प्रकृति एवं पुरुष की अवधारणा व स्वरूप |प्रकृति की अवधारणा | Concept of Nature in Yoga

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 प्रकृति एवं  पुरुष  की अवधारणा व स्वरूप

प्रकृति एवं  पुरुष  की अवधारणा व स्वरूप  |प्रकृति की अवधारणा | Concept of Nature in Yoga
 

प्रकृति एवं  पुरुष  की अवधारणा व स्वरूप सामान्य परिचय 

प्रिय पाठकों, मनुष्य जैसे ही इस संसार में आकर आंखें खोलता है वह अपने चारों ओर प्रकृति को देखता है। जन्म के साथ ही मनुष्य का सम्बन्ध प्रकृति के साथ जुड़ जाता है और जीवन पर्यन्त जुड़ा रहता है। जैसे ही उसकी बुद्धि का विस्तार होता है उसके अन्दर प्रकृति और पुरुष के स्वरूप को जानने की इच्छा बलवती होती जाती है। आदिकाल के ऋषि, महर्षि एवं योगीजन से लेकर आधुनिक काल के मनीषी, विद्धान एवं वैज्ञानिकों तक ने इन तत्वों पर गहन अध्ययन एवं शोध अनुसंधान किया है। भारतीय साहित्य में प्रकृति और पुरुष के स्वरुप पर अत्यन्त गहन विचार मंथन किया गया है। वेद की ऋचाएं, उपनिषद् के मंत्र, गीता के श्लोक, दर्शन साहित्य के सूत्र एवं वैज्ञानिकों के शोध अनुसंधान इन तत्वों की सविस्तार व्याख्या करते हुए जिज्ञासुओं की जिज्ञासाग्नि को शान्त करते हैं। चूकिं ये प्रकृति और पुरुष योगी साधक पुरुष के लिए भी जानने एवं समझने योग्य है इसीलिए योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि भी इन तत्वों पर प्रकाश डालते है ।

 

जिज्ञासा भी अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी। योग मार्ग की साधना के पथ पर आगे बढ़ने के लिए योगी पुरुष को प्रकृति एवं पुरुष के स्वरुप का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है क्योकि यह प्रकृति ही भोग एवं अपर्वग का साधन है। जब तक मनुष्य प्रकृति एवं संसारिक पदार्थो में लिप्त रहता है, तब तक वह ईश्वर उपासना को सिद्ध नहीं कर पाता है। योगी साधक प्रकृति के इस स्वरुप को जानकर स्वयं को प्रकृति से हटाकर ईश्वर के साथ जोड़ता है लेकिन जब तक साधक को प्रकृति और पुरुष के स्वरूप का भलि भंति ज्ञान नही होता तब तक प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद करना संभव नहीं है इसीलिए योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि योग सूत्रों के माध्यम से प्रकृति एवं पुरुष के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। प्रिय पाठकों चूंकि यह योग साधना से जुड़ा अत्यन्त गंभीर एवं महत्वपूर्ण विषय है अतः आपके मन में भी सर्वत्र व्याप्त प्रकृति एवं पुरुष के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी। प्रस्तुत इकाई में आप विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित प्रकृति एवं पुरुष की अवधारणा एवं स्वरुप का सविस्तार अध्ययन करेगें।

 


प्रकृति की अवधारणा

 

प्रकृति की अवधारणा अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक है। प्रकृति को सृष्टि, भूमण्डल, भूलोक, धुलोक धरती एवं संसार आदि नामों से जाना जाता है। इन विशेषणों से प्रकृति के अर्थ को धारण किया जाता है।

 

प्रकृति सत्व, रजस और तमस् इन तीन गुणों से युक्त है। इन तीन गुणों की साम्यावस्था प्रकृति और इनकी विषम अवस्था ही विकृति है। समस्त भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति प्रकृति से ही होती है तथा सभी भौतिक पदार्थ इन तीन गुणों से युक्त होते हैं। यह संसार प्रकृति का ही परिणाम मात्र है जिसके स्वरुप की व्याख्या सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद और परिणामवाद के सिद्धान्तों के माध्यम से की गयी है।

 

प्रकृति जड है और पुरुष चेतन है। चेतन पुरुष अपना बिम्ब प्रकृति में देखकर स्वयं को कर्ता मानकर प्रकृति के साथ अज्ञानजनित बंधन में बंध जाता है। इसी बंधन से मोह, लोभ, कोध एवं दुख की उत्पत्ति होती है। किन्तु जिस समय पुरुष को यह ज्ञान होता है कि वह कर्ता नही है तब उसका अज्ञानता का आवरण दूर हो जाता है तथा कर्तापन के भाव का अभाव होने पर उसका लोभ व मोह का आवरण हट जाता है तथा वह कर्मबन्धन से मुक्त होकर अपने केवल स्वरूप को जानकर परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है, यही अवस्था कैवल्य अथवा मोक्ष अथवा मुक्ति कहलाता है। अब प्रकृति की अवधारणा का ज्ञान प्राप्त करने पर प्रकृति के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा आपके मन में अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी, अतः अब विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों जैसे वेदों, उपनिषदों, दर्शनों एवं गीता में वर्णित प्रकृति के स्वरूप का अध्ययन करेगें।

 

प्रकृति का स्वरुप

 

प्रकृति पुरुष के दर्शन के लिए स्वंम को प्रकट करती है और पुरुष को मोक्ष प्राप्त होने पर स्वंम को हटा लेती है। प्रकृति ओर पुरुष के मिलन को सर्ग की संज्ञा दी जाती है। सर्ग की अवस्था का परिणाम सम्पूर्ण संसार की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होता है। विभिन्न शास्त्रों में प्रकृति के मूल स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है 


1 वेद में वर्णित प्रकृति का स्वरुप

 

वेद में प्रकृति की रचना एवं स्वरुप पर प्रकाश डाला गया है। ऋग्वेद में हिरण्यगर्भ अर्थात परमात्मा को इस विश्व (प्रकृति) का सृष्टा अर्थात रचियता कहा गया है। ऋग्वेद की ऋचा में सृष्टिकर्ता अर्थात ईश्वर को तक्षा अर्थात बढई के रूप में स्मरण करते हुए कहा गया है कि जैसे कोई बढई काठ के उपकरण से सजाकर भवन का निर्माण करता है वैसे ही प्रजापति परमात्मा ने विश्वकर्मा के रूप में इस सृष्टि (प्रकृति) का निर्माण किया । 


ओ३म सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञचान्तरिक्षमथो स्वः ।। 

(ऋग्वेद 10/190/03)

 

अर्थात 

सारे जगत को धारण करने वाले ईश्वर ने सूर्य और चन्द्र को पूर्वकल्प के समान रचा प्रकाशयुक्त प्रकाशरहित लोक तथा अन्तरिक्ष को भी रचा।


यजुर्वेद में भी ईश्वर को जगत अर्थात प्रकृति का रचियता मानते हुए ईश्वर के हिरण्यगर्भ स्वरुप का वर्णन इस प्रकार किया है-

 

ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । 

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। ( यजु० अ० 13/04)

अर्थात 

स्वप्रकाशरूप प्रभु उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का एक ही स्वामी है। वह जगत से पूर्व वर्तमान था । वही भूमि सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उसी परमात्मा के लिए यज्ञ करें। वह परमात्मा इस प्रकृति की रचना कैसे करता है, इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि-

 

ओ३म् यः प्रणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव 

य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। ( यजु00 32/06)

 

अर्थात

जो प्राणों वाले और अप्राणी रुप जगत का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है, जो मनुष्य और गौ आदि प्राणियों का स्वामी है उस परमात्मा की भक्ति करो। जिस परमात्मा ने अपनी सामर्थ्य से सूर्य आदि तेजोमय और भूमि आदि को धारण किया है। जिस जगदीश्वर ने मोक्ष को धारण किया है और जो आकाश में सब लोकलोकान्तरों का निर्माण करता है, हम लोग उसी परमात्मा की भक्ति करें ।

 

इस प्रकार वैदिक साहित्य में ईश्वर को प्रकृति का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता एवं सहारकर्ता कहा गया है। वह परमात्मा प्रकृति को उत्पन्न करने के उपरान्त उसका संचालन करता है एवं प्रलय काल में प्रकृति का संहार अर्थात विनाश करता है।

 

2 उपनिषद में वर्णित प्रकृति का स्वरुप

 

उपनिषद साहित्य में जगत अर्थात प्रकृति के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए जगत को ब्रह्म की अभिव्यक्ति मानते हुए वेदों के समान ईश्वर को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना गया। उपनिषद दर्शन के अनुसार जगत अर्थात प्रकृति ब्रह्म से उत्पन्न होती है। ब्रह्म ही इस प्रकृति का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता है। प्रकृति के प्रत्येक पदार्थों में ईश्वर उस प्रकार उपस्थित रहता है जिस प्रकार दूध में घी और तिलों में तेल व्याप्त रहता है। वृहदराण्यक उपनिषद में कहा गया कि ब्रह्म सृष्टि की रचना करता है और उसी में व्याप्त हो जाता है। देश, काल और प्रकृति आदि ब्रह्म के आवरण है क्योंकि सभी में ब्रह्म व्याप्त है। जिस प्रकार नमक पानी में घुलकर सारे पानी को व्याप्त कर लेता है उसी प्रकार ब्रह्म पदार्थों के अन्दर व्याप्त हो जाता है।

 

ध्यान बिन्दु उपनिषद में सृष्टि के स्वरूप को समझाते हुए कहा गया-

 वृक्षं तु विद्याच्छाया सकलं तस्यैव निष्कला

सकले निष्कले भावे सर्वात्रात्मा व्यवस्थितः ।। ( ध्यान बिन्दु उप0 01/0)

 

अर्थात 

वृक्ष के छोटे बीज में से ही तना, पत्तियां, फूल, फल, छाया सभी विकसित होते हैं। बीज ही विकास पाकर बड़ा वृक्ष खडा होता है उसकी छाया चारों और फैलती है। इस प्रकार बीज ही पूर्ण व्यवस्थित सर्वात्मा है।

 

उपनिषदकार सम्पूर्ण प्रकृति में ईश्वर की सर्वव्यापकता की ओर संकेत करता हुआ पुनः कहता है कि जिस प्रकार पुष्पों में सुगन्ध, दूध में घृत, तिल के दानों में तेल और पहाड़ों में सोना छिपा रहता है, उसका प्रत्यक्ष नही होता किन्तु उसके स्वरुप की अनुभूति अवश्य होती है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति के कण-कण में परब्रह्म अर्थात ईश्वर की शक्तियां समायी रहती है। इस प्रकार उपनिषदकार की मान्यता है कि यह सम्पूर्ण विश्व अर्थात प्रकृति ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है।

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