चित्त प्रसाधन का अर्थ शब्द की व्युत्पति, चित्त प्रसाधन के उपाय
चित्त प्रसाधन क्या होता है ?
- प्रिय विद्यार्थियो जैसा कि सर्वविदित ही है कि जो क्लेश, कर्म (कर्मों के बन्धन) से परे है, तथा ऐश्वर्यमान हैं वही ईश्वर है। जिसकी प्रजा हो तथा राजोचित वैभव हो वही राजा है। इसी प्रकार जिसके अन्दर दिव्य आलौकिक शक्तियो का पुंज हो, जो निरन्तर साधना के द्वारा योग के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयासरत हो वही योगी है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योगी का सर्व चित्त वृत्ति निरोध आवश्यक है। यह तभी सम्भव हो पाता है, जब वह निरन्तर साधना करें। तभी चित्त की वृत्तियों का निरोध ( अभाव ) सम्भव है। महर्षि ने इसे ही समाधि की अवस्था अर्थात योग कहा है।
- परन्तु प्रिय विद्यार्थियों किसी भी शुभ कार्य को करने में अनेको प्रकार के विघ्न बाधाएँ आती है। इसी तरह से योग साधना करने पर भी अनेको विघ्न बाधाएँ आती है। योग का पथ विभिन्न कंटको से घिरा है। साधक इस साधना में कई बार असफल होने पर भी फिर से उठ कर श्रद्धा पूर्वक साधना पथ पर अनवरत चलता रहता है। क्योकि इससे पूर्व महर्षि पतंजलि ने अभ्यास का वर्णन करते हुए कहा है कि साधना के लिए अभ्यास दीर्घ काल तक, निरन्तर व सेवा पूर्वक तथा श्रद्धा पूर्वक होना चाहिए। श्रद्धा व सेवा का उपदेश महर्षि पूर्व (1 / 14 ) में ही दे चुके है। एक बार बाधाओ द्वारा असफल होने पर वह क्षण याद करना चाहिए जब हमारे अन्तस में योग मार्ग के लिए श्रद्धा का प्रथम अंकुर प्रस्फुटन हुआ था। वह क्षण याद करते ही पुनः दोगुने उत्साह के साथ साधक उस मार्ग पर चल पड़ता है, तथा अपने अन्तिम लक्ष्य तक पहुॅच कर रहता है।
- प्रिय विद्यार्थियो जहा योग में बाधा पहुँचाने वाले विभिन्न अवरोध है, वही योग साधना में सहायक बनने वाले साधक तत्व है, जो हमारी योग साधना को लक्ष्य तक पहुॅचाने में सहायक होते है। ऐसे उपाय जो हमारे चित्त के विक्षेपों को दूर करने में सहायक होते है उन विक्षेपो को बाधक तत्व कहा जाता है। इसी प्रकार जो हमारी साधना में सहायक होते है उन्हें साधक तत्व कहते है। ये साधक तत्व हमारे चित्त को निर्मलता प्रदान करते है। चित्त को स्वच्छ करते है, चित्त को प्रसन्न करते है। इसलिए इन्हे चित्त प्रसादन कहा जाता है।
चित्त प्रसादन शब्द की व्युत्पति
- चित्त प्रसादन शब्द की व्युत्पति दो शब्दो से हुई है, चित्त व प्रसादन चित्त का अर्थ चेतना से है, तथा प्रसादन का तात्पर्य स्वच्छता (सफाई) से है। इस प्रकार चित्त प्रसादन का अर्थ चित्त यानि चेतना को प्रसादन । अर्थात अपनी अन्तर चेतना की सफाई से है। जिस चित्त में हमारी जन्म जमान्तरो के संस्कार संचित रहते हैं, तथा चित्त के प्रसादन से हमारे योग का अन्तिम लक्ष्य का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः महर्षि ने उन चित्त विक्षेपो को एक तत्व के अभ्यास से दूर किया जा सकता है। चित्त विक्षेपो के प्रतिषेधार्थ एक तत्व का अभ्यास किया जाना चाहिए, जिनसे विघ्नो व उपविघ्नो का नाश सम्भव है। परन्तु प्रिय विद्यार्थियो विघ्नो, बाधाओं, अन्तरायो का अभाव होने के बाद चित्त को निर्मल स्वच्छ बनाये रखना आवश्यक है। क्योकि जब चित्त निर्मल होगा तभी साधना के उपयुक्त होगा। निर्मल चित्त में साधना की जा सकती है। अतः चित्त को स्वच्छ और निर्मल बनाये रखने के लिए महर्षि पतंजलि ने कुछ उपायो का वर्णन किया है। जिन्हे चित्त प्रसादन के उपाय की संज्ञा दी गयी है।
चित्त प्रसाधन के उपाय -
- प्रिय विद्यार्थियो हमारा चित्त सत्व, रज, तम गुणो से गठित है। इस कारण इसमें तीनो गुण विद्यमान रहते है। चित्त में जो सत्व गुण है, वही विद्या है, तथा जो तमोगुण है, वह अविद्या है। इन गुणो के ही चित्त की वृत्तियाँ बनती है। ये चित्त वृत्तियाँ मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती रहती है। हमारे चित्त में जन्म जन्मो के संस्कार अंकित रहते है। जिस कारण उन संस्कारो के कारण ही भोगो की ओर मनुष्य सदा आकर्षित रहता है। इनका प्रमुख कारण अहंकार कहा जा सकता है। मनुष्य इस संसार में भ्रम में रहता है। भ्रमित रहकर अहंकार वश वह इस जगत में व्यवहार करता है, तथा राग, द्वेष, लोभ, मोह में वशीभूत रहता है। अतः साधक को चाहिए कि वह चित्त को निर्मल करने के लिए विद्यादि गुणों को विकसित करे, सकारात्मक (पोजिटिव) चिन्तन रखें, तथा अविद्यादि दोषो को दूर करे।
प्रिय पाठको अब आपके मन में प्रश्न उठ रहे होगे कि अविद्यादि गुण कौन से है, अविद्यादि दोष कौन से है? प्रिय विद्यार्थियो मित्रता की भावना, दया, हर्ष, करूणा आदि भाव विद्या के गुण है। ज्ञान के परिचायक हैं, तथा कोध, हिंसा, राग, द्वेष, घृणा, निन्दा आदि अविद्या (अज्ञान) के दोष है। विद्यादि गुणों को अपनाकर मनुष्य का चित्त शान्त, प्रसन्न तथा निर्मल होता है। अविद्यादि दोषो में जैसे जो मनुष्य किसी सुखी व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है, निन्दा करता है, वह मनुष्य स्वयं ही दुखी रहता है। जो निन्दा व आलोचना करता है वे सभी मानसिक विकृति के लक्षण है। क्योकि घृणा, द्वेष, ईर्ष्या आदि भावो से भरा चित्त उसी तरह का हो जाता है, औरो की निन्दा करते करते वह अपने अन्दर सद्गुण नही विकसित नही कर पाता है। जो दूसरो दोष देखता है, वही दोष उसके अन्दर आने लगते है। क्योकि जैसा सोचते है, एक दिन वैसे ही हो जाते है। इसलिए महर्षि पतंजलि चित्त की निर्मलता के लिए सकारात्मक विचारो को अपनाने की बात कहते है। जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में समाधिपाद में सूत्र नम्बर 33 से 39 तक इस प्रकार से किया है.
'मैत्रीकरूणामुदितोपेक्षाणांसुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनात्श्चितप्रसादनम् ।' 1 / 33
- अर्थात सुखी व्यक्ति से मित्रता, दुखियो पर दया, पुण्यात्माओ से प्रसन्नता की भावना तथा पापियो से उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न होता है। भावार्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति सुखी है तो उसके सुख में प्रसन्न होकर उसके प्रति मित्रता का भाव रखना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने दुःखी व्यक्ति के दुःख से दुःखी होकर उसके प्रति करूणा का भाव रखना चाहिए। पुण्यात्मा (अच्छे कार्य करने वाले) के प्रति प्रसन्नता का भाव रखना चाहिए तथा पापात्मा मनुष्य के लिए उपेक्षा का भाव रखना चाहिए। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है।
मैत्री की भावना सुखी व्यक्ति से -
- महर्षि पतंजलि ने इस सूत्र में व्यवहार परिष्कार की विधि बतायी है कि किस प्रकार व्यवहार परिष्कार से चित्त का परिष्कार होता है। महर्षि के अनुसार यदि व्यवहार को सुधार लिया जाए तो चित्त का परिष्कार सम्भव है व्यवहार परिष्कार के इस सूत्र के चार आयाम है।
- पहला आयाम मैत्री है। महर्षि के अनुसार मैत्री सुखी (आनन्दित) व्यक्ति से करनी चाहिए। सुखी व्यक्ति से मित्रता करके सुखी जीवन से सुखी रहने की उत्कृष्ट जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उससे प्रेरणा ले उत्कृष्ट जीवन बनाया जा सकता है। सुखी व्यक्ति से मित्रता कर जीवन की सही दिशा दी जा सकती है। अतः महर्षि का उद्देश्य सुखी व्यक्ति से मित्रता के द्वारा जीवन पथ को सही मार्गदर्शन देने से है। योग व्यास भाष्य के अनुसार 'तत्र सर्वप्राणिषु - सुखसंभोगापन्नेषु मैत्रीं भावयेत् ।' अर्थात् सुख सम्पन्न और भोग सम्पन्न सभी प्राणियों के प्रति मित्रता की भावना करनी चाहिए। ऐसा करने से उपासक की आत्मा में ज्ञान का प्रकाश होता है, मन स्थिर होता हैं।
- दूसरा आयाम है, करूणा योग व्यास भाष्य के अनुसार 'दुःखितेषु करूणाम्।' अर्थात दुःखी प्राणियों के प्रति दया की भावना करें। महर्षि पतंजलि के अनुसार दुखी व्यक्ति से मित्रता ना कर उसके प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए। क्योकि दुःखी व्यक्ति से मित्रता करने से हमारा चित्त भी दुःखी होगा। उसके प्रति करूणा का भाव रख कर उसके प्रति हृदय से सहानुभूति रखकर उसके दुःख को दूर करने के उपाय करने चाहिए व उन्हें सन्मार्ग बताना चाहिए, जिससे चित्त शान्त व निर्मल बनता है।
मुदिता की भावना पुण्यात्मा से -
- महर्षि पतंजलि के सूत्र का तीसरा आयाम है मुदिता की भावना पुण्यात्मा व सफल व्यक्तियों के प्रति प्रायः देखा जाता कि सफल व पुण्यात्मा व्यक्ति केवल ईर्ष्या के पात्र बनते है। बाहरी रूप से सभी उनकी प्रशंसा करते रहते है। परन्तु परोक्ष रूप से उन्हें नीचा दिखाने का उपाय सोचते है, या उनके प्रति ईर्ष्या करते है। महर्षि कहते है कि किसी की सफलता को देखकर हमे उससे प्रेरणा लेनी चाहिए, प्रसन्न होना चाहिए। उनके पुण्य कर्मो से प्ररित हो, सफल होने का मूल मन्त्र सिखना चाहिए। क्योकि पुण्य कर्मों के द्वारा ही मनुष्य सफलता प्राप्त करता है। योग व्यास भाष्य के अनुसार पुण्यात्मकेषु मुदिताम्' अर्थात् पुण्यात्माओ के साथ हर्ष की भावना रखनी चाहिए। किसी भी पुण्यात्मा महात्मा के पुण्य कर्म की ओर दृष्टि डालकर उससे प्रेरणा लेनी चाहिए। इसलिए महात्मा पुण्यात्मा (अच्छे कार्य करने वाले) की सफलता के पीछे उसके द्वारा किये गये पुण्य कार्यो से हमे प्रसन्न होकर उसकी प्रशंसा करके उसे आगे बड़ाने का प्रयास करना चाहिए।
पापी व्यक्ति से उपेक्षा का भाव -
महर्षि पतंजलि के सूत्र का चौथा आयाम, पापी व्यक्ति से उपेक्षा का भाव रखना चाहिए। योग व्यास भाष्य के अनुसार अपुण्यशीलेषूपेक्षाम् एवमस्य भावयतः शुक्लो धर्म उपजायते।' अर्थात् पापियो के साथ उपेक्षा अर्थात न उनके साथ प्रीति रखना ना ही वैर का भाव । इस प्रकार के भाव रखने से योगी की आत्मा में सत्य का ज्ञान का प्रकाश होता है, और उसका मन स्थिर हो जाता है। स्थिर व निर्मल मन ही साधना में समर्थ्य होता है। अन्तः में प्रिय विद्यार्थियो जैसा कि योग व्यास भाष्य में कहा गया है
"(चित्तप्रसादनम्) ततश्च चित्तं प्रसीदती ।
प्रसन्नमेकाग्रं स्थितिपदं लभते ।।
- अर्थात् मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा इन चारो आयामों का पालन करने से योगी (साधक) को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। चित्त शान्त होता है, निर्मल होता है तथा निर्मल चित्त ही साधना में समर्थ है। प्रिय विद्यार्थियों महर्षि ने इस सूत्र में व्यवहार द्वारा चित्त परिष्कार कैसे किया जा सकता है। इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार एक साधारण मनुष्य भी इन चार आयामो को अपने जीवन में अपना कर कुशलता से मुक्त होकर चित्त का परिष्कार कर सकता है। यही इस सूत्र में महर्षि ने योगियों का साधको का व्यवहार कैसा होना चाहिए, भी दर्शाया है। योगी को इस संसार के सुख को देखकर, सुखी मनुष्यो को देखकर ईर्ष्या का भाव नही रखना चाहिए। उनके प्रति मित्रता का भाव रखना चाहिए। दुःखियो से घृणा ना करके करूणा, दया का भाव रखें। उसके प्रति संवेदना प्रकट कर सहानुभूति रखें व उसके दुःख दूर करने का उपाय बताने का प्रयास करें जिससे मन शान्त होता है। तथा पुण्यात्मा के प्रति हर्ष की भावना रखे तथा पापात्मा के प्रति उपेक्षा भाव सदा रखना चाहिए। उन्हें सन्मार्ग बताएं परन्तु यह ध्यान भी रखें कि वे उनकी साधना में बाधक न बन जाए। इस प्रकार का व्यवहार एक योगी का होना चाहिए। एक योगी इस प्रकार का व्यवहार कर अपने चित्त को स्थिर व निर्मल रख कर साधना पथ पर अनवरत चल सकता है। चित्त को प्रसन्न रख कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
2. महर्षि पतंजलि ने चित्त प्रसादन का दूसरा उपाय बताते हुए कहा है-
'प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ।'
- अर्थात् प्राण वायु को बार- बार बाहर निकाले और रोकने के अभ्यास से भी चित्त निर्मल होता है। महर्षि पतंजलि ने इससे पूर्व के सूत्र में व्यवहार द्वारा चित्त को निर्मल करने के उपाय बताते है । प्रिय विद्यार्थियो अगला उपाय प्राणों द्वारा चित्त को वश में करने का है। महर्षि के अनुसार भीतर के प्राण वायु को बाहर निकाल के जितना हो सके सुखपूर्वक बाहर ही उसे रोक दें, पुनः धीरे धीरे श्वास को भीतर लें तथा पुनः फिर वही करें इस प्रकार बार- बार अभ्यास किये जाने पर प्राण साधक के वश में हो जाते है, तथा प्राण को वश में करने से मन स्थिर हो जाता है। मन के स्थिर होने पर आत्मा भी स्थिर होती है। आत्मा, मन और प्राण इन तीनों के स्थिर होने पर उस अर्न्तयामी व्यापक परमेश्वर का साक्षात्कार होने लगता है।
प्रिय विद्यार्थियो महर्षि पतंजलि ने प्रथम उपाय व्यवहार शुद्धि द्वारा चित्त व द्वितीय उन्होने प्राणों को वश में करने के लिए प्राणायाम बताया है। क्योकि यदि प्राणों को वश में नही किया गया तो चंचल मन साधना नही कर सकता। जैसे हठप्रदीपिका में कहा गया है- चले वाते चलं चित्तं निश्चलं भवेत् ।' अर्थात प्राण के चंचल होने से चित्त भी चंचल होता है और प्राण के निश्चल होने पर निश्चल हो जाता है। इसी तरह मनुस्मृति में भी कहा गया है-
"दहयनते ध्यायमानानां धातूनां च यथा मलाः
तयेन्द्रियाणां दहयन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ।।'
अर्थात् जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्ण आदि धातुओ के मल नष्ट हो जाते है, शुद्ध धातु प्राप्त हो जाती है। उसी तरह प्राणायाम रूपी अग्नि में शरीर को तपाने से मन आदि इन्द्रियो के दोष दूर हो जाते है। अशुद्धियो का क्षय हो जाता है। चित्त निर्मल हो जाता है।
3. महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित तीसरा उपाय है -
विषयवती वा प्रवृत्तिरूत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी । पा० यो० सू० 1 / 35
- अर्थात (विषयवती) नासिकाग्र आदि स्थानों में चित्त को स्थिर करने से उत्पन्न दिव्यगन्धादि विषयो वाली प्रवृत्ति मन की स्थिति को बाधने वाली होती है। महर्षि पतंजलि कहते है कि नासिका के अग्र भाग पर धारणा (चित्त को स्थिर करना) करने से योग साधक को दिव्य गन्ध की अनुभूति होती है। वह गन्ध प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार जिहवा के अग्रभाग पर चित्त को चित्त को स्थिर करने से जो दिव्य रस की अनुभूति होती है तथा तालू में संयम करने से (चित्त को स्थिर करने से) दिव्य रूप का साक्षात्कार होता है। उसे रूप प्रवृत्ति कहा जाता है तथा जिहवा के मध्य भाग पर चित्त को एकाग्र करने से दिव्य स्पर्श का अनुभव होता है। जिसे स्पर्श प्रवृत्ति कहते है, तथा जिहवा के मूल में चित्त को एकाग्र करने पर दिव्य शब्द प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इस प्रकार इन्द्रियों के विभिन्न विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध है। ये पंच महाभूतो की तन्मात्राएँ भी है। इन विषयो से उत्पन्न साधना वृत्ति मन की स्थिति का निरोध करती है। इस प्रकार ये विभिन्न प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होकर चित्त को स्थिर करती है। अतः साधक को श्रद्धा और विश्वास से इन प्रवृत्तियों में से किसी एक का अभ्यास योग्य गुरू के निर्देशन में करना चाहिए। इन विषयो का ध्यान करने से भी चित्त निर्मल होता है।
4. महर्षि पतंजलि कहते हैं कि इसके अतिरिक्त मन को स्थिर करने वाली एक और प्रवृत्ति निम्न है -
"विशोका वा ज्योतिष्मती ।' पा० यो० सू० 1 / 36
- अर्थात इसके अतिरिक्त शोक रहित ज्योतिष्मति (प्रकाश वाली) वृत्ति मन को प्रसन्न करने वाली होती है। महर्षि पतंजलि न पूर्व में बताया है कि विषयवती प्रवृत्ति मन को स्थिर कर देती है। उसी प्रकार विशोका (शोक रहित ) नामक प्रकाश वाली प्रवृत्ति भी मन को स्थिर कर देती है। विशोका वृत्ति में हृदय कमल में चित्त को स्थिर करने पर चित्त की एकाग्रता सधती है। हृदय कमल में अनाहत चक पर संयम करने पर आत्मानुभूति का सम्यक ज्ञान का साक्षात्कार करता हैं। इस दिव्य आलोक की दशा में साधक इतना प्रफुल्लित हो जाता है कि उसे शोक आदि का अनुभव नही होता है। इस ज्योतिष्मती प्रवृत्ति के उदित होने पर तमोगुण तथा रजोगुण से उत्पन्न होने वाले शोक आदि की निवृत्ति हो जाती है। इसलिए यह प्रवृत्ति विशोका प्रवृत्ति कही जाती हैं। इस प्रवृत्ति के उत्पन्न होने पर चित्त प्रसन्न होता है, निर्मल होता है।
5. महर्षि पतंजलि मन की स्थिरता का अगले उपाय का वर्णन कर रहे है
'वीतरागविषयं वा चित्तम् ।' पा० यो० सू० 1 / 37
अर्थात वीतराग पुरूषो का विषय करने वाला चित्त भी स्थिर हो जात है। वीतराग अर्थात ऐसे पुरूष जो रागादि द्वेषो से रहित हो, ज्ञानवान हो, वैराग्यवान हो ऐसे पुरूषो का विषय करने वाला चित्त भी स्थिरता को प्राप्त हो जाता है।
- प्रिय विद्यार्थियो जिन योगियो, महापुरूषो के राग, द्वेष नष्ट हो चुके हो, ऐस योगियों को ध्येय मानकर विषय करने से, ऐसे राग द्वेष नष्ट हुए योगियो का ध्यान करने से चित्त स्थिर होता है। भावार्थ यह है कि जैसे यदि शुक्रदेव जैसे वीतराग सन्तो को लक्ष्य मानकर उनका ध्यान करने से उन्हीं की तरह गुण साधक के अन्तर में आने लगते है। साधारणतः आपने देखा ही होगा कि एक हृष्ट- पुष्ट व स्वस्थ पुरूष या स्त्री को आप देखते है तो उन्हें देख कर वैसा ही बनने का विचार या भाव मन में आने लगते है। इसी तरह राग द्वेष आदि दोषो से रहित चित्त शान्त चित्त, विरक्त चित्त वाले योगी के चरित्र का चिन्तन करने से ध्यान करने से साधक के चित्त में वैसे ही भाव आने लगते है। साधक श्रद्धा पूर्वक प्रयत्न करता है तथा इस प्रकार प्रयत्न करते करते साधक के जीवन में ज्ञान का प्रकाश होता है। चित्त लौकिक विषयो से परे आलौकिक की दिव्यता का अनुभव करता है तथा साधक का चित्त स्थिरता को प्राप्त होता है।
6. चित्त की स्थिरता का उपाय महर्षि बताते हुए कहते है
'स्वप्ननिद्राज्ञानालम्वनं वा ।'
पा० यो० सू० 1 / 38
- अर्थात जो चित्त स्वप्न व निद्रा के ज्ञान का अवलम्वन करने वाला (आश्रय लेने वाला) है, वह भी स्थिर होता है। यहाँ सूत्र के अर्थ से स्पष्ट है कि 'ज्ञान' शब्द का सम्बन्ध स्वप्न तथा निद्रा दानो से है। यद्यपि निद्रा तमोगुण प्रधान है इसलिए चित्त की त्याज्य वृत्ति है। परन्तु सत्व गुण की मात्रा होने के कारण ही यह ज्ञान हो पाता हैं। जैसे कोई व्यक्ति सो कर उठता है, सो कर जागने पर यह अनुभति करता है कि आज मैं सुखपूर्वक सोया । यह सुख की अनुभूति यह निद्रा ज्ञान चित्त की एकाग्रता में सहायक होता है। इसी प्रकार स्वप्न ज्ञान भी चित्त को प्रसन्न व स्थिर करने में सहायक होते हैं। जैसे यदि स्वप्न में अपने ईष्टदेव, महापुरूष के दर्शन हो या स्वप्न में ही अदभूत सफलता पाना, स्वप्न में कोई सिद्ध पुरूष स्वयं बन जाना आदि स्वप्नो से मन प्रसन्न होता है। उन स्वप्नो को याद कर वैसे ही भाव मन में लाया जाए तो भी मन स्थिर होता है।
7. महर्षि पतंजलि मन को स्थिर करने का अन्य उपाय बताते है
'यथाभिमतध्यानाद्वा ।। पा० योo सू० 1 / 39
- अर्थात जिसका जैसा अभिमत हो उसके ध्यान से भी मन स्थिर हो जाता है। इस में महर्षि ने चित्त को स्थिर करने के चित्त प्रसादन के उपाय बताये हैं। महर्षि के सूत्र अनुसार जिस साधक को जो उपाय अनुकूल लगे, उसका श्रद्धा पूर्वक अभ्यास करके चित्त को स्थिर किया जा सकता है। इस सूत्र में महर्षि कहते है कि इन उपायो के अतिरिक्त जिन्हे यह साधन रूचिकर ना लगे वे अपनी रूचि के अनुसार विषयों में ध्यान करके मन स्थिर कर सकते है। जैसे अपने ईष्टदेव का ध्यान देवताओ (गणेश, शिव, राम, कृष्ण, हनुमान आदि) का ध्यान अपने गुरूदेव का ध्यान तथा हृदय क्षेत्र पर ध्यान, भूमध्य, नाभि, श्वास आदि पर ध्यान सन्तो के चित्रो का ध्यान आदि। इस प्रकार जिसको जैसा अभिमत हो उस पर ध्यान करने से मन स्थिर होता है।
- इस प्रकार प्रिय विद्यार्थियो महर्षि पतंजलि ने सूत्र 33 से 39 तक के कर्म हमारे चित्त का शोधन करने के बताए है। इन उपायों से चित्त प्रसन्न होता है, निर्मल होता है तथा स्थिर हो जाता है व साधक का पथ प्रशस्त होता है। ये कर्म शोधन कर्म कहलाते है। ये कर्म हमें ईश्वर की भक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। भक्ति तथा योग साधक को पात्रता प्रदान करते है। जैसे जैसे साधक इन उपायों को अपनाता है, उसके कर्म शुद्ध, सात्विक - होने लगते है, तथा चित्त की वृत्तियों का शोधन होता है। दृढ़निष्ठा के साथ इन उपायो को करने से मनुष्य अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँच जाता है।