित्र को पवित्रदुःख को सुख और अनात्म को आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या के विरोधी यथार्थ ज्ञान से अविद्या का उन्मूलन होता है। इस उन्मूलन पश्चात् अभाव होने पर चित्त और पुरूष के संयोग का अभाव होना ही बन्धन का आत्यन्तिक विनाश है और यही अवस्था "हान" कहलाती है। अतः दुःख के कारण की निवृत्ति होने पर ही दुःख की निवृत्ति का नाम ही हान है। इसके उपारान्त पुरूष स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।

 

भगवान बुद्ध ने भी अविद्या को ही दुःखों का मूल कारण बताया है। उन्होंने बताया अविद्या के नष्ट होने पर तृष्णा का अन्त स्वाभाविक हैतृष्णा के नष्ट होने पर पॉच उपादान स्कन्धों (रूपवेदनासंज्ञासंस्कार और विज्ञान) का भी अन्त जाएगा। इसी अवस्था को दुःख निरोध कहते है। दुःख निरोध ही निर्वाण है। त्रचतुर्थ व्यूह हैहानोपाय अर्थात हान की प्राप्ति का उपाय ।

 

 हानोपाय

 

हान का उपाय है- "शुद्ध विवेकख्याति" अर्थात शुद्धनिर्मलसंशय विपर्यय रहित विवेकज्ञान हान का उपाय है। 

यथा :- विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ।। ( पाoयोoसू० 2 / 26)

 

द्रष्टा और दृश्य का भेद विवेक कहलाता है और ख्याति का अर्थ होता है ज्ञान अतः चित्त पुरूष इन दोनों की भिन्नता का ज्ञान हैविवेकख्याति और वह मिथ्याज्ञान जिससे निवृत्त हो गया हैऐसी विवेकख्याति अविपल्व अर्थात शुद्ध और निर्मल कहलाती है। जब मिथ्याज्ञान दग्धबीज सदृश होने पर बन्धन की अनुत्पत्ति के योग्य होता है। अर्थात बन्धन में डालने के योग्य नहीं रह जाता तब रजोगुण निमित्तक क्लेश के दूर होने पर और सत्त्व के परम प्रकाश में परमवशीकार नामक वैराग्य में वर्तमान हुए योगी के विवेकज्ञान का प्रवाह शुद्ध होता है। यही निर्मल विवेकख्याति हान का उपाय है। इस अवस्था में आने पर मिथ्याज्ञान दग्ध बीज के समान हो जाता है। पुनः अंकुरण के योग्य नहीं होता। यही हान का उपाय है और मोक्ष का मार्ग भी है।

 

विवेकख्याति के उदय होने पर और अविद्या के नष्ट होने पर कर्त्तृत्व अहंकार से रहित होने पर राजसिक और तामसिक मल भी शून्य हो जाते है। तब भोक्तृत्व के सत्तवगुण के प्रकाश में चित्त में चेतन का जो प्रतिबिम्ब पड़ रहा हैऔर जिसके कारण चित्त में चेतनता प्रतीत हो रही हैचित्त से भिन्न उसका साक्षात्कार होता है। यद्यपि यह साक्षात्कार चित्त के ही द्वारा होता है इसलिए चित्त की ही एक सात्तिवक वृत्ति है । तथापि इसके निरन्तर अभ्यास से विवेकज्ञान का प्रवाह निर्मल और शुद्ध हो जाता हैक्लेशों का सर्वथा नाश होता है और मिथ्याज्ञान दग्ध बीज के तुल्य बन्धन की उत्पत्ति करने में असहाय हो जाता है। यही अविप्लवअडोलअविच्छेद निर्मल विवेकख्याति हान का उपाय है।

 

जिस योगी को अविप्लवा विवेकख्याति की प्राप्ति हो जाती है। उसे सात प्रकार की परम प्रज्ञा उपलब्ध होती है। यथा :

 

तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ।। (पाoयो0सू० 2 / 27 ) 

विवेकख्याति द्वारा चित्त के अशुद्धि रूप आवरण नष्ट हो जाने पर एवं संसारिक ज्ञान के उत्पन्न न होने पर सात प्रकार उत्कर्ष अवस्था वाली प्रज्ञा उत्पन्न होती है। इसमें प्रथम चार प्रकार की प्रज्ञा कार्य से विमुक्ति करने वाली हैं इसलिए कार्य विमुक्ति प्रज्ञा कहलाती हैं। अन्तिम तीन चित्त से विमुक्ति प्रदान करने वाली हैं जिन्हें चित्तविमुक्ति प्रज्ञा कहते हैं जिन्हे निम्नानुसार समझा जा सकता हैं:

 

कार्य - विमुक्ति प्रज्ञा :

 

ज्ञेयशून्य अवस्था :- 

जो जानने योग्य या जान लिया अर्थात दृश्य गुणमय हैपरिणामी है जानने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं है।

 

हेयशून्य अवस्था :- 

द्रष्टा और दृश्य के संयोग का अभाव जो हेय का हेतु है उसका अभाव कर दिया अन्य कुछ अभाव करने योग्य शेष नहीं है। 


प्राप्तप्राप्त अवस्था :- 

जो कुछ प्राप्त करना थाप्राप्त कर लिया अर्थात समाधि द्वारा कैवल्य अवस्था की प्राप्ति हो चुकी हैअब कुछ प्राप्त करना शेष नहीं है। 

चिकीर्शाशून्य अवस्था :-

हान का उपाय निर्मल विवेक ज्ञान है जिसे सिद्ध कर लिया है और कुछ करना शेष नहीं है।

 

चित्त–विमुक्तिप्रज्ञा :

 

चित्त की कृतार्थता 

चित्त ने अपना अधिकार "भोग और अपवर्ग देना पूरा करा दिया अन्य कोई प्रयोजन शेष नहीं है।

 

गुणलीनता

 कोई कार्य शेष न होने के कारण चित्त अपने कारणरूप गुणों में लीन हो रहा है।

 

आत्मस्थिति :- 

  • पुरूष सर्वथा गुणों से अतीत हो कर अपने स्वरूप में अचल भाव से स्थित हो गया।

 

  • इस सात प्रकार की प्रान्तभूमि प्रज्ञा को अनुभव करने वाला (कुशल) जीवनमुक्त कहा जाता है और चित्त के अपने कारण में लीन होने पर (कुशल) विदेहमुक्त कहलाता है। इसीलिए विदेहमुक्त अवस्था को जीवनमुक्त दशा में प्रत्यक्ष कर लेते हैं। इस विवेकख्याति का उदय एवं चित्त की शुद्धि के लिए महर्षि पतंजलि ने योगांगों का अनुष्ठान बतलाया है। भगवान बुद्ध ने हानोपाय की जगह चतुर्थ आर्य सत्य दुःखनिरोधगामिनीप्रतिपत को सीधा अष्टांग योग बताया हैंजिसे अष्टांगिक मार्ग नाम दिया गया है।

 

  • अतः योगांगों के निरन्तर अनुष्ठान उपरान्त शुद्ध विवेकख्याति का उदय होता है और यही हानोपाय है। इसीलिए योग साध्य भी है और साधन भी।

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